अनिल कर्मा। आपके लिए आपकी प्राथमिकताओं में शिक्षा किस नंबर पर है? बेशक आपका उत्तर होगा- पहले नंबर पर। परिवार की आय और समय का सबसे बड़ा हिस्सा इस समय आमतौर पर शिक्षा पर खर्च हो रहा है। बच्चों, भाई— बहनों या स्वयं में से किसी की भी पढ़ाई हो। या फिर सभी की, लेकिन यही सवाल यदि सरकारों से किया जाए तो कायदे का कोई जवाब आना मुश्किल है। मगर आंकड़े सच उगल देते हैं। विश्व गुरु का दावा करने वाला हमारा देश शिक्षा पर खर्च के मामले में दुनिया के 100 देशों में भी शुमार नहीं है। सामान्य तौर पर हम, हमारी जीडीपी का 3 फीसदी भी शिक्षा पर खर्च नहीं करते। अमेरिका, ब्रिटेन, न्यूजीलैंड और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश 6 फीसदी या उससे भी ज्यादा शिक्षा पर खर्च करते हैं। नार्वे तो लगभग साढ़े 6 फीसदी। चीन की बात करें तो वह भारत के कुल बजट के आसपास केवल शिक्षा पर खर्च कर देता है। हमारा सालाना शिक्षा बजट है 93-94 हजार करोड़ रुपए के आसपास और चीन का 29-30 लाख करोड़। कोई तुलना ही नहीं है। प्रदेशों के हाल देखें तो और भी खराब। हमारे मध्य प्रदेश के और भी ज्यादा खराब।
सुस्ती और नकारात्मकता दे रही दुष्परिणाम
सवाल सिर्फ खर्च का नहीं है। सवाल एप्रोच का भी है। सोच का भी है। प्रतिबद्धता का भी है। इन सबमें सुस्ती और कहीं-कहीं नकारात्मकता का ही परिणाम है जो विश्व के श्रेष्ठ 200 शिक्षण संस्थानों में हमारे संस्थानों को 177, 185 और 186 रैंक मिलने पर भी हम उछल पड़ते हैं। इसी तरह जब देश के टॉप-100 में हमारे प्रदेश के एक भी विश्व विद्यालय को स्थान नहीं मिलता तो हम इस पर न आश्चर्य करते न चिंतन, बल्कि दो तकनीकी शिक्षा केंद्रों (आईआईएम इंदौर और आईआईएससीआर भोपाल) के इस सूची में शामिल होने पर जश्न मनाते हैं। जबकि इसी सूची में हमारे पड़ोसी उत्तरप्रदेश के 7 तो महाराष्ट्र के 11 शिक्षण संस्थान शामिल हैं। आखिर शिक्षा को लेकर हम प्रतिस्पर्धात्मक क्यों नहीं हैं? इतना संतोष कहां से और क्यों जुटा ले रहे हैं?
जब नींव ही कमजोर तो कैसे आएं परिणाम
हकीकत यह है कि हमारी सरकारों का ध्यान लोक-शिक्षण या लोक-जागरण से ज्यादा लोकलुभावन पर है। कदाचित इसीलिए कन्यादान या ऋण माफी या मुफ्त शिक्षा जैसी योजनाएं तो खूब चलती हैं। लाडली लक्ष्मी को साइकिल, मोबाइल-लैपटॉप भी मिल जा रहे हैं, लेकिन असल शिक्षा-दान पर किसी का फोकस नहीं। बारहवीं और उससे ऊपर तो फिर भी पढ़ाई की थोड़ी फिक्र कहीं-कहीं नजर आ जाती है, लेकिन ‘बारहखड़ी’ तो बेहद उपेक्षित है। हमारी प्राथमिक शिक्षा पूरी तरह से ‘संविदा’ आधारित होती जा रही है। अव्वल तो निजी स्कूलों को इसका पूरा ठेका दे दिया गया है। जो थोड़े बहुत स्कूल सरकारी बचे भी हैं तो वहां किताबें अधूरी हैं और शिक्षक अतिथि। आश्चर्य है शिक्षा के सबसे जरूरी और सबसे महत्वपूर्ण कारक और वाहक ‘शिक्षक’ को लेकर हम सबसे कम संजीदा हैं। पिछले दिनों हाइकोर्ट ने कहा- हमारे प्राथमिक स्कूलों के शिक्षकों को सबसे ज्यादा वेतन मिलना चाहिए। लेकिन हकीकत क्या है? निजी स्कूलों में शिक्षकों का शोषण किसी से छुपा नहीं है और सरकारी स्कूलों में पूर्णकालिक शिक्षक गिनती के हैं। पिछले कुछ समय से हमारी राज्य सरकारों ने शिक्षामित्र, शिक्षाकर्मी, संविदा शिक्षक, गुरुजी, अतिथि शिक्षक, लोक शिक्षक, लोकमित्र, विद्या उपासक और विद्या वालंटियर आदि विभिन्न नामों से ऐसे शिक्षकों की नियुक्ति शुरू कर दी है, जो अस्थाई होते हैं, प्रशिक्षित नहीं होते हैं और जिन्हें बहुत कम वेतन दिया जाता है। मध्यप्रदेश में तो पूरी प्रक्रिया के बाद चयनित शिक्षकों को छोड़कर अतिथि शिक्षक रखे जा रहे हैं। यानी व्यवस्था ही नहीं, सोच और सरोकार भी ‘संविदा’ ही हैं। ऐसे में उत्कृष्ट शिक्षा की हम उम्मीद भी कैसे कर सकते हैं। और जब नींव ही कमजोर होगी तो भवन भव्य कैसे बनेगा? उच्च शिक्षा की तमाम गुणवत्ता के बीज तो प्राथमिक शिक्षा में ही अंकुरित होते हैं।
ज्ञान की जगह होमवर्क कराने में हम अव्व्ल
सवाल उठाए जा सकते हैं कि पूर्णकालिक शिक्षक भी कहां योग्य हैं? कितने निष्ठावान हैं? क्या परिणाम दे पा रहे हैं? सवाल यह भी उठाए जा सकते हैं कि सभी अपेक्षाएं सरकार से ही क्यों? पालक भी तो जिम्मेदारी पहचानें। जनता भी तो जागे। दो अध्ययन इन मामलों में कुछ कहते हैं। एक अध्ययन बताता है कि सरकारी स्कूलों में 43.4 प्रतिशत शिक्षक योग्य और उच्च शिक्षित होते हैं जबकि गैर अनुदान प्राप्त निजी स्कूलों में केवल 2.3 प्रतिशत। फिर भी निजी स्कूलों में शिक्षा का स्तर ऊंचा है। जाहिर है कि शिक्षा के अच्छे स्तर का निर्णायक कारक निजी स्कूलों का कुशल मैनेजमेंट है। एक अन्य सर्वे बताता है कि बच्चों को पढ़ाने और उनका होमवर्क कराने में वक्त देने के मामले में भारतीय दुनिया में पहले नंबर पर आते हैं।
बस जरूरत है तो शिक्षा को प्राथमिकता बनाने की
यानी देश तो शिक्षा के क्षेत्र में उड़ान भरने के लिए तैयार है। योग्य लोग अपना योगदान देने पंक्तिबद्ध खड़े हैं। बस जरूरत इस बात की है कि माहौल तैयार किया जाए। शिक्षा को शीर्ष प्राथमिकता बनाया जाए। बटुआ और बुद्धि खोल दी जाए तथा विश्व प्रतिस्पर्धा में विकसित देशों से बराबरी के सपने जगाए जाएं। इतिहास गवाह है कि सरकारों की इच्छा-शक्ति ने कई बार नए कीर्तिमान बनाए हैं। एक बार शिक्षा के लिए भी जोर का नारा लगाया जाए। आप क्या सोचते हैं? लेखक प्रजातंत्र समाचार पत्र के संपादक हैं