राजेंद्र बाबू से चली परम्परा में संवैधानिक मर्यादाओं के रहते कई बार प्रधान मंत्रियों और सरकारों की सलाह तथा निर्णयों से असहमत भी रहे हैं भारत के राष्ट्रपति
राष्ट्रपति के चुनाव का बिगुल बजने पर हमारे एक सहयोगी ने सवाल किया कि " राष्ट्रपति क्या रबर स्टेम्प की तरह काम करते हैं ? जो सरकार कहे उस पर स्वीकृति की मोहर लगा दे ? " मेरा उत्तर है ' नहीं '। यह धारणा गलत है। सरकार, संसद, सेना, न्याय पालिका के संरक्षक की भूमिका निर्धारित होने के बावजूद भारत के राष्ट्रपतियों ने कई अवसरों पर अपने प्रधान मंत्रियों और सरकारों के निर्णयों पर असहमतियां व्यक्त की, कुछ विवादास्पद निर्णयों अथवा संसद द्वारा पारित विधेयकों को पुनर्विचार के लिए भेजा। यही नहीं, एक आसान तरीका रहा कि किसी फाइल को महीनों तक विचाराधीन रख लिया जाए। इसकी कोई समय सीमा संविधान में तय नहीं की गई। सामान्यतः यह माना जाता है कि राष्ट्रपति का पद ब्रिटेन के किंग या क़्वीन की तरह है, लेकिन इसके विपरीत भारत में हर पांच वर्ष में बहुमत से उनका चुनाव होता है और कई बार उनके कार्यकाल में ही सत्ता में दूसरी सरकार या प्रधान मंत्री आने पर भी तालमेल या टकराव की नौबत भी आती रही हैं। हां, यह कहा जा सकता है कि कोई भी प्रधान मंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी अनुकूल विचार वाले व्यक्ति को इस पद के लिए चुने, ताकि टकराव की गंभीर स्थितियां नहीं उत्पन्न हो।
अपनी पत्रकारिता के दौरान मुझे ज्ञानी जेल सिंह से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद तक से मिलने के अवसर मिले हैं। कुछ राष्ट्रपतियों के राजनैतिक जीवन के दौरान अधिक सम्बन्ध रहने से उनके महामहिम बनने पर भी अनौपचारिक निजी बातचीत और उनकी भावनाएं, समस्याएं और तरीकों को देखने समझने के अवसर मिले। इसलिए राष्ट्रपतियों के जीवन और परम्परा पर करीब 550 पृष्ठों की एक पुस्तक भी 2011 में लिखी थी। इस शोधनुमा काम से कई पुरानी घटनाओं के अध्ययन के साथ मुझे व्यक्तिगत रूप से रही जानकारियों के आधार पर मेरा मानना है कि इस पद की गरिमा को कम नहीं आंका जाना चाहिए। सरकार से असहमति के उदाहरण डॉ. राजेंद्र प्रसाद के कार्यकाल से मिलते हैं, लेकिन मुझे जेल सिंह और बाद के राष्ट्रपतियों के अनुभव स्मरण हैं | कुछ का सार्वजनिक रिकार्ड भी है। जैसे उन्होंने संसद द्वारा पारित डाक व्यवस्था संशोधन विधेयक को स्वीकृति नहीं दी। इस विधेयक में सुरक्षा कारणों से जरूरत पड़ने पर लोगों के पत्र सरकारी मशीनरी द्वारा खोलने और देखने का प्रावधान था। इसे राष्ट्रपति ने अपने क़ानूनी सलाहकारों से सलाह लेकर माना कि यह नागरिक की निजता के अधिकार का हनन है। फिर यह कानून नहीं बन सका। इसी तरह राष्ट्रपति आर वेंकटरमन ने लोक सभा का कार्यकाल पूरा होते समय संसद द्वारा सांसदों को अधिक पेंशन देने सम्बन्धी विधेयक को मंजूरी देने से इंकार कर दिया था।
जब बीच यात्रा से लौटे पीएम और मनमोहन को पद से हटाया
राष्ट्रपति डॉक्टर शंकर दयाल शर्मा बहुत आदर्शवादी थे और कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। इंदिरा राजीव गांधी तथा नरसिंह राव से पुराने सम्बन्ध रहे, लेकिन कई अवसरों पर उन्होंने सरकार की नीतियों और निर्णयों पर आपत्ति की। बहुत कम लोगों को याद होगा कि राव के सत्ताकाल में प्रतिभूति घोटाला सामने आया और भारी हंगामा हुआ। तब डॉ. शर्मा ने राव को सलाह देकर उनके वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह से इस्तीफ़ा दिलवाया था। इसी तरह नेहरू परिवार की सदस्य शीला कौल हिमाचल प्रदेश के राज्यपाल के पद पर थीं, लेकिन इससे पहले केंद्रीय मंत्री के रुप में रहते हुए आवास आवंटन घोटाले में गंभीर आरोप लगे और मामला कोर्ट में चला। तब सीबीआई की पूछताछ को राव सरकार अनुमति नहीं दे रही थीं। राव ने लचीला रुख अपना रखा था, क्योंकि सामान्यतः राज्यपाल इस परिधि में नहीं आते। तब डॉ. शर्मा ने कड़ा रुख अपनाया और राव को अपनी चुनाव यात्रा रोककर आना पड़ा और राष्ट्रपति ने उन्हें शीला कौल से तत्काल इस्तीफ़ा दिलवाने की गंभीर कड़ी सलाह दी और वह इस्तीफा हुआ।
डॉ. शर्मा ने नहीं दी ईसाई आरक्षण को मंजूरी
इसी तरह राव सरकार द्वारा एक विवादस्पद नेता को राज्य सभा में नामांकन के सरकार के प्रस्ताव की फाइल लौटाने के एक निर्णय की जानकारी मुझे व्यक्तिगत भेंट में भी दी थीं। एक महत्वपूर्ण निर्णय 1996 का है। लोक सभा का कार्यकाल समाप्त होने वाला था। तब राव मंत्रिमंडल ने चुनाव प्रचार की तय सीमा 22 दिन से घटाकर 14 दिन करने और दलित ईसाई को आरक्षण देने की सिफारिश राष्ट्रपति से की। डॉ. शर्मा ने इस सिफारिश को अस्वीकृत कर इस आधार पर लौटा दिया कि चुनाव की तिथि किसी भी समय तय हो सकती है, इसलिए इस तरह के निर्णय आने वाली सरकार पर छोड़ दिया जाए।
नारायणन ने साबित किया - वे रबर स्टेंप राष्ट्रपति नहीं
राष्ट्रपति केआर नारायणन ने तो पद पर रहते हुए एक अखबार के इंटरव्यू में स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि ' मैं रबर स्टेम्प राष्ट्रपति नहीं हूं। मैं राष्ट्रपति के पास आने वाली हर फाइल का ध्यान से परीक्षण करता हूँ । " अपनी स्वतंत्र राय के कारण उनके कार्यकाल में न केवल सरकार, बल्कि सुप्रीम कोर्ट से भी गहरी मत भिन्नता और टकराव की स्थिति पैदा हो गई। नारायणन का कहना था कि सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्तियों में समाज के कमजोर वर्ग अनुसूचित जाति, जनजाति को उनकी आबादी के हिसाब से उचित स्थान यानी आरक्षण देना चाहिए। यही नहीं उन्होंने इसी तरह के चार नामों के साथ नियुक्ति की अनुशंसा भी कर दी। वास्तव में सुप्रीम कोर्ट और सरकार की सलाह पर राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करते हैं, लेकिन उनकी ओर से ही ऐसी सिफारिश आने पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एएस आनंद ने कड़ी आपत्ति कर दी। उनका कहना था कि जजों की नियुक्ति में इस तरह का आरक्षण अनुचित है। यह विवाद सार्वजनिक हो गया। पहले सरकार चुप रही, फिर मामला बढ़ने पर प्रधान मंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति से मिलकर स्पष्ट किया कि जजों की नियुक्ति में कमजोर वर्ग और जातियों की अनदेखी नहीं होगी, लेकिन नियुक्ति प्रक्रिया में किसी कोटे को सरकार भी स्वीकार नहीं करेगी। बाद में सरकार द्वारा संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद के लिए की गई सिफारिश जैसी फाइलों को अस्वीकार कर वापस कर दिया। प्रणव मुखर्जी सारे अच्छे संबंधों के बावजूद मनमोहन सिंह की सरकार के कुछ निर्णयों पर प्रधान मंत्री को बुलाकर अपनी राय - सलाह देते थे। कुछ मामलों का उल्लेख अपनी आत्म कथा में भी किया है।
ज्ञानी जेल सिंह, मुखर्जी ने भी दिखाई पद की गरिमा
इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय लोकतंत्र में असहमतियों और समन्वय की अद्भुत क्षमता है। राष्ट्रपति के पास प्रधान मंत्री, मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के जज, सेना प्रमुख की नियुक्तियों और उन्हें बर्खास्त करने का भी असीमित अधिकार है, लेकिन ऐसी स्थिति कभी नहीं आई। हां, ज्ञानी जेलसिंह ने केके तिवारी को मंत्री पद से न हटाने पर बर्खास्त करने की चेतावनी दी थीं। राजीव गांधी को तब स्वयं उनसे इस्तीफ़ा लेना पड़ा। बाद में टकराव बढ़ने पर जेल सिंह तो राजीव गांधी को ही बर्खास्त कर किसी अन्य कांग्रेसी को प्रधान मंत्री बनाने पर विचार करने लगे थे, लेकिन विभिन्न क्षेत्रों से गंभीर आपत्ति आने पर वह ऐसा कठोर कदम नहीं उठा सके।
राष्ट्रपति के रुख से तय होगी भविष्य की सरकार
बहरहाल वर्तमान दौर में यह अच्छा लक्षण है कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और सभी संवैधानिक पदों के बीच किसी तरह के गंभीर मतभेद सामने नहीं आए और न ही अगले राष्ट्रपति के चुनाव और कामकाज में किसी तरह के तनाव के आसार नहीं लगते। मोदी सरकार और उनकी पार्टी के गठबंधन तथा अन्य क्षेत्रीय दलों के सहयोग से वे अपने पसंदीदा नेता को राष्ट्रपति उप राष्ट्रपति चुन सकेंगें। प्रतिपक्ष भी निश्चित रूप से एक उम्मीदवार खड़ा कर सकता है। यह पहले भी होता रहा है। नामों की अटकलों पर चर्चा से अधिक महत्वपूर्ण पहलु यह है कि इस अगस्त में चुने जाने वाले राष्ट्रपति की भूमिका 2024 के लोक सभा के चुनाव के बाद अधिक संख्या साबित कर सकने वाले नेता को प्रधान मंत्री के रूप में नई सरकार बनाने का निमंत्रण देने का अधिकार होगा। भाजपा और उसके गठबंधन को स्पष्ट बहुमत होने पर कोई समस्या नहीं होगी, लेकिन सत्तारूढ़ और प्रतिपक्ष के गठबंधन के स्पष्ट बहुमत न दिखने पर राष्ट्रपति के रुख और निर्णय पर भविष्य की सरकार तय होगी। लोकतंत्र में हर संभावनाओं, खतरों और सफलताओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। दुनिया का कोई देश भारतीय लोकतंत्र की तरह शक्तिशाली नहीं है।
( लेखक आई टी वी नेटवर्क इण्डिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं )