जातीय राजनीति के चक्रव्यूह में मीडिया!

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जातीय राजनीति के चक्रव्यूह में मीडिया!

ये वाकया तब का है, जब जबलपुर के सांसद राकेश सिंह मध्यप्रदेश भारतीय जनता पार्टी के नए अध्यक्ष मनोनीत किए गए थे। नाम घोषित होने के पूर्व जब उनके नाम की चर्चा चल रही थी, इसी बीच मैंने चार लाइन की एक छोटी सी पोस्ट डाल दी कि जबलपुर साइंस कालेज(जिसे आज भी लोग गर्व से राबर्टसन कालेज कहना नहीं भूलते) में सहपाठी तथा छात्र राजनीति में वे बहुत ही सहज,शालीन व अच्छे संगठक रहे हैं। आज  भाजपा के सांसद राकेश सिंह का जन्मदिन भी है..जब वे मध्यप्रदेश भाजपा के अध्यक्ष बने, तब एक तल्ख लेख लिखा था "मीडिया और जातीय राजनीति" पर.. वह आज याद आ गया.. आप भी पढ़िए..."





 राकेश सिंह के बीजेपी प्रदेशाध्यक्ष बनने के बाद पत्रकार मित्रों में मुझसे यह जानने की होड़ सी मच गई कि राकेश सिंह की जाति क्या है? उनके चयन के पीछे की जातीय गणित क्या है... आदि, आदि। उनकी जाति पर आएं उससे पहले...! बात सन् 1980 की है तब वे प्रहलाद पटेल के समकालीन व संगी थे, जब उन्हें 2003-04 में लोकसभा टिकट मिली और सांसद बन गए तो उन दिनों के एक मित्र सुरेन्द्र सिंह जो राकेश के सेक्शन के ही थे (बड़े अधिकारी रहते हुए इसी साल रिटायर हुए हैं) ने चहककर बताया था कि यार अपना घनश्याम तो सांसद बन गया।" तभी पता चला कि अपने कालेज के घनश्याम ही जबलपुर की राजनीति के राकेश(चंद्रमा बन गए) हैं। कालेज रजिस्टर में राकेश सिंह का मूलनाम घनश्याम सिंह ही है। राकेश से मेरी ज्यादा निकटता नहीं थी, क्योंकि मैं डे-स्कालर होने के नाते स्वाभाविक तौर पर सिटी पैनल वाला था। सिटी पैनल के एकछत्र नेता लखन घनघोरिया थे(जो 2008 में जबलपुर सुरक्षित सीट से कांग्रेस के पहली बार विधायक व इस कांग्रेस सरकार में मंत्री बने)। मैं जब एम.एससी प्रीवियस में पढ़ रहा था तो सहपाठियों ने मुझे निर्विरोध सीआर बना दिया।जबलपुर की छात्र राजनीति के जितने मजे थे उतने डर भी। न जाने कब कहां बका-बम संग्राम शुरू हो जाए। बहरहाल यूआर चुनने के लिए सीआर  को पकड़वाया जाता था। लेकिन उसे आप अपहरण नहीं कह सकते, क्योंकि वोटिंग के पहले तक अच्छी खातिरदारी होती थी, मारपिटाई, धमकाना तो कतई नहीं। ज्यादा संशय हुआ तो वोट नहीं ड़ालने देते थे, इससे ज्यादा कुछ नहीं।





प्रहलाद के अंदाज ने बनाया कायल





सो चूंकि मैं एक वोट था, इसलिए दोनों पैनलों की नजर मुझपर थी। रोमांच इतना कि मैं खुद को पकड़वाए जाने को बेताब था। एक दिन बीत गए किसी पैनल वाले ने घास नहीं डाली। दूसरे दिन भूपे(भूपेन्द्र गुप्ता जो स्वयं भी इसी कालेज के छात्रनेता रह चुके थे) की कैंटीन में अपनी समोसा पार्टी चल रही थी तभी हॉस्टल पैनल के दो बंदे आए बोले- चलिए आपको प्रहलाद जी बुला रहे हैं। इस रोमांच के लिए तैयार ही बैठा था। उनके साथ हॉस्टल पहुंचा। एक कमरे में हास्टल पैनल के सभी जोधा आगे की रणनीति बना रहे थे। मुझे प्रहलाद पटेल जानते थे, सो कहा कि- अच्छा शुक्लाजी को पकड़ लाए हो, ये तो वैसे भी मेरे साथ हैं। जबकि वास्तविकता यह थी कि मैं जमकर सिटी पैनल के साथ था। यह प्रटेल की सदाशयता या राजनीति का अंदाज था जिसका मैं पहली बार कायल हुआ। 





सब जाति पूछते हैं, विशेषता कोई नहीं देखता 





अब मूल बात पर आएं जिसके लिए इतनी भूमिका रची। राकेश सिंह के प्रदेश भाजपा अध्यक्ष मनोनीत होने के साथ ही राजधानी के मीडियाजगत के मित्रों के फोन आना शुरू हुए। प्रायः सभी ने एक ही जानकारी चाही- राकेश सिंह किस जाति से हैं। ओबीसी हैं या ठाकुर, आजकल अजा,जजा वाले भी सिंह लिखते हैं, कहीं ये गोंड—बैगा तो नहीं। किसी ने यह नहीं पूछा, कहां तक पढ़े हैं। पढ़ने में कैसे थे। परिवार से धनी हैं या निर्धन, और भी क्या विशेषताएं हैं। सभी उनकी जाति जानना चाहते थे। कुछ तो "फोनो" पर भाजपा संगठन के जातीय संतुलन पर चर्चा करना चाहते थे। कुछ ने आपनी ओर से जानकारी दे दी- देख लिया न भाजपा किस स्तर तक उतर आई कि परशुराम जयंती पर एक हैहयवंशीय का राजतिलक कर दिया। जानकारी देने वाले एक ब्राह्मण पत्रकार ही थे जो इसी बहाने मेरे सोए ब्राह्मणत्व को जगाना चाहते थे।





तब कोई नहीं पूछता था किसी की जाति 





छात्र जीवन में कभी जानने की जरूरत ही नहीं पड़ी कि कौन किस जाति से है। ये तो बहुत बाद में जाना कि प्रहलादजी पिछड़ा वर्ग के लोधी हैं और लखन घनघोरिया अनुसूचित जाति के खटीक। छात्र जीवन में और उसके बाद भी इन दोनों और उस जमाने के न जाने इतने ही कितनों को बड़े आदर भाव से देखते रहे हैं। आज हमारे वे सबके सब युवा तुर्क- आयकन कुनबी, काछी, बामह्न, ठाकुर, दलित, अजा—जजा हो गए। उनकी खासियत उनका मानवियोचित गुण नहीं जाति हो गई। मै वाकई नहीं जानता था कि राकेश सिंह ठाकुर हैं कि पिछड़ा, जिसकी बहस भाई लोग मीडिया में छेड़े हुए हैं। हां, इतना कह सकता हूं कि उनमें कुछ न कुछ तो ऐसा रहा है जिसकी बदौलत छात्र राजनीति के बाद सार्वजनिक राजनीति में जो ऊर्ध्वगति पकड़ी 55-56 साल की उम्र में ही वे प्रदेश में शिखर तक जा पहुंचे। 





मीडिया की मजबूरी और ख्याली नाराजाल 





 मैंने एक मित्र से पूछा कि ऐसी क्या आन पड़ी कि नए प्रदेश अध्यक्ष की जाति जानना जरूरी हो गया। मित्र ने लाजवाब करने वाली बात कही-  एक जाति-पाति, धर्म-संप्रदाय की दुहाई न देकर विनम्रता से चुनावी हार स्वीकार कर लेने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय थे, दूसरे ये सबका साथ— सबका विकास का ख्याली नाराजाल फेंक कर समाज को जातियों, उपजातियों, दलितों, अति दलितों के खांचे में बांटकर चुनाव की राजनीति करने वाले ढो़ंगी लोग! क्या करिएगा हम मीडिया वाले भी इसी बजबजाती सडांध से खबर निकालने के लिए मजबूर हैं।





दो दशकों में तेजी से हुआ सामाजिक पतन





राजनीति का ये सामाजिक पतन पिछले दो दशक से और तेज हुआ है। जिस जबलपुर से बात शुरू की, मैं उसे साझी संस्कृति में जीने वाला दुनिया का सबसे अद्भुत शहर मानता रहा हूं। जिसने अपना विचार, दर्शन अपनी संस्कृति से देश नहीं दुनिया को जगमागाया। आचार्य रजनीश ने सभी धर्मों-पंथों के समानांतर एक अलग पंथ ही गढ़कर सामने रख दिया। ऐसा क्रांतिकारी विचारक और दार्शनिक पिछली कई शताब्दियों में नहीं हुआ। महर्षि महेश योगी.. सारी दुनिया जिनके भावातीत ध्यान से मुग्ध है।द्वारिका प्रसाद मिश्र उन्नाव से आए और काफी बाद मुंदर शर्मा बिहार से, दोनों को सिर माथे पर बिठाया। मिश्र प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और शर्मा सांसद व प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष। 52 से 75 तक सेठ गोविंददास लोकसभा में सदस्य रहे, दशकों बाद लोगों ने जाना ये मारवाड़ी थे। उसी तरह गुजराती परमानंद भाई पटेल को। शरद यादव तो बाबई से पढ़ने आए थे, यहां की जनता ने कांग्रेस के खिलाफ इन्हें चुनकर जेपी आंदोलन को धारदार बनाया। सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, हरिशंकर परसाई, मायाराम सुरजन, भवानी प्रसाद तिवारी समेत न जाने कितने उद्भटजनों की कर्मठता ने जबलपुर को संस्कारधानी बनाया और जाति-पांति, पंथ-क्षेत्र से ऊपर उठकर लोगों ने इन्हें मान-सम्मान दिया।





राजनीति ने संस्कारधानी में भर दिया जाति का विष





इस जबलपुर ने सबको अपनाया, गले लगाया। दुर्गापूजा हो तो लगे कहां बंगाल में आ गए। गणेश चतुर्थी आए तो मानो पुणे-मुंबई उतर आया हो। दशहरा की शान ही निराली। मोहर्रम के ताजिए हिंदुओं के कंधे पर। ओणम-पोंगल आया तो दक्षिण भारत के दर्शन यहीं कर लीजिए। जबलपुर देश का दिल है, यहीं से सभी धमनी—शिराएं निकलकर जाती हैं। उस जबलपुर का अब हाल यह कि कौन किस जाति का है? किसके कुल के कहां कितने वोट हैं। अफसोस कि अपनी संस्कारधानी को भी खुदगर्ज राजनीति ने जातीय विष से बुझाकर रख दिया।





कंप्यूटर युग में ये किसी जिद





राकेट और कंप्यूटर युग में राजनीति का यह रूप भी देखने को मिलेगा, किसने कल्पना की होगी। आज क्या कोई इंदौरवासी यकीन के साथ कह सकता है कि यहां की राजनीति में कभी कोई दूसरा होमी दाजी भी पैदा हो सकता है, एक पारसी जिसकी जाति के मुश्किल से सौ वोट भी नहीं। अपने सतना से कांताबेन पारेख विधायक रहीं, गिनिए यहां कितने गुजराती वोट हैं, मुश्किल से पांच सौ। बेरिस्टर गुलशेर अहमद जिस अमरपाटन से जीतते थे वहां मुश्लिम कितने हैं? ज्यादा से ज्यादा पांच परसेंट। वे सांसद स्पीकर,गवर्नर रहे। क्या अब कभी कोई मुस्लिम सतना से जीत सकेगा? जहां भोपाल से आकर अजीज कुरैशी जैसे अल्पज्ञात कांग्रेसी जीत कर लोकसभा गए। अब तो इन्हें कांग्रेस भी टिकट नहीं देती, भाजपा का तो सवाल ही नहीं उठता। 





राजनीतिक संगठनों का एक मात्र सूत्र 





इससे ज्यादा तकलीफ की बात और क्या कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति तक को जातीय तुला पर तौला जाने लगा है और इस बात से उनको खुद को भी कोई गुरेज नहीं। टिकटार्थियों के बायोडाटा का सबसे अहम् हिस्सा यही होता है कि उसके क्षेत्र में उसकी जाति के वोटों की स्थिति क्या है। मुख्यमंत्री, मंत्रियों के फैसलों में जातीय पक्षधरता झलकने लगी है। कास्ट-क्रीड-रेस-रिलीजन से उपर उठकर संविधान की शपथ लेने वाले लोग पद पर बैठने के साथ ही इसी में बंध जाते हैं। राजनीतिक संगठनों में तो जाति ही एकमात्र सारतत्व है। देश एक खतरनाक वर्ग संघर्ष की ओर जा रहा है। जो नीति-नियंता हैं उनका एक ही मंत्र, आज जो है उसे भोगो, कल की कल वाला जाने..। किसको कहें मसीहा किस पर यकीं करें..?





पुनश्चः-  इसी जमाने के छात्रनेता अचल सिंह गौर ने अपडेट किया कि जबलपुर विश्वविद्यालय के अध्यक्ष रहे स्व.रत्नेश सॉलोमन नोहटा विधानसभा (वर्तमान जबेरा) से 4 बार विधायक रहे।प्रदेश सरकार में मंत्री भी थे। उस विधानसभा में मात्र 5 ईसाई वोट थे। 1990 में जब निर्दलीय चुनाव लड़े तो 22 हजार वोट के साथ दूसरे नम्बर पर आए थे और कांग्रेस तीसरे नम्बर पर आई थी।



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