जिंदगी के तूफानों को दे दीजिए कोई भला सा नाम, क्योंकि जिंदगी है तो खट्‌टा-मीठा लगा ही हुआ है

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जिंदगी के तूफानों को दे दीजिए कोई भला सा नाम, क्योंकि जिंदगी है तो खट्‌टा-मीठा लगा ही हुआ है

अनिल कर्मा। जिंदगी की विविध परिभाषाओं में से एक उसे ‘तूफान’ भी निरूपित करती है। शायराना अंदाज में ही सही, अगर ऐसा माना गया है तो इसमें गलत भी कुछ नहीं। जिंदगी की लहरें कब-कहां क्या रूप धर लें, किस गति को प्राप्त हो जाएं, कौन जानता है। यहां सृजन की बूंदें कब विनाश की कहानी लिखने लगे, किसको पता। लेकिन थोड़ा इसका उल्टा सोचकर देखिए। यानी अगर किसी तूफान को ‘जिंदगी’ जैसे खूबसूरत अलफाज से नवाजें तो? सच मानिए यह भी शायरी जितना ही शानदार फलसफा होगा। उतना ही रूमानी भी। जिंदगी तूफान जैसी हो सकती है तो तूफान भी जिंदगी जैसा हो सकता है। उतना ही व्यापक। उतना ही हलचल वाला। उतना ही अनिश्चित। जिंदगी का अपना तूफान , तूफान की अपनी जिंदगी।

बिछोह में जो साथ वही प्रमिका, चाहे तूफान ही क्यों न हो

दरअसल दुनिया के इस खेले की अपनी भाषा है, अपनी परिभाषा। समझना उतना कारगर नहीं, जितना महसूसना। पिछले कुछ समय में चक्रवाती तूफानों के नामों ने लोगों को आंदोलित किए रखा। सवाल रहे। जिज्ञासा जागी। कटरीना, नीलम, लैला, 'इरीन', नरगिस, रश्मि, निशा जैसे खूबसूरत नाम तूफानों को देकर आखिर क्या बताना चाहते हैं? अभी-अभी गुजरे तूफान को ‘गुलाब’ जैसा नाजुक नाम आखिर क्यों? चक्रवाती तूफानों के नाम रखने के पीछे की कहानी में गहराई से उतरो तो शुरुआत तो बहुत तार्किक है, लेकिन बाद में इसमें ‘भाव’ समाते जाते हैं। समुद्र से एक चक्रवाती तूफान एक सप्ताह या अधिक समय तक चलता है। एक समय में एक से अधिक तूफान आने पर मौसम विभाग व अन्य लोगों को किसी तरह का भ्रम ना हो, इसलिए इनको नाम दे दिया जाता है। 20 सदी की शुरुआत में इस तरह के नामकरण का सिलसिला शुरू हुआ। एक ऑस्ट्रेलियाई मौसम विज्ञानी ने तूफानों के नाम तत्कालीन भ्रष्ट नेताओं के नाम पर रखने का चलन शुरू किया था। यहां तक इसमें तर्क था। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी नौसेना के जवानों और मौसम विज्ञानियों ने तूफानों को अपनी प्रेमिकाओं और पत्नियों के नाम से पुकारना शुरू किया। यहां से इसमें भाव जागा। बिछोह में जो साथ, वही प्रेमिका। फिर वह तूफान ही क्यों ना हो। आजकल तूफान का नामकरण विश्व मौसम संगठन (डब्ल्यूएमओ) और यूनाइटेड नेशंस इकोनॉमिक एंड सोशल कमीशन फॉर एशिया एंड पेसिफिक (ईएससीएपी) द्वारा प्रभाव में लाई गई प्रक्रिया के तहत होता है। नाम रखने वाले पैनल में 13 देश हैं जिनमें भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मालदीव, म्यांमार, ओमान, श्रीलंका, थाईलैंड, ईरान, कतर, सउदी अरब, यूएई और यमन शामिल हैं। क्रम से अलग-अलग देश नाम रखते हैं, लेकिन समानता यह कि आमतौर पर ये नाम नर्म जुबां से हैं। कोई खौफनाक नहीं।

जब आपदा स्मृति में बदलती है तो महकती है

नाम में क्या रखा है... जब शेक्सपियर ने यह कहा था तो उनके जेहन में निश्चित ही अच्छी चीजों के नाम बढ़ा चढ़ाकर रखने-बताने या बोलने की अनिवार्यता की बात रही होगी। गुलाब को गुलाब ना कहें तो भी उसकी खुश्बू तो वही रहेगी। बेशक। लेकिन अगर किसी आपदा का नाम ‘गुलाब’ रख दिया जाए तो? तब क्या सुनने-बोलने-समझने में उसकी विकरालता कुछ कम हो जाएगी? शायद हां। तुरंत शायद नहीं भी। पर हां, इतना तो तय है कि कल जब यह आपदा एक स्मृति में तब्दील होगी, तब जरूर बदलाव महसूस होगा। गुलाब की याद चाहे जितनी कड़वी हो, जुबां पर नाम आते ही एक मीठी महक हमेशा उसके साथ होगी। यही नाम का सुफल है। और फिर जिंदगी में स्मृतियां ही तो असल हासिल हैं। बाकी भविष्य की कल्पनाओं की कोई जमीन नहीं होती और अद्यतन इतना व्यस्त, इतना तेज कि पकड़ना मुश्किल। 

...पत्थर मिलने पर भी फल मिठास ही देते हैं

तो स्मृतियों को महकाने की खातिर ही सही, चलिए जिंदगी को तूफान कहने के बजाए जिंदगी में उठने वाले तूफानों को कुछ भले से नाम दे देते हैं। ठीक चक्रवाती तूफानों की तरह। क्यों हम इन्हें दुख, कष्ट, परेशानी, विपदा, आपदा, महामारी, महाविनाश, संकट, तनाव, अवसाद जैसे भारी-भरकम शब्दों से पुकारते रहें? क्यों इन्हीं नामों से इन्हें याद कर मातम मनाते रहें? कोविड-19 को क्यों न हम ‘भोर’ जैसे किसी नाम से याद रखें , जो हमें इस बदली हुई दुनिया में नई सुबह, नए जागरण का एहसास कराए। किसी अपने को खोया है, तो आइए पुण्य स्मरण करें उनका और उनकी कोई अच्छी आदत अपनाएं, उनके आराध्य को उनके नाम का स्थान दें। आत्मा-परमात्मा ऐसे भी तो एक हो सकते हैं। अपने जीवन में किसी से धोखा खाया है तो क्यों न हम ‘वादे’ से इसे याद रखें। बेईमानी के दुष्चक्र की किसी कहानी को क्यों न ‘सबक’ नाम दें, ताकि हम किसी के साथ ऐसा करने से पहले इसे याद कर सकें, खुद को दुरुस्त कर सकें। अपशब्दों की बरसात हुई हो कभी लगातार, तो क्यों न उसे ‘चंदन-काल’ कहें। सांपों के लिपटे रहने पर भी चंदन अपनी खुश्बू बनाए रखता है। बर्बाद करना चाहा है कभी किसी ने तो उन दिनों को कहें ‘फल-पखवाड़ा’। पत्थर मिलने पर भी फल मिठास ही देते हैं। यहां आग्रह संत हो जाने का कतई नहीं है। जिंदगी है तो खट्‌टा-मीठा लगा ही हुआ है और तदनुरुप ही  हम जैसे साधारण मनुष्यों की प्रतिक्रिया होती है। मगर जो बीत गया, उसकी स्मृतियों की खटास का बोझ ढोना कोई समझदारी तो नहीं। अगर नाम या सोच की दिशा उस बोझ को कुछ हलका करने में सहायक है, तो इसमें बुरा क्या है। आप क्या सोचते हैं? (लेखक प्रजातंत्र समाचार पत्र के संपादक हैं)

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