एक सेनापति ऐसा भी जिसने तलवार की जगह कलम चुनी

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The Sootr CG
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एक  सेनापति  ऐसा  भी  जिसने तलवार  की  जगह  कलम  चुनी

30 मई 1826 के दिन कलकत्ता से पं.जुगुल किशोर शुक्ल के संपादन में निकले हिन्दी के पहले समाचार पत्र उदंत मार्तण्ड ने हिन्दी पत्रकारिता की राह को देश भर में आलोकित किया।





सामाजिक क्रांति की आकांक्षा पाले मनीषियों ने अखबार को जन चेतना जागृति का श्रेष्ठ माध्यम माना। प्रकारांतर में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों ने इसे अंग्रेजों के खिलाफ एक अहिंसक अस्त्र की तरह इस्तेमाल किया।





अखबार की इस ताकत को मशहूर शायर अकबर इलाहाबादी ने अल्फाजों में कुछ ऐसे व्यक्त किया कि वे लाईनें आज भी सबसे ज्यादा उद्धृत की जाती है..



खींचो न तरकशों को न तलवार निकालो



गर तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।





हिन्दी पत्रकारिता के नवजागरण की अनुगूंज रीवा तक पहुंची तब यहाँ महाराज व्येंकटरमण का शासनकाल था। विश्व की पत्रकारिता का यह दुर्लभ उदाहरण होगा जब एक सेनापति ने अखबार निकालने की ठानी। वो सेनापति थे लाल बल्देव सिंह और अखबार था भारतभ्राता जिसे धर्मवीर भारती ने भी हिन्दी पत्रकारिता का पहला राजनीतिक समाचारपत्र माना।





जिन परस्थितियों में बल्देव सिंह ने भारत भ्राता जैसा यशस्वी समाचारपत्र निकाला उसको दृष्टिगत रखते हुए मूर्धन्य संपादक नामक पुस्तक के लेखक संतोष शुक्ल लिखते हैं। उन्हें पत्रकारिता के सारे पुरोधाओं माधवराव सप्रे हों,गणेश शंकर विद्यार्थी,बाबूराव विष्णुराव पराड़कर, माखनलाल चतुर्वेदी इन सभी पत्रकारीय विभूतियों का पुरखा कहा जाता है। मध्यप्रदेश के प्रथम राजनीतिक समाचार पत्र और तत्कालीन राज्य रीवा से प्रथम समाचार पत्र भारत भ्राता का प्रकाशन करने वाले स्वर्गीय श्री लाल बलदेव सिंह ने सदैव सामाजिक सरोकारों की पत्रकारिता की।





लाल बल्देव सिंह 1887 में कलकत्ता से रीवा प्रिटिंग प्रेस ले आए। 1902 में रीवा सरकार ने इस प्रेस को खरीदकर इसका नाम दरबार प्रेस कर दिया था। इसके साथ ही भारत-भ्राता का प्रकाशन भी बंद हो गया। रीवा के इस प्रथम पत्रकार का जन्म 1867 रीवा के देवराज नगर में हुआ था। उस समय के भारत-भ्राता के कलेवर को देखकर महसूस होता है कि वह तब भी अपने परिवेश से कहीं बहुत आगे था। 1880-90 में इस क्षेत्र की मानसिकता से कहीं अधिक परिपक्व कलेवर भारत-भ्राता में रहा करता था।





 इसकी नीति स्वतंत्र थी और वह साम्राज्यशाही का विरोधी था। सामंतवादी विचारधारा के वातावरण के कारण रियासतों की रीति-नीति का विरोध जरूर नहीं करता था मगर भारत भ्राता, क्षेत्र के आर्थिक विकास और शिक्षा के प्रचार-प्रसार का पोषक था। तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में जहां साहित्यक गतिविधियों का बोलबाला हुआ करता था वहीं भारत-भ्राता में राजनीति को प्रमुखता दी जाती थी।





लाल बलदेव सिंह हिंदी के विकास और समाचार पत्रों के प्रकाशन के लिए हमेशा चिंतित रहते थे। वे सोचते थे कि हिंदी में जितने अधिक समाचार पत्र प्रकाशित होंगे हिंदी भाषा और उसके पाठक उतने ही जल्दी जागरूक होंगे। इसीलिये उन्होंने देश के सबसे पिछड़े क्षेत्र से समाचार पत्र का प्रकाशन शुरू किया। उस समय की कांग्रेस का लक्ष्य तय था कि देश की जनता को स्वशासन का अधिकार दिलाना है । भारत भ्राता ने भी इसी आदर्श को स्वीकार कर पत्रकारिता के माध्यम से जनजागरण की कोशिश की।





देशी रियासतों और रजवाड़ों में स्थानीय प्रतिभाओं की उपेक्षा और बाहरी लोगों को लादने की तत्कालीन प्रवृत्ति पर उनकी टिप्पणी आज भी सार्थक है। एक संपादकीय में उन्होंने लिखा ....जिसको पांच रूपया मासिक भी न देना चाहिए,क्यों राजस्थान से उसे राजे-महाराजे अथवा राज्य के संरक्षक पचास रूपये दिला देते हैं। क्या देशी राजस्थान गवर्नमेंट का मुंह देखकर पांच की जगह पचास रूपये फेंकते हैं। क्या वे गवर्नमेंट के वाक्य को वेदों का वाक्य मानते हैं कि  गवर्नमेंट यदि किसी पुरूष को भी योग्य लिखकर भेज देती है तो उसे सच्चा ही मानकर स्वीकार कर लेते हैं। गवर्नमेंट से प्रार्थना करने के अतिरिक्त स्वयं भी वे बहुत से परदेशियों को बुलाते हैं और राज्य सेवा देते हैं। देशी राजे-महाराजाओं को अपनी अधीनस्थ प्रजा की दीन दशा पर अवश्य ध्यान देना चाहिए और उनका स्वत्व देखना चाहिए कि वे राज्य सेवा के किस पद के योग्य योग्यता रखते हैं। योग्यतानुसार उन्हें कार्य सौंपना,उचित वेतन देना और भली-भंति राज्य कार्य लेना नि:संदेह आवश्यक है। राज्य की प्रजा में शिक्षा अनिवार्य कर दी जाए और उन्हें राजनीतिक तथा सैनिक आदि प्रत्येक विषय की शिक्षा दी जाए। यह कथन साबित करता है कि वे साहसी पत्रकार तो थे ही अपने क्षेत्र की जनता की उन्नति और खुशहाली के लिये भी उद्विग्न थे।





लाल बलदेव सिंह सच्चे प्रजातांत्रिक थे। वे चाहते थे कि किसी भी विषय या मुद्दे पर खुलकर चर्चा हो और लोग अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पूरा लाभ उठाएं। इसके बाद जो भी निर्णय बहुमत से लिया जाये उसे सभी मानें। वे हिंदी के प्रबल पक्षधर थे उन्होंने उस दौर में देवनागिरी लिपी का प्रयोग रीवा राज्य के कार्यालयों में 1895 में कराया और हिंदी को राजभाषा का सम्मान भी दिलाया।





लाल बलदेव सिंह आज से 200 साल पहले की पत्रकारिता की अलिखित पत्रकारिता की आचार संहिता के प्रति भी सजग थे। उन्होंने हिंदी समाचार पत्रों को सुधारने के जो उपाय बताये उनमें पत्र का मूल्य किस प्रकार निर्धारित हो,विज्ञापन द्वारा ग्राहकों को न ठगना,अश्लील,कटु वाक्यों में आलोचना न करना,अशांति फैलाने से दूर रहना जैसे सिद्धांत प्रमुख थे। भारत भ्राता के ग्राहक समय पर भुगतान नहीं करते थे समाचार पत्र काफी कठिनाईयों से गुजरकर प्रकाशित होता था। शुल्क पटाने के लिये बार-बार नोटिस प्रकाशित करना पड़ता था। इन्हीं सब परेशानियों को समझते हुये उन्होंने इनकी विवेचना की। उन्होंने लिखा जब तक जब तक लोगों में स्वदेशाभिमान और स्वभाषानुराग नहीं होगा तब तक हिंदी के पत्र पल्लवित नहीं होंगे।





मात्र 36 वर्ष की उम्र में सन 1903 में उनकी मृत्यु हो गई। उन्होंने लगभग 15 वर्षों तक हिंदी के राजनीतिक एवं परिपूर्ण पत्र का संपादन कर हिंदी पत्रकारिता को जो मजबूती प्रदान की। उन्होंने हिंदी के राजनीतिक एवं परिपूर्ण पत्र का संपादन कर हिंदी पत्रकारिता को जो मजबूती प्रदान की उसी नींव पर मध्यप्रदेश की हिंदी पत्रकारिता आज फलफूल रही है। हिंदी पत्रकारिता का यह महान संपादक आज भुला दिया गया होता यदि माधवराव सप्रे संग्रहालय के निदेशक पद्मश्री विजयदत्त श्रीधर के हाथ वो पुस्तिका न लगी होती जिसे विन्ध्य प्रदेश के विधानसभा अध्यक्ष शिवानंद जी ने लिखा था।





सप्रे संग्रहालय ने न सिर्फ लाल बल्देव सिंह पर शोध करवाए अपितु उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने के लिए एक सम्मान की परंपरा भी शुरू की जो प्रतिवर्ष प्रदेश के एक वरिष्ठ संपादक को दिया जाता है। लेकिन एक दुर्भाग्य का विषय यह है कि जिस रीवा को उन्होंने हिंदी पत्रकारिता का सिरमौर बनाया उसी रीवा ने उन्हें विस्मृत कर दिया। जिस इमारत में भारतभ्राता का आलोक फैला था  उसे सरकार ने शासकीय मुद्रणालय में बदल दिया और अब पुनर्घनत्वीकरण योजना के तहत वहां पर व्यावसायिक परिसर बन रहा है।



लाल बल्देव सिंह की अमर कृति और उसकी स्मृति जमींदोज हो जाएगी तब यह यकीन दिलाने के लिए सबूत ढूंढने होंगे कि देश का पहला राजनीतिक समाचारपत्र पत्र भारतभ्राता अपने इसी रीवा से निकला था।



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