फॉरेस्ट कंजरवेटर बीआर मिश्रा ने आलापल्ली में तीन-चार दिन कैंप कर सभी अधिकारियों के साथ जंगल में विभाग द्वारा कार्यों का निरीक्षण करने का निर्णय लिया। डीएफओ जीबी दशपुत्रे के पास एक सरकारी लैंड रोवर थी। निरीक्षण के दौरान इसे दशपुत्रे स्वयं चला रहे थे और उनके बाजू में कंजरवेटर मिश्रा और पीछे हम सब जंगल महकमे के जूनियर अधिकारी बैठे। कंजरवेटर मिश्रा पूरे समय मुझ से ही कोई न कोई प्रश्न पूछते रहे। रास्ते में अगर उन्हें कोई विशेषता दिखाई देती तो वे मुझ से ज़रूर प्रश्न करते। जंगल में एक आदिवासी महिला झाड़ के नीचे बैठी हुई थी, उसको देख कर मिश्रा ने मुझ से प्रश्न किया कि वह क्या कर रही है? उनका प्रश्न सुन कर मैं निरुत्तर हो गया। मुझे चुप देख कर उन्होंने तुरंत कहा कि वह महिला महुआ के झाड़ के नीचे बैठ कर महुआ के फूल बीन रही है। धीरे-धीरे मुझे समझ में आया कि वे मेरे ऑब्जरवेशन या आसपास हो रही गतिविधियों पर मेरी क्या दृष्टि है, इसे वे परखना चाह रहे हैं। वे देखना चाह रहे हैं कि मैं वातावरण के प्रति कितना सतर्क हूं। मिश्रा जंगल अमले के एक नए अधिकारी को अच्छी ट्रेनिंग दे कर उसे सक्षम व कुशल अधिकारी बनाना चाहते थे। इस दौरान मुझे यह भी महसूस हुआ कि मेरे साथ अन्य जो सीनियर अधिकारी बैठे थे, वे मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि उनके बीच एक जूनियर अधिकारी के बैठे होने से सभी प्रश्न उसी से पूछे जा रहे हैं और वे प्रश्नों की बौछार से बचे हुए थे।
पेड़ों के नाम पूछने की परंपरा
कंजरवेटर मिश्रा रास्ते भर मुझसे फील्ड में विभिन्न पेड़ों के नाम ज़रूर पूछते जा रहे थे। जंगल महकमे में यह प्रथा प्रचलित थी कि निरीक्षण के समय सीनियर अधिकारी अपने से जूनियर अधिकारियों से पेड़ों के नाम ज़रूर पूछते थे, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि अधिकारियों को अपने कार्य क्षेत्र के जंगलों की जानकारी है या नहीं। इस कारण सभी अधिकारी जब भी जंगल जाते तो विभिन्न पेड़ों के नाम व अन्य जानकारियां इकट्ठी कर लेते थे। मैंने भी यह गुण आत्मसात किया, जिसे रिटायरमेंट तक अपनाए रखा। कंजरवेटर साहब के पहले दौरे के समय सभी अधिकारी उनके सामने कुछ सहमे व डरे हुए से दिखाई दे रहे थे। यह संभवतः उच्चाधिकारी में निहित अधिकार (पॉवर) का ही असर ही रहा होगा। यदि उच्चाधिकारी वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन में विपरीत टीका टिप्पणी कर दें तो भविष्य में प्रमोशन होने की कठिनाई बनी रहने की संभावना थी।
ताला लगे थैले में आती थी डाक
कंजरवेटर साहब निरीक्षण के लिए सभी अधिकारियों के साथ सुबह 5-5:30 बजे निकल पड़ते और दोपहर लगभग 1 बजे तक वापस लौटते। दोपहर में वे नागपुर से आई हुई डाक का निबटारा करते। वह ऐसा समय था, जब संचार के कोई साधन नहीं थे। यहां तक कि आलापल्ली में फोन की सुविधा भी नहीं थी। डाक एक बड़े बंद थैले में आती थी। थैले में एक ताला पड़ा होता था। डाक रनर द्वारा नागपुर से लाई जाती थी। डाक थैले के ताले की एक चाबी कार्यालय अधीक्षक के पास नागपुर में रहती और दूसरी चाबी कंजरवेटर के पास होती थी। वे ताला खोल कर डाक का निबटारा कर डाक पुनः थैले में रखकर ताला लगाकर वापस नागपुर भिजवा देते थे। यह प्रथा जंगल महकमे में हमेशा से प्रचलित रही है।
बाढ़ से उफनती नदी को नाव से किया पार
अल्लापल्ली एक वन ग्राम था। यह जंगल महकमा का एक बड़ा सेंटर था। अल्लापल्ली में बड़ी संख्या में जंगल महकमे के अधिकारी व कर्मचारी वन संरक्षण, संवर्धन और दोहन कार्य क्रियान्वित करने के लिए कार्यरत थे। यहां बड़ा सेंटर इसलिए भी बनाया गया था, क्योंकि चारों ओर भारत के प्रसिद्ध मूल्यवान सागौन जंगल थे। जंगल महकमे के कर्मचारियों की सुविधा को ध्यान में रख कर विभाग द्वारा यहां एक स्कूल व अस्पताल भी संचालित किया जाता था। स्कूल में शिक्षक और अस्पताल में डॉक्टर एवं अन्य कर्मचारी कार्यरत थे। अस्पताल में पर्याप्त मात्रा में दवाईयां उपलब्ध रहती, जो कर्मचारियों और ग्रामीणों को जरूरत के मुताबिक वितरित की जाती थी। गांव में एक कोऑपरेटिव स्टोर भी था। यहां रोजमर्रा उपयोग में आने वाली सामग्री व अनाज आदि उपलब्ध रहता था। मैंने लगभग छह माह आलापल्ली में रहकर अपनी फील्ड ट्रेनिंग पूर्ण की जिसके बाद मुझे आफिस की ट्रेनिंग हेतु डीएफओ दक्षिण चांदा वन डिवीजन आफिस भेजा गया। मैं आलापल्ली से बस से चंद्रपुर के लिए रवाना हुआ। आष्टी गांव के पास एक नदी बहती थी, जिस पर पुल नहीं था। बरसात का समय था। नदी बाढ़ से उफन रही थी इसलिए बड़ी नाव में फेरी द्वारा सामान रखकर नाविकों द्वारा नदी पार कराई गई। नदी के दूसरे किनारे पर बस मौजूद रहती थी। उस बस से आगे रास्ता तय किया जाता था। चंद्रपुर के रास्ते में बल्लारशाह था। यहां जंगल महकमे का प्रसिद्ध शासकीय डिपो था। इस डिपो में जंगल से लाई गई लकड़ी व चिरान आदि नीलाम की जाती थी।
बाबूओं के साथ बैठ कर सीखा आफिस का काम
आलापल्ली ट्रेनिंग के समय जिन अधिकारियों के संपर्क का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ आगे चलकर वे सभी अधिकारी मेरे वरिष्ठ अधिकारी (बॉस) बने। वरिष्ठ अधिकारी बनते ही उनका व्यवहार ऐसा रहा जैसे कि वे मुझे पहचानते ही नहीं। संभवतः उन्हें यही डर रहा होगा कि उनके घनिष्ठता दर्शाते ही कहीं मैं अनावश्यक रूप से लिफ्ट लेकर कार्य में ढिलाई न करने लग जाऊं। मैंने अपने स्वभाव अनुसार अधीनस्थ रहकर उसी तरीके से कार्य किया, जैसा कि मैं अन्य किसी अपरिचित अधिकारी के साथ रहकर कार्य करता था। इस कारण मुझे सेवाकाल में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव देखने को नहीं मिले। चंद्रपुर पहुंच कर बच्चूवार की चाल में मुझे ठिकाना मिला। प्रथम तल पर किराए के दो कमरे मेरा घर बन गए। इसी चाल में वीआर नीले, यूके तिवारी व डीपी श्रीवास्तव भी रहते थे। बाद में नीले चीफ कंजरवेटर फॉरेस्ट, यूके तिवारी पीएचई के चीफ इंजीनियर और डीपी श्रीवास्तव पीडब्लूडी के चीफ इंजीनियर पद से मध्यप्रदेश में रिटायर हुए। तीनों मिलनसार व प्रेमी स्वभाव के थे।
आफिस के सामान का केवल आफिस के लिए उपयोग
डीएफओ दक्षिण चांदा आफिस में जब ट्रेनिंग हेतु पहुंचा तो डीएफओ के कमरे में ही लगी हुई टेबल कुर्सी पर बैठने के निर्देश दिए गए। डीएफओ के कमरे में मेरे ठीक सामने एसएएफ वीआर नीले भी बैठते थे। आफिस में जितने बाबू कार्यरत थे उन्होंने टेबल पर साथ में बैठाकर वहीं काम करने की ट्रेनिंग दी। बाबूओं के काम जैसे डाक की रिसीव, डिस्पैच स्वयं करने लगा। डाक की रजिस्टर में एंट्री करना, पत्रों के उत्तर के ड्राफ्ट बनाने जैसे काम नियमित रूप से करने लगा। उनमें जो गलतियां पाई जातीं, उन्हें मुझे समझाया जाता। इस दौरान मुझे बारी - बारी से रेवेन्यू अकाउंटेंट, एक्सपेंडिचर अकाउंटेंट, ड्रॉफ्टसमैन, स्टोर कीपर, रिकॉर्ड कीपर आदि सभी शाखाओं में बैठाकर कार्य सिखाया गया। ट्रेनिंग में पूरी कोशिश की गई कि सभी काम आत्मविश्वास के साथ सीख सकूं। आफिस के हेड क्लर्क ने भी मुझे ट्रेनिंग दी। ट्रेनिंग के दौरान इस बात का अहसास हो गया कि आफिस की वस्तुओं का उपयोग केवल आफिस के कार्य के लिए ही किया जाए और इसे स्वयं के उपयोग में कभी ना लिया जाए। हेड क्लर्क ने नियम विरुद्ध एवं गलत कार्य ना करने के बारे में समझाया। उदाहरण देकर बताया कि पूर्व में एक अधिकारी ने झूठा टीए बिल बना कर राशि प्राप्त करने का प्रयास किया, जिसमें वे पकड़े गए और उन्हें इस छोटे से कृत्य के लिए नौकरी से हाथ धोना पड़ा। आफिस में कार्यरत अधिकांश कर्मचारी मराठी भाषी थे और बहुत अनुशासित, सक्षम वव्यवहार कुशल थे।
ईश्वर को साक्षी मान कर आफिस का काम
ट्रेनिंग के दौरान डीएफओ आफिस का ऑडिट करने के लिए अकाउंटेंट जनरल ऑफिस से एक अकाउंटस ऑफिसर रामलिंगम आए। वे रिकॉर्ड व रजिस्टर का परीक्षण कर अपनी रिपोर्ट तैयार कर रहे थे। उनकी एक बात आश्चर्यचकित करने वाली रही। प्रत्येक दिन वे कार्य शुरू करने के पहले अपने थैले से एक पीतल का छोटा डिब्बा निकालते और उसे टेबल पर खोल कर रखते। डिब्बे में भगवान की छोटी-छोटी मूर्तियां व शालिग्राम भगवान की काली मूर्तियां होती थीं, जिन पर फूल चढ़े हुए होते। सबसे पहले वे इन मूर्तियों का ध्यानपूर्वक दर्शन कर हाथ जोड़ते और उसके बाद अपना कार्य शुरू करते। कार्य खत्म करने के बाद इन मूर्तियों को वे पुनः नमन कर अपने साथ ले जाते। वे 'वर्क इज़ वरशिप' के मोटो के आधार पर ईश्वर को साक्षी मानकर ही अपना कार्य संपादित करते थे। उनकी धार्मिक व आस्था भावना को देखकर मैं अत्यंत प्रभावित हुआ।
(लेखक मध्यप्रदेश के सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक हैं)