क्या युवा-छात्रशक्ति के गुस्से का सोख्ता बन गया है ये आभासी मीडिया! 

author-image
The Sootr CG
एडिट
New Update
क्या युवा-छात्रशक्ति के गुस्से का सोख्ता बन गया है ये आभासी मीडिया! 

छात्र जीवन में हम लोग राजनीति के बारे में खूब चर्चा करते थे। यह राजनीति कॉलेज और विश्वविद्यालय के परिसर के बाहर की भी होती थी। मंहगाई, बेरोजगारी समेत देश के वे तमाम मुद्दे जो उस समय उबाल पर होते थे। हमें नारे बहुत आकर्षित करते थे। जब स्कूल में थे तब जयप्रकाश नारायण का आंदोलन पूरे सबाब पर था। उन दिनों में बालमंडली बनाकर जुलूस निकालते और खूब नारे लगाते थे। लोहिया, नरेन्द्र देव और जयप्रकाश का न सिर्फ नाम सुना था बल्कि उनके बारे में इतना जानते थे कि दस मिनट बोल सकें। ये संस्कार स्कूल से मिले थे क्योंकि हर महापुरुषों की जयंती व पुण्यतिथियों में भाषण प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती थीं। स्वतंत्रता आंदोलन और समाज सुधार आंदोलनों पर भी परिचर्चाएं होती थीं।



सड़कों में जुलूस निकालकर गाते थे कविताएं 



वो सत्तर का दशक था,हम लोग सड़कों में जुलूस निकालकर कर तरन्नुम में एक साथ कविताएं गाते थे। तुम्हारी धमनियों में खून है फिर देखते हो क्या, उठो जल्दी करो अंगार मुट्ठी में उठाने हैं।  नारे लगाते थे। अंग्रेजी में काम न होगा फिर से देश गुलाम न होगा,रोजी रोटी दे न सके वो सरकार निकम्मी है,जो सरकार निकम्मी है वो सरकार बदलनी है। खादी ने मखमल से ऐसी साठगांठ कर डाली है,टाटा,बिडला डालमिया की बरहों मास दिवाली है। अब तक जिसका खून न खौला, खून नहीं वो पानी है। 



नारा लगाने वालों को किया जल में बंद



जब इमरजेंसी लगी तो पता लगा कि ऐसा नारा लगाने वाले सभी लोगों को जेल में बंद कर दिया गया। हम बच्चें भी सहम गए। एक अजीब तरीके का सन्नाटा था। गुन्डों और नेताओं को एक भाव तौला जाता था। दोनों के साथ पुलिस एक जैसा व्यवहार करती थी। हायर सेकंडरी में पहुंचे तब इमरजेंसी लगी थी। स्कूलों में संजय गांधी के सूत्र बताए जाते थे। एक ही जादू दूरदृष्टि पक्का इरादा, नसबंदी,वृक्षारोपण स्कूल की दीवारों पर ऐसे नारे लिखे थे।



स्कूल में आयोजित किया था भाषण कम्पटीशन



मुझे याद है कि स्कूल में एक भाषण प्रतियोगिता आयोजित की गई थी। विषय था आपातकाल एक अनुशासन पर्व है। एक साल के भीतर इतना गड्डमड्ड हो गया कि तय कर पाना मुश्किल था कि नारे लगाने वाले गलत थे कि डंडा मारकर जेल भेजने वाले। उन्हीं दिनों प्रदेश के मुख्यमंत्री शहर आये तो हम बच्चों की स्कूल बंद करके उन्हें अगवानी के लिए मवेशियों की तरह हांककर ले जाया गया था। हवाई अड्डे में भूखे प्यासे हम बच्चों को कहा गया था कि जब नेता जी आएं तो उनपर फूल बरसाना। भूख और प्यास ने जिंदगी में पहली बार नेता नाम से इतनी नफरत पैदा की। 



स्कूल-कॉलेज के छात्रों ने पहली बार खुलकर चुनाव में भागीदारी निभाई



अखबार, रेडियो सब सरकार की पुण्याई का ही बखान करते थे फिर भी तरुण मन में लगता था कि यह सब झूठ है,बकवास है,अत्याचार हो रहा है,लोग सताए जा रहे हैं। मैं चाहता हूं आज का स्कूली छात्र भी राजनीति की कम से कम इतनी समझ रखें,जरूरत पडे़ तो बोले व हस्तक्षेप करे। सतहत्तर में जब इमरजेंसी हटी और फिर जो दौर शुरू हुआ उसकी असली ताकत, तरुण, युवा और छात्र ही रहे। स्कूल और कॉलेज के छात्रों ने पहली बार खुलकर चुनाव में भागीदारी निभाई। भले ही मताधिकार न रहा हो पर पर्चा, बुलेटिन बाँटने और दीवारों पर नारे लिखने का काम छात्रों व युवाओं ने किया और पूरा माहौल बनाया।



युवाओं को साजिशन राजनीति से दूर रखा जा रहा



ये वृत्तांत मैंने इसलिए बताया क्योंकि आज की चिंतनीय स्थिति यह है कि छात्रों और युवाओं को साजिशन राजनीति और सामाजिक सरोकारों से अलग किया जा रहा है। सोशल मीडिया के जरिए एक ऐसी आभासी दुनिया रची जा रही है कि जिस उम्र में कभी तख्ता पलट तक की ताकत हुआ करती थी, राजनीति में वे युवातुर्क कहलाते थे, उस उम्र में वे या तो सोशल मीडिया के ट्रोलर हैं या शिगूफे और झूठ फैलाने के औजार। सोशल मीडिया एक ऐसा सोख्ता बन गया है, जो युवाओं का गुस्सा, प्रतिरोध, विद्रोह, आंदोलन, विचार सबकुछ सोखकर कर उन्हें दिमागी तौरपर सफाचट कर रहा है। छात्रों व युवाओं के सम्मुख एक वैकल्पिक संस्कृति रच दी गई है कि वे वहीं मगन है।



भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हुए थे विन्ध्य क्षेत्र के युवा 



इन सब बातों को इतनी शिद्द्त से महसूस कर पाता हूं वो इसलिए कि जिस विन्ध्यक्षेत्र से मेरा नाता है। वहां के युवातुर्को ने अपने जमाने में सत्ता के खिलाफ विद्रोह और आंदोलनों का इतिहास रचा है। यहां भारत छोड़ो आंदोलन की कमान बुजुर्गों ने नहीं स्कूली, कॉलेजी छात्रों ने संभाली थी। उन्नीस साल के छात्र पद्मधर सिंह शहीद हुए थे। स्कूली छात्रों ने गिरफ्तारी दी। यह जज्बा सन् 52 के प्रथम आम चुनाव में भी कायम रहा। समाजवादी दल के प्रायः सभी विधायक ऐसे चुने गए जिनकी उमर 24 से 27 वर्ष के बीच की थी। तीन चार के खिलाफ तो कम उम्र में विधायक चुने जाने का मुकदमा भी चला। इसी उम्र में ये युवातुर्क समाजवादी दल की राष्ट्रीयकार्यकारिणी में भी रहे। अब इस आयुवर्ग का युवा क्या कर रहा है एक सरसरी नजर तो डालिए।



आज के युवा क्रांतिपुंज के वंशज हैं? 



नब्बे के बाद तो दूसरा युग ही शुरू हो गया, जो अब अपने उच्चतम् विकृत रूप में है। युवाओं की बात तो सभी राजनीतिक दल करते हैं पर उसे झांसे में रखने के लिए। आज फिर मंहगाई, बेरोजगारी का सवाल भीषण स्वरूप में सामने खड़ा है। उस युवा से क्या उम्मीद करना जो रजाई ओढे रात-रात भर सोशल मीडिया वार में भिडा है। एक दूसरे  को गाली देने, मजाक बनाने ट्रोल करने में। जब याद करता हूं भगत सिंह को और देखता हूं इस पीढ़ी के नौजवानों को आज, तो लगता है कि क्या ये उसी क्रांतिपुंज के वंशज हैं, जिसने चौबीस साल की उम्र में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला के रख दी। दूसरी ओर ये हैं सरकारों को अपने बाजिव हक के लिए भी नहीं हिला पा रहे कि पद खाली हैं नौकरी दो, कक्षाएं रिक्त हैं शिक्षक दो, कैसे जिएं मंहगाई पर लगाम दो। 



आभासी दुनिया से बाहर निकलो प्यारो..वक्त तुम्हें आवाज दे रहा है..युग की आहट सुनो।

 


Politics in student life virtual media became a blot of student power छात्र जीवन में राजनीति छात्रशक्ति के गुस्से का सोख्ता बन गया आभासी मीडिया