शिवाशीष तिवारी. हमने गांधी से धोखा तो उनके जीते जी ही करना शुरू कर दिया था। बापू ने अपने जीवन काल के अंतिम दिनों में देख लिया था कि उनके लोगों ने जिस अहिंसा को अपनाया था, वह केवल ढोंग बस था। उसके अलावा कुछ नहीं। बापू के ज्यादातर साथियों ने अहिंसा को आजादी पाने का एक जरिया बस माना था। जैसे ही भारत ने आजादी पाई, वैसे ही उन्होंने अपनी फितरत दिखानी शुरू कर दी थी। इसलिए आप जब गांधी के अंतिम दौर के भाषणों को सुनेंगे या उनके द्वारा उस दौर में की गई लेखनी को पढ़ेंगे, तो हम पाएंगे कि गांधी महसूस कर रहे थे कि जिस अहिंसा को वह सब कुछ मानते थे, उनके लोगों ने उस अवधारणा को अपनाया नहीं है। ऐसा गांधी के देश ने और उनके लोगों ने उनके साथ किया था और अब भी कर रहे हैं। क्योंकि देश सहित दुनिया ने बापू को तो मान्यता प्रदान की लेकिन उनके सत्य और अहिंसा के मूल को कभी दिल से अपनाने की कोशिश नहीं की या यूं कहें कि उसे प्राथमिकता नहीं दी।
स्वीकार करें कि हम अहिंसक नहीं
हालिया परिस्थितियों में कम से कम अब हमको स्वीकार करना चाहिए कि हम अहिंसक नहीं हैं। भारत की संस्कृति जरूर अहिंसावादी है। हम कह सकते हैं कि हमारा देश अहिंसा के महत्व को जानता और समझता है। लेकिन हम उसे अपनाने के लिए तैयार नहीं हैं। इन तमाम परिस्थितियों में यदि उन्हें दिल से श्रद्धांजलि देनी ही है तो अपनी सच्चाई को स्वीकार करना चाहिए। हम यह सच्चाई स्वीकार करके बापू के प्रति अपनी आस्था को प्रकट कर सकते हैं।
यूएन को विश्व अहिंसा दिवस के नाटक से बाहर निकलना चाहिए
यूनाइटेड नेशन तो 2 अक्टूबर को विश्व अहिंसा दिवस के रूप में मनाता है। जिन सदस्य देशों ने इसका प्रस्ताव रखा था और जिन सदस्य देशों ने सहमति दी थी, वह देश अपने यहां 2 अक्टूबर के दिन भी अहिंसा का पालन नहीं करते या करवा पाते हैं। साल 2007 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने विश्व अहिंसा दिवस मनाने के लिए जिन दस्तावेजों को तैयार किया था उनमें स्वीकारा गया था कि 2 अक्टूबर को यदि दुनिया में कहीं युद्ध चल रहा होगा, तो उसे भी 24 घंटे के लिए रोका जाएगा लेकिन इस बात को मानता कोई नहीं है। इसलिए यूएन को भी इस नाटक से बाहर निकलना चाहिए।
कभी गांधी के विषय में सोचना चाहिए
हम लोग कितने खुदगर्ज हैं यदि यह जानना हो तो कभी गांधी के विषय में सोचना चाहिए। गांधी ने इस देश की तासीर को बनाए रखने के लिए जीवन जिया। वेदों में बताए गए सत्य, अहिंसा, शांति और सेवा भाव के लिए सीने पर गोली खाई। इस सबके बावजूद देश और दुनिया ने सीख नहीं ली, बल्कि गांधी को गलत सिद्ध करने के लिए झूठे प्रपंच और कुतर्क गढ़े। जिसे रोज हम चाय के डिब्बे से लेकर सोशल मीडिया तक और राजनीतिक लोगों से लेकर धार्मिक लोगों द्वारा सुनते रहते हैं। सोशल मीडिया तकनीकी क्षेत्र के विकास की देन है। इसे बनाने वाले और प्रयोग करने वाले लोग शिक्षित होते हैं लेकिन जब सोशल मीडिया पर गांधी, शांति और अहिंसा की बात करते हैं तो कई यूजर्स अपशब्द कहकर चले जाते हैं। महज कुछ साल पहले तक लोग हिंसक प्रवृत्ति को छुपाने की कोशिश करते थे लेकिन अब इन तमाम माध्यमों द्वारा हिंसा को महिमामंडित किया जा रहा है। इससे बड़ा गांधी के साथ और क्या धोखा हो सकता है? जबकि हम इन तमाम घटनाओं को सहजता से स्वीकारने लगे हैं। ना समाज ऐसे लोगों का बहिष्कार करता है और ना ही कानून सख्ती बरतता है। जबकि दुनियाभर का मानना है कि तकनीक से हिंसा रुकेगी। यहां उल्टा हो रहा है कि तकनीक के प्रयोग से हिंसक बनने में सुविधा हो रही है।
गांधी की बुराई करने से पहले गांधी को पढ़ें
गांधी की ज्यादातर बुराई करने वाले दो-तीन कुतर्क गिनाते हैं। पहला-भगत सिंह की फांसी नहीं रुकवाई। दूसरा-जवाहरलाल नेहरू को प्रधानमंत्री बनवाया और तीसरा-देश का बंटवारा करवाया आदि प्रमुख हैं। ऐसे लोगों को समझाया तो नहीं जा सकता लेकिन यह बताया जा सकता है कि गांधी ने कहा था कि देश का बंटवारा मेरी लाश पर होगा और दूसरी बात जिन लोगों को मुसलमानों से इतनी परेशानी है, वह लोग पाकिस्तान और बांग्लादेश के मुसलमानों को अपनाने के लिए क्या तैयार होंगे। भगत सिंह की फांसी के लिए गांधी को दोष देने वालों को कभी गांधी इरविन पैक्ट पढ़ना चाहिए, जिसमें भगत सिंह की फांसी को रुकवाने के लिए गांधी और अंग्रेजों के बीच समझौता हुआ था। तब भी गांधी के प्रयासों में कमी लगे तो सुभाष चंद्र बोस की ऑटो बायोग्राफी 'ऐन इंडियन पिलाग्रेन' पढ़नी चाहिए। इसमें बोस बताते हैं कि मैं और बापू कराची अधिवेशन के लिए ट्रेन में यात्रा कर रहे थे। हम दोनों खुश थे कि भगत सिंह की फांसी रुक गई लेकिन सुबह खबर मिली कि भगत सिंह को अंग्रेजों ने फांसी पर लटका दिया है। यदि अब भी विश्वास नहीं हो तो कभी भगत सिंह और उनके पिता के बीच जेल में हुए संवाद को पढ़िए, जिसमें भगत सिंह अपने पिता से कहते हैं (तर्जनुमा) कि मैं आपसे फांसी वाले मुद्दे पर इसलिए बात कर रहा हूं क्योंकि आप मेरे पिता हैं। कोई और होता तो बात ही नहीं करता, इस मुद्दे पर। वैसे भी वह माफीनामा लिखकर वीर कहलवाने के शौकीन नहीं थे।
रही बात प्रधानमंत्री पद के चुनाव में सरदार पटेल की जगह जवाहरलाल नेहरू का साथ देने की, तो ऐसे लोगों को जानना चाहिए कि प्रधानमंत्री पद का चुनाव हुआ ही नहीं था। 1947 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए चुनाव हुआ था, जिसमें गांधी की इच्छा पर नेहरू को अध्यक्ष बनाया गया था, जो बाद में प्रधानमंत्री भी बने। वैसे भी नेहरू, गांधी के अलावा भगत सिंह के भी प्रिय थे। भगत सिंह ने जुलाई 1928 में 'किरती' नामक पत्रिका में जेल से एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरू की तुलना करते हुए पंजाब के युवाओं से अपील की थी कि उन्हें सुभाष की जगह नेहरू को अपना नेता बनाना चाहिए। अगर इस हिसाब से कहा जाए तो बापू ने भगत सिंह की इच्छा पूरी करते हुए नेहरू के नाम को आगे बढ़ाया था।
बहरहाल, बात सिर्फ इतनी-सी है कि महापुरुषों पर कोई भी टिप्पणी करने से पहले उनके बारे में पढ़ लेना चाहिए। इसके बाद टिप्पणी करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। वहीं सबकुछ जानते हुए भी कुछ लोग अपनी मानसिकता दूषित किए हुए बैठे हैं तो ऐसे लोगों के मन की सफाई के लिए स्वच्छ भारत मिशन की तर्ज पर 'स्वच्छ मन मिशन' चलाने की जरूरत है।