राजधानी में भवन की कमी से सीहोर में शुरू हुआ नया ऑफ‍िस

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राजधानी में भवन की कमी से सीहोर में शुरू हुआ नया ऑफ‍िस

एसआर रावत. मध्यप्रदेश की राजधानी होने के कारण भोपाल में बड़ी संख्या में अध‍िकारी और कर्मचारी, नागपुर और अन्य स्थानों से स्थानांतरित किए गए। उस समय नई राजधानी होने के कारण भोपाल में शासकीय भवनों की कमी थी। मेरा हेडक्वार्टर भोपाल में रखा गया था। भोपाल में शासकीय आवास और ऑफ‍िस के लिए जगह मिलने की संभावना कम थी। दूरियां होने के कारण कर्मचारियों को आने जाने में कठिनाई का सामना करना पड़‍ता था। इन सब बातों को जानने के बाद भी मैंने शासकीय आवास आवंटित करने के लिए आवेदन दे दिया, परन्तु आवास मिलने की संभावना कम ही थी। इस बीच मुझे जानकारी मिली कि भोपाल से 40 किलोमीटर दूर सीहोर में फॉरेस्ट एसडीओ का नवनिर्मित आवास कलेक्टर आवास के बाजू में खाली पड़ा है। मैंने उसे जाकर देखा तो उसमें काफी जगह थी लेकिन सुविधाओं का अभाव था। काफी सोच-विचार के बाद तय किया कि भोपाल के स्थान पर सीहोर में रहना बेहतर होगा।





भोपाल की जगह सीहोर में हेडक्वार्टर





सीहोर के शासकीय आवास में निवास के साथ ऑफ‍िस रखने का निश्चय किया। मैंने अपना हेडक्वार्टर भोपाल के स्थान पर सीहोर रखने के लिए शासन को को पत्र भेजा। जल्द ही इसका अनुमोदन हो गया। मेरे उच्चाध‍िकारी बलवंत सिंह रीवा कंजरवेटर के पद पर पदस्थ थे। शासकीय कार्य की राश‍ि और मेरा मासिक वेतन भोपाल पश्च‍िम डिवीजन से प्राप्त होता था। सभी रिकॉर्ड और अन्य दस्तावेज भी डिवीजन ऑफ‍िस में उपलब्ध होने के कारण मुझे बार-बार सीहोर से भोपाल की यात्रा बस से करना पड़ती थी।





दो वर्ष जुगाड़ की बिजली से ऑफ‍िस हुआ रोशन





एसडीओ फॉरेस्ट के आवास में सुविधाओं का अभाव था। बिजली की फिटिंग और कनेक्शन नहीं था। पानी के लिए नल का कोई कनेक्शन नहीं था। आवास के चारों ओर फेंसिंग भी नहीं थी। खिड़की और दरवाजों में कांच लगे थे लेकिन सुरक्षा की दृष्टि से कोई ग्रिल थी। नए ऑफ‍िस के लिए फर्नीचर और अन्य सामान उपलब्ध नहीं था। इस सब की व्यवस्था करने का जिम्मा मेरे कंधों पर आ चुका था। शासकीय सेवा में अपेक्षाकृत नया और अनुभवहीन था लेकिन अपनी समझ के अनुसार इन व्यवस्थाओं को करने में जुट गया। बिजली बोर्ड के दफ्तर में जाकर पता किया कि आवास में टेम्परेरी बिजली फिट‍िंग करने के बाद कनेक्शन मिल पाएगा। बिजली बोर्ड दफ्तर ने जानकारी दी कि टेम्परेरी फिट‍िंग के लिए कनेक्शन नहीं दिया जाता। डीएफओ की अनुमति से ही आवास में बिजली की परमानेंट फ‍िट‍िंग संभव थी और इसके बाद ही बिजली बोर्ड कनेक्शन दे सकता था। अनुभवहीन होने के कारण मैं पड़ोस में रहने वाले डिप्टी कलेक्टर मुरली मनोहर तिवारी से मिला। उनसे निवेदन किया कि जब तक बिजली बोर्ड कनेक्शन नहीं देता तब तक वे अपने आवास में एक सब-मीटर लगाकर मुझे बिजली का एक तार खींचने की अनुमति दे दें। तिवारी जी सज्जन और व्यवहार कुशल व्यक्त‍ि थे। उन्होंने तत्काल अपनी सहमति दे दी। मैंने अपने आवास में बिजली की टेम्परेरी फ‍िट‍िंग करवाई और तिवारी जी की कृपा से मेरे घर में रोशनी होने लगी। प्रत्येक माह मैं उनको सब-मीटर में दर्ज होने वाली रीडिंग के आधार पर भुगतान करने लगा। यह क्रम पूरे दो वर्षों तक चलता रहा। आवास में कोई सीलिंग फैन नहीं लग पाया इसलिए टेबल फैन से काम चलाता रहा।





अपने जेब से सरकारी बिजली बिल का भुगतान





आवास के साथ में दफ्तर लगा हुआ था। इसकी पूरी बिजली फ‍िट‍िंग शासकीय व्यय से करवा कर प्रत्येक माह के बिजली बिल का भुगतान शासकीय राश‍ि करना चाहिए था, परन्तु मैं अपने वेतन से इस पूरे आवास का किराया प्रतिमाह जमा करवाता रहा। जबक‍ि आवास में शासकीय कार्यालय लगता था और इसके थोड़े हिस्से में मैं रहता था। इस आधार पर मुझे पूरे आवास का किराया स्वयं नहीं भरना चाहिए था। अनुभवहीन होने या शासकीय सेवा में फूंक-फूंककर कदम रखने के कारण मुझे आर्थ‍िक हानि उठानी पड़ी।





बस, ट्रक, साइकिल और बैलगाड़ी से शासकीय दौरे





ऑफ‍िस के फर्नीचर की सीहोर में बनवाने की व्यवस्था की गई। स्टाफ की पोस्ट‍िंग हो चुकी थी। ऑफ‍िस को व्यवस्थि‍त कर किसी तरह उसे शुरू किया गया। रोजगार कार्यालय से कुछ पदों की भर्ती की गई। कलेक्टर द्वारा निर्धारित मासिक वेतन पर कुछ ड्रॉफ्टसमैन रखे गए। नक्शे बनाने के महत्वपूर्ण काम के लिए इनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। मुझे और अन्य क्षेत्रीय कर्मचारियों को प्रतिमाह 15 से 20 दिन दौरे पर रहना पड़ता था। हम लोगों के दौरे के लिए कोई शासकीय वाहन नहीं था इसलिए कभी बस से और कभी ट्रक से यात्रा करनी पड़ती थी। जंगल के भीतर कैम्प कर कार्य करने के दौरान जब बस नहीं मिल पाती थी, तब यात्रा के लिए ट्रकों का उपयोग करना पड़ता था। रेस्ट हाउस सभी जगहों पर उपलब्ध नहीं थे। अधिकांश समय हमें गांव में किसी मालगुजार या किसान के घर में या टेंट लगा उनमें रुककर अपना कार्य करना पड़ता था। फॉरेस्ट डिवीजन के रेंज ऑफिसर एवं अन्य कर्मचारी कभी-कभी सहयोग दे देते थे, जिनकी सहायता से कार्य संपादन किया जाता था। हमें अपना सामान एक कैम्प से दूसरे कैम्प में किराए से ली गई बैलगाड़ी द्वारा भी ले जाना पड़ता था और स्वयं हम लोग पैदल ही एक कैम्प से दूसरे कैम्प जाते और मुकाम कर पैदल जंगलों में घूमकर अपना कार्य करते। कई बार साइकिल से भी यात्रा करते थे। साइकिल साथ में इसलिए ले जाना पड़ती थी क्योंकि कई बार क्षेत्रीय कर्मचारी अपनी साइकिल देने में आनाकानी करते थे। हम सभी लोग जब दौरे पर जाते तो हमेशा खाकी ड्रेस, बूट एवं खाकी हेट का उपयोग करते।





जंगलों में घूमते रहे लेकिन आनंद महसूस नहीं कर पाए





ऑफिस के कार्य संपादित करने के लिए मुझे चार फॉरेस्ट रेंजर, दो फॉरेस्टर, दो सर्वेयर, एक बाबू और दो ड्राफ्ट्समैन मिले थे। कुछ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी ऑफिस में थे। हम लोग सुबह नाश्ता करके अपने साथ दोपहर का खाना पैक करवाकर जंगल की ओर रवाना हो जाते थे। दिनभर जंगलों में रहकर अपना काम निपटाकर शाम को कैम्प में वापस आते थे। दिनभर जो काम करते उसकी एक रिपोर्ट भी तैयार करते जाते थे। अब आभास हो रहा है कि हम लोग कितने भाग्यशाली थे कि प्रकृति के इतने पास रहकर सुरम्य जंगलों में घूमते हुए स्वच्छ वातावरण का आनंद उठाते रहे लेकिन काम करने में जुटे रहने के कारण हम उस आनंद को महसूस नहीं कर पाए। अब लगता है कि कार्य की व्यस्तता के बीच कुछ पल स्वयं के लिए निकाल कर हमें अकेले में शांत भाव से बहती हुई नदियों के किनारे उनकी कल-कल ध्वनि सुनते हुए प्रकृति का आनंद उठाना चाहिए था। अब लोग जंगल में पैसा खर्च कर और कष्ट उठाकर इस तरह का आनंद उठाने के लिए जाने लगे हैं।





एकांत में सहारे के साथ रामायण पाठ





सीहोर में आवास की उचित व्यवस्था करने के उपरांत पत्नी और एक वर्ष की पुत्री को वहां ले आया। पत्नी को एक श‍िकायत रहती थी कि आवास में ऑफिस होने के कारण स्वतंत्र वातावरण नहीं था। पत्नी के साथ एक वर्ष की पुत्री कभी भी घर से बाहर सुकून और शांति बैठ नहीं पाती थीं। फॉरेस्ट गार्ड मुरलीधर रावत आवास के पीछे एक खोली में परिवार के साथ रहने लगे। 15 से 20 दिन के दौरे पर रहने के दौरान मेरी पत्नी को फॉरेस्ट गार्ड की पत्नी अकेले में सहारा मिला। फॉरेस्ट गार्ड की पत्नी धार्मिक प्रकृति की थी। वह रात में सोने से पहले अगरबत्ती जलाकर रामायण पाठ करने बैठ जाती थी। लगभग दो ढाई घंटे तक वह पाठ करती। मेरी पत्नी संकोचवश कुछ नहीं बोलती और ना चाहते हुए बैठकर उन्हें पूरा रामायण पाठ सुनना पड़ता। जिसके कारण उनकी अगले दिन की दिनचर्या में व्यवधान होने लगा। किसी तरह से उसे समझाइश दे कर इसे नियंत्रित किया गया।





1934 मॉडल की फोर्ड कार में दौरे की बाध्यता





मेरे बड़े भाई डीपी रावत पीडब्ल्यूडी विभाग में एग्जीक्यूटिव इंजीनियर थे। उनके पास 1934 मॉडल की एपीजे 9707 फोर्ड गाड़ी थी। मेरी कठिनाई को देखते हुए उन्होंने यह कार मेरे पास भेज दी। इस कार का उपयोग दौरे के लिए करने लगा। मुझे कार के रखरखाव के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं थी और मेरे पास कोई ड्राइवर भी नहीं था। शुरुआत में मुझे कार के रखरखाव में कठिनाई का सामना करना पड़ा। एक बार गाड़ी का सामने का पहिया पंक्चर हो गया। अर्दली की सहायता से उसको निकालने की कोशिश की लेकिन वह नहीं निकल पाया। अर्दली से उसे ताकत लगाकर निकालने को बोला। जैसे ही उसने ताकत लगाई, वैसे ही एक्सल टूटकर मय पहिए के बाहर आ गया। कार इतने पुराने मॉडल की थी कि उसके नए पार्ट्स बाजार में मिलते ही नहीं थे। पुराने पार्ट्स कबाड़खाने की दुकानों पर ही उपलब्ध होते थे। एक्सल टूट चुका था इसलिए नया एक्सल डालना जरूरी हो गया। सीहोर की कबाड़ी की दुकानों में एक्सल उपलब्ध नहीं हो पाया। भोपाल के कबाड़खानों में जाकर बहुत खोजबीन करने के बाद एक्सल मिला तब जाकर कार पुनः चलने लायक हो पाई। एक बार कार का ड्रम खराब हुआ तो वह भी कबाड़खाने में जाकर मिला, तब ड्रम बदला गया।





जब कार की लाइट आसमान में दिखने लगी





एक बार अपना काम खत्म कर भोपाल से सीहोर लौट रहा था। रात हो जाने के कारण कार की लाइट जलानी पड़ी। कार चलाते हुए मैंने देखा कि कार की लाइट सामने सड़क पर न पड़कर आसमान की ओर जा रही है। मैंने कार को रोका और अर्दली से कहा कि लाइट को हिला-डुलाकर ठीक करो। कार में दोनों ओर बड़े मडगार्ड थे। इनके ऊपर दोनों तरफ बड़ी लाइट के गोल डिब्बे लगे थे। इनसे लाइट सीधे निकल कर सड़क पर पड़ती थी। जब यह गोल डिब्बे कार के चलने के कारण हिल जाते तो लाइट सीधे सड़क पर ना पड़कर ऊपर या बाजू की ओर दिखाई देती थी। अर्दली इन डिब्बों को इस तरह हिलाता ताकि लाइट सीधी रोड पर पड़ती रहे। कार पुनः आगे बढ़ती लेकिन कुछ दूरी के बाद ये डिब्बे फिर हिल जाते और लाइट इधर-उधर होती रहती। बार-बार अर्दली को उतारकर इन्हें ठीक करने के अलावा अन्य कोई विकल्प भी नहीं था।





( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )



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