इन दिनों देश में तिरंगा अभियान चल रहा है, घर-घर तिरंगा, हर घर तिरंगा। सबकुछ पचहत्तर-पचहत्तर। यह उत्सव मनाने की भारतीय अदा है। कई महकमे अपना मूल काम छोड़कर तिरंगा रैली निकाल रहे हैं। रेप की रिपोर्ट बाद में लिखेंगे, अभी दरोगा-मुंशी जी के साथ तिरंगा लहराने निकले हैं। परिवहन विभाग वालों ने भी अपने एक दिन के अतिरिक्त टर्नओवर को तिलांजलि देकर तिरंगा यात्रा निकालने की ठानी है।
राजनीतिक दलों ने तिरंगा बेचने की दुकानें खोलीं
अपने सूबे में कई नगर निकायों के नवनिर्वाचित पार्षद दूर शहर के रिसॉर्ट में तिरंगाबाजी कर रहे हैं। जनपद, पंचायत के सदस्य और सरपंच मैडमों के पति तिरंगा के नीचे अपनी पत्नियों की जगह स्वयं देश और जनसेवा की शपथ ले रहे हैं। राजनीतिक दलों ने भी तिरंगा बेचने की दुकानें सजा रखी हैं। इससे अर्जित होने वाली आय एक नंबर की होगी।
कैसा भी हो बस तिरंगा हो, ऐसा ना हो घोटाला भी हो
तय तो यह था कि तिरंगा विशेष प्रकार के खादी के सूत से बुने कपड़े के बनेंगे। तिरंगे के सम्मान के लिए कठिन ध्वजसंहिता भी बनी है। अब ना तो हथकरघा (हैंडलूम) बचे और ना ही खादी। तो जहां से मिले, जैसे भी मिले तिरंगा होना चाहिए। भले ही वह अंबानी की सिंथेटिक मिलों के कपड़े का हो। हर आयोजन अपने पीछे एक घोटाला लेकर चलता है। निकट भविष्य में देखेंगे कि तिरंगा घोटाला हो गया। जब जवानों के ताबूत का घोटाला हो सकता है तो तिरंगे का क्यों नहीं? हमारे देश में यह अच्छा चलन है। आवरण दिखे, भले ही उसके भीतर का आचरण गायब रहे।
कबीर तो बहुत पहले ही ऐसे कर्मकांडों पर लिख गए-
मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा।
कायदे से मन को तिरंगे से रंगना चाहिए, तन को नहीं। इसके प्रति सम्मान और श्रद्धा भीतर से आनी चाहिए।
MP-MLA पुश्तें साध लेते हैं और तिरंगा देखता ही रह जाता
इलेक्शन वॉच और एडीआर की रिपोर्ट के मुताबिक संसद और विधानसभाओं में आधे-आधे आपराधिक प्रवृति के निर्वाचित प्रतिनिधि हैं। एक बार जो एमपी-एमएलए हो जाता है, वह अपने तीन पुश्तों का जीवन साध लेता है। मंत्री हो गया तो कहना ही क्या, सात पुश्तों की चिंता से मुक्त। ये सभी लोग तिरंगे के दाएं खड़े होकर संविधान और देश सेवा की शपथ लेते हैं। तिरंगा बेचारा फहरता हुआ देखता ही रह जाता है। कुछ कर नहीं पाता। तिरंगे की कहानी और मर्म से किसको लेना देना। जिनको लेना देना है वे कभी मुखपृष्ठ पर नहीं आते। तिरंगे की आन-बान-शान के लिए कितने न शहीद हुए होंगे। आज उनके घरों में उजाला है या अँधेरा, किसको देखने की फुर्सत पड़ी है।
पद्मधर का राष्ट्रप्रेम, जीवन छोड़ने को तैयार पर तिरंगा नहीं
सतना (कृपालपुर) पद्मधर सिंह 13 अगस्त 1942 को इलाहाबाद विश्वविद्यालय के गेट पर शहीद हो गए। उनके हाथों में तिरंगा था और जुबां पर वंदेमातरम। अंग्रेजों की पुलिस ने तिरंगा छोड़ने को कहा लेकिन पद्मधर सिंह सीना तानकर दुनिया ही छोड़ने को तत्पर हो गए पर तिरंगा को झुकने नहीं दिया। पुलिस ने सीने पर थ्री-नॉट-थ्री की गोली उतार दी। पद्मधर सिंह धरती पर गिरे लेकिन तिरंगा को गिरने नहीं दिया।
ये दिल मांगे मोर- विक्रम बत्रा
करगिल के टाइगर हिल में तिरंगा फहराते हुए जवानों की तस्वीर सामने आती है, तो उनके प्रति गर्व से मस्तक ऊंचा हो जाता है। भावनाओं में देशप्रेम का जज्बा तरंगित होने लगता है। टाइगर हिल पर तिरंगे की पताका फहराने वाला 26 साल का जवान कैप्टन विक्रम बत्रा था.. ये दिल मागे मोर कहते हुए प्राण त्याग दिए.. अपनी मातृभूमि की एक इंच जमीन पर भी दुश्मन को टिकने नहीं दिया। भारत छोड़ो आंदोलन के अमर शहीद पद्मधर सिंह और कैप्टन विक्रम बत्रा जैसे बलिदानी एक नहीं असंख्य है। तिरंगे की रक्तिम आभा उन्हीं के पराक्रम से सुर्खरू है। तिरंगे को लेकर जिसके ह्रदय में पद्मधर सिंह और कैप्टन विक्रम बत्रा सी भावना नहीं है उसे तिरंगा लहराने का क्या छूने तक का अधिकार नहीं है।
अपने दिल पर हाथ रखकर पूछें कि उनमें क्या ऐसी भावना है..?
तिरंगा की रैलियों को प्रायोजित करने वाले अपने दिल पर हाथ रखकर पूछें कि उनमें क्या ऐसी भावना है..? जिस दिन हर देशवासी के ह्रदय में ऐसी भावना आ जाएगी उसी दिन से यह देश वैभव और शौर्य के स्वर्णिम शिखर का अग्रसर होना शुरू हो जाएगा। हमारे देश की हर लोकतांत्रिक संस्था के कंगूरे में यह तिरंगा फहरता है। उसके नीचे हमारे नीति नियंता क्या करते हैं, बताने की जरूरत नहीं। लोकतंत्र की पवित्र संस्थाएं घोड़ामंडी और मच्छी बाजार में बदल गईं। यहां सांसद-विधायक सभी खरीदे-बेचे जाते हैं। कॉरपोरेट और कैपटिलिस्ट के लिए उनका जमीर बिकने के लिए शोकेस में सजा दिखता है। अपने सूबे में पंचायत और स्थानीय निकाय के चुनाव हुए। चुने गए सदस्यों को कैसे बाड़ाबंद करके रिसॉर्ट और फाइवस्टार में रुकवाया गया। यह ग्रासरूट लेवल के लोकतंत्र का नया कल्ट है। किसने इनपर इतनी रकम खर्च की होगी..? उस रकम की भरपाई कैसे और कहां से होगी..? बताने की जरूरत नहीं।
मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा
आम आदमी महंगाई-बेरोजगारी और ऊपर से टैक्स के बोझ से दबा है। हमारे बच्चे इंदौर की सड़कों में पिछले चार साल से चप्पल चटका रहे हैं। पीएससी की परीक्षाएं क्लियर नहीं हो रहीं। तरुण-युवा-छात्र अवसाद (डिप्रेशन) में हैं। जनप्रतिनिधियों की घोड़ामंडी सजाने वालों को इतनी फुर्सत नहीं कि इनकी दशा को समझें। सबको चांद चाहिए अल्बेयर कामू के अमर खलपात्र कालीगुला की तरह। पंचायत से लेकर संसद तक प्रायः हर किसी की आत्मा में एक कालीगुला बैठा है। बात संविधान की करता है, वंदेमातरम बोलता है, तिरंगा लहराता है लेकिन यह उसका आवरण मात्र है, आचरण जो है सामने है। इसी ढोंगतंत्र पर कबीर प्रहार करते हैं-
मन न रंगाए, रंगाए जोगी कपड़ा। कहीं से ढूंढ कर पूरा पद पढ़िएगा जरूर । बेबाकी के साथ खरी-खरी कहने वाला ऐसा फकीर आज के दौर में दुर्लभ है।
इंडिया दिखता है, भारत नहीं
एक मीडिया है वह भी सिर्फ रायता घोलता है, और चों-चों करता है। इसके-उसके तोते की भूमिका में। उसे इंडिया दिखता है, भारत नहीं। तिरंगा-संविधान-लोकतंत्र सभी उसके लिए इवेंट है। तिलक-पराडकर-विद्यार्थी-माखनलाल सभी ने मीडिया का तिरंगा ध्वज फहराया। उन्हें तिरंगे का मोल मालूम था। इन्हें तिरंगा इवेंट्स की टीआरपी से मतलब है।
तब बच्चों को सूत कातना अनिवार्य था
अपने यहां देशप्रेम के ऐसे 'इवेंट' जब तब होते रहते हैं। मेरी पीढ़ी के लोगों ने 1969 में गांधी-शताब्दी का भी जश्न देखा होगा। मैं तब तीसरी कक्षा में था। स्कूल के बच्चों को एक घंटे सूत कातना अनिवार्य कर दिया गया था। ऊंचे दर्जे के छात्र चरखा चलाते थे। गांव के बनियों का धंधा चल निकला। वे चरखा और तकली बेचने लगे। रुई की पोनी भी उसके साथ बेचते थे। हम बच्चों के लिए तकली एक खेल सा था। सूत कातते और रोज क्लास टीचर के पास जमा कर देते। कितना सूत इकट्ठा हुआ होगा सालभर में हिसाब लगा सकते हैं। उस सूत से कपड़े तो नहीं ही बने होंगें, क्योंकि सन् 70 तक आते-आते गांवों का हथकरघा (हैंडलूम) उद्योग मर चुका था। बड़ी मिलों से पापलीन, लट्ठा और लंकलाट आने लगे थे। बुनकर, रंगरेज, छीपी सबकी जीविका छिन चुकी थी।
गांधीगिरी के कर्मकांड
सरकार को बुनकरों, रंगरेंजों और छीपियों को कार्यकुशल बनाना चाहिए था, लेकिन गांधीगिरी के कर्मकांड के चलते बच्चों को तकली थमा दी। जब आठवीं में पहुंचा तो स्कूल के एक कबाड़ भरे कमरे में हम बच्चों के काते हुए सूत का जखीरा देखा जो सड़ चुके थे, जाले लग चुके थे उनमें। तब तक गांधीजी कुछ-कुछ समझ में आ चुके थे। यह सब देखकर कभी गांधी जी के बारे में सोचता तो कभी अपने हेडमास्टर साहब के बारे में, क्योंकि तब तक वो सूती कपड़ों से तरक्की करके टेरीकॉट और टेरीलीन के पैंट-बुशर्ट और कोट तक पहुंच चुके थे। अपने देश में हर कर्म ऐसे ही शुरू होते हैं जो आगे चलकर कांड में बदल जाते हैं। मैं यकीन के साथ कह रहा हूं कि तिरंगा फहराने का कर्म भी कुछ ऐसा ही है, जो कल कांड में बदल जाएगा।
राष्ट्रप्रेमी वही जो अपना काम ईमानदारी से करे
हमें देशभक्ति के मायने अब तक अच्छे से नहीं समझाएं गए । वास्तव में राष्ट्रप्रेम तो वह है कि जिसका जो काम है, उसे निष्ठा व ईमानदारी से करे। अब पुलिस वाले बिना घूस लिए रिपोर्ट लिख लें, निर्दोष को न फंसाएं और अपराधी को छोड़ें नहीं, चाहे वह प्रधानमंत्री का बेटा हो, समाज को अपराध मुक्त रखें, इससे बड़ा राष्ट्रप्रेम क्या होगा। ऐसे लोगों को तिरंगा रैली निकालकर देशप्रेम प्रदर्शित करने की जरूरत नहीं।
स्कूल समय पर लगें, अध्यापक मनोयोग से पढ़ाएं, छात्र संस्कारिक बने, खूब पढ़ें, सदाचार और समाजसेवा समझें, तो फिर इनके लिए तिरंगा रैली क्या मायने रखेगी। आज जो अधिसंख्य सरकारी अध्यापक हैं, वे पढ़ाने का मूल काम छोड़कर सब करना चाहते हैं। डेपुटेशन में किसी कमाई वाले विभाग के लिए मंत्रियों के घर अर्जी लिए खड़े रहते हैं। राष्ट्रप्रेम से ओतप्रोत अच्छी कविताएं गा लेते हैं। क्या इन्हें आप देशप्रेमी कहेंगे? नाकों पर वसूली करके परिवहन तंत्र की रीढ़ तोड़ने वाले ऊंचे डंडों में तिरंगे लगाकर भांगड़ा करें, तो क्या वे राष्ट्रभक्त की श्रेणी में शुमार हो जाएंगे.. नहीं.. कभी नहीं।
कर्म को कांड बनने से रोकें!
कर्म को कांड बनने से रोकिए! जिसका जो काम है.. चाहे वह निर्वाचित जनप्रतिनिधियों का हो, सरकारी मुलाजिमों का हो, व्यवसाइयों का, किसानों का हो, पुलिस, डाक्टर और वकील का हो यदि ये सब पूर्ण ईमानदारी और निष्ठा के साथ अपने दायित्व का निर्वहन करते हैं। यही असली राष्ट्रप्रेम है। देशभक्ति है.. इसी भावना को पुनर्जागृत और मजबूत करने की जरूरत है..। जरूरी तो यह है कि प्रतिदिन हम तिरंगे के मर्म को समझें, उसकी आन-बान-शान में मर मिटने वाले लोगों का स्मरण करें। उनके पराक्रम के गौरवगान को नई पीढ़ी को सुनाएं.. तब भला अलग से किसी अभियान की जरूरत ही क्यों पड़ेगी।