भारतीय सभ्यता के प्रसार का विहंगावलोकन

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भारतीय सभ्यता के प्रसार का विहंगावलोकन

सूर्यकान्त बाली। जब पक्षी आकाश में उड़ते हुए जमीन पर देखता है तो वह सिर्फ बड़ी चीजें ही देख पाता है जिसे विहंगावलोकन कहा जाता है। हमने भी अपने पिछले तमाम आलेखों में अपने देश के इतिहास का विहंगावलोकन ही किया है। इतनी पुरानी  सभ्यता के विकास का अध्ययन आप करने बैठेंगे, वह काम आप विस्तार की सूक्ष्मताओं में जाकर भी कर सकते हैं। आप चाहें तो उसके विशिष्ट पड़ावों पर ही निगाह डाल सकते हैं। वह भी अगर आकाश में उड़ते पक्षी की न्याईं कर रहे हैं तो किसी खास पड़ाव का सांगोपांग अध्ययन करना सम्भव ही नहीं होगा। आप उसका एक लघु परिचय मात्र ही पा सकते हैं। मसलन यज्ञ संस्था एक बहुखंडीय ग्रन्थ का विषय है। मनु, पृथु, विश्वामित्र या परशुराम बड़ी किताबों के विषय हैं। दीर्घतमा एक सम्पूर्ण उपन्यास का विषय है। सरस्वती नदी एक पूरे शोध का विषय है। हमने इन सब का विहंगावलोकन किया है। हमने आठ हजार वर्षों में अभी शुरू के सिर्फ तेरह सौ वर्षों का विहंगावलोकन किया है और यह काम अभी आगे चलने वाला है।





इतिहास एक कहानी दो: बात का रिश्ता हमारी उस पौराणिक परम्परा से है जिसने भारत के इस कालखण्ड के बारे में दो तरह की धारणाएं समाज में विकसित होने दी हैं। एक धारणा में दैवी किस्म का भारत था, जहां सब तरफ सत्य की प्रतिष्ठा थी, सभी प्रजाजन अपना अपना काम अपने अपने धर्म के हिसाब से करते थे, ऐसा तब कुछ भी नहीं था जिसे हम आज की भाषा में पाप कहते हैं और चारों ओर प्रसन्नता और खुशहाली का आलम था। इसी अवधारणा में यह भी कहीं जुड़ गया है कि वेद ईश्वर ने रचे, मनुष्य को वो उसी ने प्रदान किए, वेदों में सिर्फ गूढ़ अध्यात्मिक बाते हैं और ऐसे वेद तपोलीन ऋषियों को दिव्यप्रकाश की तरह प्रकट हुए। इसके विपरीत दूसरी अवधारणा में पौराणिक परम्परा पर गहरे उतरने के बाद, यह बनती है कि इस देश का बकायदा एक इतिहास है जो मनु के बाद से भी करीब दो तीन हजार साल या इससे भी पुराना है, पर मनु के बाद से वह लगभग ज्ञात रूप में हमें उपलब्ध हैं जो करीब करीब  प्रमाणिक हैं। ये दोनों अवधारणाएं एक दूसरे से कितनी विपरीत हैं, बताने की जरूरत नहीं। यह जरूर दिलचस्प है कि ये दोनो अवधारणाएं पौराणिक परम्पराओं में से ही उपजी हैं। पर यह देखकर जरूर हैरानी होती है कि हमारे देश ने इतिहास वाली अवधारणा को तो पिछली सीटों पर बिठा दिया और इस अवधारणा की ताजपोशी कर दी कि कृतयुग में सब तरफ पुण्य ही पुण्य था। उसी महौल में ऋषियों को ईश्वर ने साक्षात् वेद प्रदान किए।





मनु महराज के पहले का इतिहास: यह एक लम्बी बहस का मामला है जिसके लिए किसी भी विहंगावलोकन के पास अवकाश नहीं हुआ करता। कृतयुग में सब तरफ पुण्य ही पुण्य था, इस अवधारणा से हमने पुराणों और दूसरे ग्रन्थों में सुरक्षित इतिहास लिखा है। कृतयुग एक ऐसी सभ्यता या संस्कृति है, जिसने एक लम्बा जीवन जिया है, जिसके तमाम उतार चढ़ावों, तनावों, दबावों को झेलते हुए उसने खुद को इस कदर मजबूत बना लिया कि भविष्य का एक अतिदीर्घ जीवन जीने की चरम आकांक्षा से यह सभ्यता आज भी परिपूर्ण नजर आती है। जब हम कहते हैं कि मनु महराज से हमारा ज्ञात इतिहास मालूम पड़ता है तो इसका मतलब यह कतई नहीं कि मनु से पहले अंधेरा या बियाबान था। मनु से पहले हमारा इतिहास क्या था, आज उसे बता पाना कठिन है क्योंकि जितनी मनुपूर्व की घटनाएं हमारी पौराणिक स्मृतियों में दर्ज है उनसे हमें इतिहास को क्रमवार बता पाने में मदद नहीं मिलती और जब हम मनु को आज से आठ हजार साल पहले का बताते हैं तो उसका आधार भी कोई कम प्रामाणिक नहीं। 





मनु से महाभारत तक का इतिहास: महाभारत आज से पांच हजार साल पहले हुआ। इतिहास का यह सच आज पश्चिमी विद्वानों के हर कूटनीतिक शोधकुप्रचार के बावजूद स्थापित है और कुछ अन्धेरे कोनों को छोड़ सभी के द्वारा माना जा चुका है। मनु और महाभारत के बीच 108 या 109 पीढ़ियों का इतिहास दर्ज है। एक पीढ़ी को करीब 30 वर्ष का कालखण्ड देने की मान्यता को अगर स्वीकार कर लें तो महाभारत से पहले का इतिहास तीन हजार साल से कम नहीं बैठता। हमने ऊपर कहा कि कहने को दो बातें हैं जिनमें से एक बात पौराणिक परम्परा की है जिसका विवेचन हमने किया। दूसरी बात पश्चिमी विद्वानों द्वारा फैलाई गई अफवाहों की है जिसे वे हमारा इतिहास कहकर हम पर थोपने की कोशिश करते रहे हैं और जिनको हम अपने प्रथम चार आलेखों में प्रमाणपूर्वक अफवाह सिद्ध कर चुके हैं। इन अफवाहों के मुताबिक हमारे पूर्वज आर्य थे वे कहीं बाहर से आए थे कहाँ से आए थे यह अभी तय होना है पर वे पश्चिम से भारत की सीमा में घुसे थे उनके द्वारा लिखे वेद सामान्य धार्मिक गीत हैं। शुरू में मंत्र भारत के पश्चिमी उत्तरी इलाकों में लिखे गए, इसलिए पुराने आर्यों को सिन्धु का पता था पर गंगा-यमुना का पता नहीं था। जैसे-जैसे आर्य पूरब की तरफ बढ़े वैसे ही उनका परिचय शेष इलाकों और नदियों से होता गया, अपनी सभ्यता को फैलाते हुए वे कई सदियों बाद दक्षिण गए और महाभारत के युद्ध तक जिसे ये अफवाहबाज 400 ई. पू. में यानी चन्द्रगुप्त मौर्य से करीब सौ साल पहले का मानते हैं आर्य सभ्यता सारे भारत में फैल चुकी थी।





राज्य और मंत्रो के निर्माण का इतिहास: हमने अभी तक जितने मानक भारतीयों की मंत्र रचना के विचारों का जिक्र किया है, उससे उन तमाम के सन्दर्भ में इन अफवाहों को बेबुनियाद साबित करने की कोई जरूरत बाकी बची नहीं है। पर तीन-चार घटनाओं को थोड़ा रेखांकित करने से ही अफवाहों की यह बालू की मीनार भरभराती हुई नीचे आ गिरेगी।  मसलन हमारे देश के प्रथम ज्ञात राजा मनु अयोध्या में राज करना शुरू किए थे। जिस  भरत के नाम पर देश का नाम भारत पड़ा, वे भी अयोध्या के माने जाते हैं। उनके भाई भगवान बाहुबलि कर्नाटक में तपोलीन हुए थे। विश्वामित्र नामक प्रथम मंत्रकार जिन्होंने गायत्री मंत्र रचा वे कान्यकुब्ज के राजा थे और उन्होंने गुजरात में जाकर तपस्या की थी। मनु की सन्तानें ही एक-एक कर दक्षिण समेत सारे भारत पर राज करने लगीं जिनके अलग-अलग राजवंश चले और जाहिर है कि राज बियाबान में नहीं हुआ करते। हैहय गुजरात के शासक थे और उनके कुलगुरु भार्गव का आश्रय मध्य भारत में नर्मदा के तट पर था। खुद वसिष्ठ हिमालय से उतर कर अयोध्या में इक्ष्वाकु राजाओं के कुलगुरु बनकर अयोध्या में रहने लगे थे, जबकि दीर्घतमा के पूर्वज वैशाली राज्य के कुलगुरु थे। उधर अत्रिकुल के लोग यज्ञसंस्था का प्रचार करने पश्चिम की तरफ शायद आज के ईरान की तरफ निकल गए थे तो दीर्घतमा के सहोदर भाई भरद्वाज के एक वंशज भरद्वाज ने प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम के पास अपना आश्रम बना दिया था। दुष्यन्त की राजधानी प्रतिष्ठान थी तो उनके पुत्र भरत ने अपनी राजधानी बाद में हस्तिनापुर के नाम से प्रसिद्ध हुए नगर में लाकर बसाई अर्थात् अगर राजवंश सारे भारत में फैल चुके थे तो ऋषिकुल भी अनेक नदीतटों पर बस चुके थे और मंत्र रचना भारत के पूर्वी हिस्से में शुरू होकर उसी इलाके में ज्यादा हुई और बाद में भारत में स्थान-स्थान पर बसे ऋषि मंत्र रचना में लग गए।





पश्चिमी इतिहासकार जिन्होंने वेदों को महज गीत बताया: अब बताइए इस पूरी तस्वीर के फ्रेम में यह गप कहाँ फिट होती है कि कोई आर्य नाम की जाति थी जो भारत से बाहर कहीं से आई थी? यह अफवाह कहाँ सही साबित होती है कि मंत्र पहले सिन्धु नदी के किनारे लिखे गए और बाद में मंत्र लिखने वाले पहले पूरब और फिर दक्षिण में फैलते गए? राज्यों और राजधानियों के इस बड़े सन्दर्भ में भला इस झूठ को पाँव टिकाने को कहाँ जगह मिलती है कि कथित आर्य शहरों को नष्ट करने वाले थे? ऋग्वेद की जिस भव्य और श्रेष्ठ कविता से हमने अब तक परिचय पाया है उसके बाद इस प्रचार पर कौन समझदार अपना कान धरेगा कि वेद तो बस यूं ही कुछ धार्मिक किस्म के या चरवाहों के लोकगीत हैं? टिप्पणी चरवाहों के लोकगीतों पर नहीं वे भी जिन्दा समाजों के दिलों की धड़कन होते हैं। पर जिस घटियापन की ओर इस जरिए अंग्रेज बहादुर इशारा कर रहे थे उसमें चरवाहों के गीतों और वेदों दोनों के लिए हिकारत भरी है।





विकसित सभ्यता के पहले राजा बने मनु महाराज: दरअसल कृतयुग में सभी पुण्यमय और वेदों को ईश्वरीय रचना मानकर हमारी पौराणिक अवधारणा भारत के प्रति प्रेमातिरेक और भावातिरेक से प्रेरित होकर इतिहास को अपने हिसाब से गौरवपूर्ण बना रही थी वहाँ पश्चिमी विद्वानों ने भारत को नीचा दिखाने के घृणातिरेक से प्रेरित होकर हमें हमारी जड़ों से ही काट डालने की कूटनीति की। अगर दोनों अतिरेक हैं तो हमारा प्रणाम उस अतिरेक के प्रति है जिसने भारत को अपने कद से बड़ा दिखाने की कोशिश की। इस कोशिश में एक रचनात्मकता है और उसके परिणाम कभी न कभी सकारात्मक भी सामने आ सकते हैं। पर हमें ऐसा प्रणाम प्रस्तुत करते हुए भी नहीं भूलना चाहिए कि मनुष्य की तरह मनुष्य के चारों ओर बिछी पड़ी वनस्पति प्रकृति की तरह सभ्यताओं का भी विकास होता है। वे कोई विकास का गुच्छा देवताओं द्वारा आसमान से पृथ्वी पर नहीं गिराई जातीं। इस सन्दर्भ में हमारा निवेदन यह है कि जब मनु आज से आठ हजार साल पहले इस देश के पहले राजा बने तब पूरे भारत में एक विकसित सभ्यता थी जो क्रमश: और आगे फल-फूल रही थी। कुछ फल-फूलों को हम पिछले आलेखों में सूँघ आए हैं। अगले आलेख से हम भारत गाथा की अपनी इस यात्रा को और आगे बढ़ाते हैं।



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