आलोक मेहता। कृषि कानूनों की वापसी की घोषणा के बावजूद कांग्रेस सहित कई राजनैतिक पार्टियां न्यूनतम समर्थन मूल्य, मुआवजे और मुफ्त बिजली इत्यादि मांगों को लेकर नया तूफान खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं। किसानों को उनके खेतों की उपज का उचित मूल्य मिलना निश्चित रूप से जरूरी है, लेकिन देश की आवश्यकता के अनुसार अनाज, तिलहन के उत्पादन की प्राथमिकताएं तय होने पर ही सही दाम मिल सकते हैं। इसी तरह भारत के फल, सब्जी का निर्यात करने के लिए सड़क, रेल, हवाई सुविधाओं और आर्थिक संसाधन सरकार और प्राइवेट क्षेत्र को बड़े इंतजाम करने होंगे। मांगों और अपेक्षाओं की फेहरिस्त लगातार बढ़ सकती है। लेकिन मांग करने वाले संगठनों और उनके नेताओं को क्या यह अहसास नहीं है कि पिछले दो दशक में उन्हीं किसान परिवारों के लाखों युवा देश के विभिन्न शहरों में काम करने लगे हैं। मध्यम और निम्न आय वर्ग की आबादी बढ़ती गई है। उनके आर्थिक हितों की रक्षा क्या जरूरी नहीं है?
हर चीज का न्यूनतम मूल्य तय होना संभव नहीं
किसानों के लाभ की पैरवी करने वाले कुछ नेता तो गांवों को आधुनिक बनाने के इरादों पर भी आपत्ति करते हैं। उनका तर्क है कि गांव या आदिवासी इलाकों में विकास योजनाओं से उनकी मूल संस्कृति और पर्यावरण पर असर होगा। इसी तरह कुछ संगठन अनाज की तरह फल, दूध और अंडे आदि के न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने की मांग करने लगे हैं। क्या इसे व्यवहारिक कहा जा सकता है? कम्युनिस्ट देशों में भी इतना नियंत्रण संभव नहीं है। हर शहर कस्बे में फल, दूध, अण्डों की उपलब्धता और खपत अलग होती है। सीमित परिवहन साधन की कमी या अपने क्षेत्र के लिए उपयोगी उत्पादन होने और आबादी की खरीदी क्षमता पर भी मूल्य कम या अधिक हो सकते हैं। आज़ादी के 75 वर्ष होने तक कृषि प्रधान देश में मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग की आबादी लगभग 60 करोड़ हो गई है। इसका श्रेय कोई एक पार्टी को नहीं सम्पूर्ण लोकतंत्र को भी है। ग्रामीण सरकारी स्कूलों में प्रारम्भिक शिक्षा के बाद अच्छी उच्च शिक्षा लेकर लाखों युवा विभिन्न क्षेत्रों में काम कर रहे हैं। वे दिल्ली, मुंबई, बेंगलूर, कोलकाता या अन्य शहरों में नौकरी या अपना व्यवसाय करके आमदनी का कुछ हिस्सा अब भी अपने गांव के परिवारों को भेज रहे हैं। देश के 70 प्रतिशत आयकर में लगभग 30 प्रतिशत हिस्सा इसी मध्यम वर्ग का है।
देश में सोशल सिक्योरिटी सिस्टम ठीक नहीं
किसानों की मेहनत से हुए उत्पादन की खपत आखिर इसी मध्यम वर्ग को पहुँचती है। दूसरा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि कोई सत्तारूढ़ दल और सरकार अपने किसी 'कल्प वृक्ष' से अरबों रुपया सरकारी खजाने में रखती है। आमदनी तो देश के करदाताओं से ही होती है। फिर विकास कार्यों के लिए प्राइवेट क्षेत्रों और अंतर राष्ट्रीय संस्थाओं से धन का इंतजाम किया जाता है। विडम्बना तो यह है कि कुछ राजनैतिक दल या अन्य संगठन राजमार्गों, पूल, फ्लाई ओवर, बिजली घर, उद्योग और हवाई अड्डे बनाने के लिए जमीन लिए जाने के विरुद्ध भी भोले भाले ग्रामीण लोगों को भड़काकर आंदोलन खड़ा करते हैं। इससे किसी भी विकास कार्य में देरी से लागत कई हजार करोड़ रुपए बढ़ जाती है। जहां तक शहरी मध्यम वर्ग की बात है, हर राजनीतिक पार्टी उन्हें राहत देने के चुनावी वायदे करती है। राज्यों में तो अलग— अलग दलों की सरकारें भी हैं, लेकिन दुनिया के अधिकांश लोकतान्त्रिक देशों की तरह आज भी भारत में सामाजिक सुरक्षा- सोशल सेक्युरिटी का समुचित प्रबंध नहीं है। जो लोग सरकारी सेवा में नहीं हैं, उन्हें साठ वर्ष की उम्र के बाद मूलभूत सुविधाओं के लिए समुचित पेंशन का कोई प्रावधान नहीं है। आत्मनिर्भर भारत के लिए इन दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार कई योजनाओं की घोषणाएं कर रही हैं। अब अगले वित्तीय वर्ष के लिए वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण बजट के लिए विचार— विमर्श कर रही हैं। तब इस समस्या पर क्यों नहीं विचार किया जाता कि स्व रोजगार करके आधी जिंदगी टैक्स चुकाने वाले लोगों की सीमित फिक्स डिपाजिट के ब्याज पर भी टैक्स क्यों लिया जाता है? मध्यम वर्ग की कोई महिला या पुरुष जीवनभर जिस शहर घर और सुविधा से काम करता रहा, उसे थोड़ी कम लेकिन न्यूनतम सुविधा के लिए अपनी कमाई की बचत पर निर्भर रहना होता है। लेकिन उससे भी नियमित कमाई से होने वाला आय कर लिया जाता है। बैंक से ऋण लेने की अनेक योजनाएं हैं, लेकिन उसे चुकाने के लिए किसी तरह के प्रावधान नहीं हैं। मध्यम वर्ग की अविवाहित या विधवा महिलाओं को 60 वर्ष तक होती रही आमदनी का पचास प्रतिशत हिस्सा भी पेंशन के रूप में देने जैसी योजना क्यों नहीं सोची जाती? अमेरिका जैसे देशों में इस वर्ग को आय का लगभग सत्तर प्रतिशत पेंशन रूप में देने का प्रावधान है। भारत में सरकारी स्वास्थय योजनाएं गरीबों के लिए हैं, लेकिन मध्यम वर्ग के लिए प्राइवेट क्षेत्र की स्वास्थ्य बीमा की किश्त अच्छी खासी होती है और उनमें भी अधिकांश केवल अस्पताल में भर्ती होने पर कुछ राशि मिलती है। उन्हें नगर निगमों पालिकाओं के लिए हर साल टैक्स भरना होता है। बिजली और यातायात की सुविधा पर खर्च करना होता है। वे किसी परिजन पर आश्रित नहीं रहना चाहते हैं। इसलिए सरकारों से अपेक्षा रखते हैं।
आम बजट में मध्यम वर्ग की चिंता भी दिखे
यही कारण है कि मोदी सरकार के सारे प्रयासों और दावों के बावजूद शहरी क्षेत्रों में महंगाई पर हाहाकार है। महंगाई का मुद्धा पहली बार नहीं है, लेकिन कोरोना महामारी से प्रभावित आर्थिक हालत में मध्यम वर्ग की बैचेनी सर्वाधिक है। ग्रामीण लोग सीमित साधनों में भी संतुष्ट हो जाते हैं। यह ठीक है कि किसानों या ग्रामीण परिवारों को घर , गैस, शौचालय, बिजली देने से भी सत्तारूढ़ दलों को चुनावी सफलता मिल सकती है। लेकिन उन्हीं ग्रामीण परिवारों से निकले आत्मनिर्भर हुए लोगों की समस्याओं की अनदेखी या केवल राजनीतिक स्वार्थों के लिए उनकी भावनाएं भड़काकर आंदोलन करवाने से भारत के भविष्य को सुनहरा बनाया जा सकता है? प्रतिपक्ष में रहकर केवल विरोध की आग लगाने का यह खतरा भी है कि कल सत्ता में आने पर वही आग अधिक उग्र हो सकती है। बहरहाल आगामी बजट ( 2022 -23 ) में आशा की जानी चाहिए कि किसानों और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए अधिकधिक सुविधाएं और लाभ के साथ शहरी मध्यम वर्ग के हितों की रक्षा के लिए कुछ क्रन्तिकारी योजनाओं का प्रावधान भी होगा।
( लेखक आई टी वी नेटवर्क - इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )