यदि शब्दकोश से ऐसे शब्द का चयन करने के लिए कहा जाए जो सर्वाधिक भ्रामक है तो निःसंदेह वह होगा धर्म । धर्म शब्द का जितना उपयोग हुआ है उतना ही दुरुपयोग। धर्म के उपयोग ने मनुष्य को देवता बनने का रास्ता बताया तो उसके दुरुपयोग ने दानव बनाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। धर्म के कारण अनेक सभ्यता-संस्कृतियों का उदय हुआ है। कलाओं का विकास हुआ तो धर्मांध युद्धों ने एक झटके में इन सबका विनाश भी कर दिया। इतिहास गवाह है कि राजनैतिक स्वार्थों के लिए धर्म के दुरुपयोग का वही परिणाम होता है, जो धर्मांध युद्धों का हुआ है। ऐसी स्थिति में धर्म की सही और सम्यक समझ आवश्यक है।
धर्म के दो रूप हैं - आंतरिक व बाह्य। जैसे प्रकृति का स्वभाव विज्ञान है जो पूरे संसार में एक सा है इसी प्रकार ब्रह्म का स्वभाव अध्यात्म है जो पूरी सृष्टि में एक सा है। यह धर्म का शाश्वत रूप है, परम सत्य है जो देश काल की सीमाओं से परे है।
धर्म क्या है - भगवान् ने जिस वस्तु को जिस प्रयोजन के लिए रचा है उसकी पूर्ति करना ही उस वस्तु का स्वभाव है और इसे ही उसका धर्म कहते हैं। जैसे सूर्य प्रकाश देता है तो प्रकाश देना सूर्य का धर्म है। अग्नि अपने संपर्क में आने वाली वस्तु को भस्म कर देती है तो जलाना अग्नि का धर्म है। यह स्वभाव सृष्टि में स्वमेव प्रकट हुए हैं, अपरिवर्तनीय हैं। इस नियम-तंत्र को उस वस्तु या जीव व्यष्टि का धर्म कहते हैं। दूसरी ओर भारतीय दर्शन में माना जाता है कि चर और अचर, मनुष्य, प्राणी, पेड़-पौधे, पर्वत, नदी आदि सभी में अर्थात् कण-कण में परमसत्ता व्याप्त है जिसे ब्रह्म कहते हैं। परमसत्ता के नियमों के अनुसार ही इस सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और लय होती है। इन नियमों के कारण ही सूर्य समय पर उगता है। मौसम बदलते हैं। मृत्यु और जन्म होते हैं, कर्म अपना फल देते हैं आदि। समष्टि का यह स्वभाव या नियमतंत्र धर्म का शाश्वत रूप हैं। सृष्टि में मनुष्य को छोड़कर जितने भी चर.अचर, पशु.-पक्षी, पेड़-पौधे, पर्वत, नदियां आदि हैं वे प्रकृति के नियमों और अपने स्वभाव से बँधे हैं, वही उनका धर्म है। उन्हें कुछ और करने की स्वतंत्रता नहीं है। नदियां पानी से भरकर समुद्र की ओर ही दौड़ेगीं, अग्नि दहन करेगी, आम का पेड़ आम ही देगा अमरूद नहीं, पक्षी वैसा ही घोंसला बनाएंगे जैसी उसकी नस्ल शुरू से बनाती रही है, उसमें परिवर्तन की गुंजाइश नहीं है आदि। मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि, विवेक और कर्म करने की स्वतंत्रता दी है इसलिए उसका धर्म है जगत के समस्त प्राणियों, जीवजगत को जीवन जीने का अवसर देने और प्रकृति को संरक्षित रखते हुए सांसारिक सुखभोग करते हुए आत्मज्ञान प्राप्त कर ब्रह्म से अभिन्न हो जाना। इस स्वतंत्रता के कारण मनुष्य समष्टि के नियमों के अनुकूल भी चल सकता है और उसके विपरीत भी। इन नियमों के अनुकूल किया गया आचरण धर्म कहलाता है।
परम सत्य का अनुभव करने की योग्यता पैदा करने के लिए जो सांसारिक प्रक्रियाएँ निर्धारित की गई हैं वह धर्म का बाह्य रूप है जो परिवर्तनीय है व देश, काल, परिस्थिति, व्यक्ति के स्वभाव, आयु, सांसारिक दायित्व आदि के अनुसार बदलती रहती हैं। खान-पान, रहन-सहन व व्यवहार संबंधी नियम व कर्तव्य धर्म के वाह्य व परिवर्तनशील रूप के अंतर्गत आते हैं।
धर्म के दो रूप हैं - आंतरिक व बाह्य। जैसे प्रकृति का स्वभाव विज्ञान है, जो पूरे संसार में एक सा है। इसी प्रकार ब्रह्म का स्वभाव अध्यात्म है, जो पूरी सृष्टि में एक सा है। यह धर्म का शाश्वत रूप है, परम सत्य है जो देश काल की सीमाओं से परे है। ईश्वर की उपासना की विशिष्ट विधियों जैसे यज्ञ, दान और तप आदि से धृति, क्षमा, ऋजुता, शम, दम आदि यम, नियम जीवन में शनैः.शनैः, अवतरित होने लगते हैं। इससे आंतरिक धर्म की वृद्धि होती है, चित्तवृत्ति शुद्ध होती है। शुद्ध चित्त में ही परमात्मा की झलक मिलती है। अंतिम स्थिति में सृष्टि के कण-कण में ब्रह्म की सत्ता का सतत दर्शन होने लगता है। यही धर्म का परम लक्ष्य है। यहां उल्लेखनीय है कि ईश्वर की पूजा, स्तुति, यज्ञ आदि अपने.आप में पूर्ण धर्म नहीं हैं यह तो धर्माचरण का एक अंग मात्र है। परम सत्य का अनुभव करने की योग्यता पैदा करने के लिए जो सांसारिक प्रक्रियाएँ निर्धारित की गई हैं वह धर्म का बाह्य रूप है, जो परिवर्तनीय है व देश, काल, परिस्थिति, व्यक्ति के स्वभाव, आयु, सांसारिक दायित्व आदि के अनुसार बदलती रहती हैं। खान-पान, रहन-सहन व व्यवहार संबंधी नियम व कर्तव्य धर्म के वाह्य व परिवर्तनशील रूप के अंतर्गत आते हैं। सनातन धर्म के शास्त्रों में बाह्य धर्म के तीन भेद किये गये हैं।
सामान्य धर्म - अस्तित्व के स्वभाव के आधार पर व्यवहार के कुछ नैतिक नियम हैं जो सभी पर एकसमान लागू होते हैं, इन्हें सामान्य धर्म कहते हैं। श्री मद्भागवत में सत्य, दया, तपस्या आदि तीस धर्म बताए गये हैं। मनुस्मृति (6.92) में धर्म के दस लक्षण बताए हैं, संतोष, क्षमा, दम, अस्तेय, चोरी न करना, शौच ;शरीर की स्वच्छता, इन्द्रियनिग्रह, धी ;शास्त्रज्ञा, विद्या ;आत्मज्ञान, सत्य और अक्रोध ;महा. न्ति 162 (8.9) में धर्म के 13 रूप बताये गये हैं - सत्य, समता, दम, अमात्सर्य, क्षमा, लज्जा, तितिक्षा ; सहन.शीलता, अनसूया, त्याग, परमात्मा का ध्यान, श्रेष्ठ आचरण़ धैर्य और अहिंसा । यह अपने स्वरूप में न हिंदू हैं, न मुस्लिम, न ईसाई और न ही कोई अन्य। यह तो ऐसे जीवन.मूल्य हैं जो सभी के लिए कल्याणकारी हैं। कई बार संदर्भ के अनुसार धर्म के विशेष अंश को महत्व देने के लिए उसे ही परमधर्म कहा गया है जैसे दृ अहिंसा परमो धर्मरूए पर हित सरिस धर्म नहिं भाई, आदि । वास्तव में यह सामान्य धर्म के भाग हैं।
विशेष धर्म - व्यक्ति की समाज में एक विशेष स्थिति होती है। रिश्ते में वह किसी का पुत्र, किसी का पिताता, किसी का पति-पत्नी आदि होता है। व्यवसाय में व्यापारी, अधिकारी, शिक्षक, कृषक, मजदूर, प्रकृति प्रदत्त स्वभाव के अनुसार वह ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रय आयु के अनुसार बालक, युवा, प्रौढ़ और वृद्ध अवस्था के अनुसार ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का हो सकता है। इनके अनुसार व्यक्ति के अनेक कर्तव्य व दायित्व होते हैं जिन्हें धर्म कहा जाता है जैसे पिता का धर्म, पुत्र का धर्म, राजा का धर्म, संन्यासी का धर्म आदि। इन्हें ही स्वधर्म कहते हैं। एक का स्वधर्म दूसरे के लिए लागू नहीं होता। जैसे गृहस्थ पत्नी का संग कर सकता है, धन संग्रह कर सकता है परंतु संन्यासी को यह सब निषिद्ध है। राजा सेवक की तरह व्यवहार नहीं कर सकता और न ही सेवक राजा की तरह। यही वह स्वधर्म है जिसके लिए गीता में कहा है - स्वधर्मे निधनं श्रेय परधर्मो भयावह ; गीता (3-35)।
आपद्धर्म - अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में प्राणरक्षा के लिए धर्म में किंचित शिथिलता को आपद्धर्म कहा जाता है। यह अस्थाई व्यवस्था है।
धर्म का आचरण दोनों संसार का कल्याण
बाह्य धर्म का उद्देश्य है प्रकृति प्रदत्त स्वभाव से सामंजस्य रखते हुए इस प्रकार जीवन यात्रा पूर्ण कराना कि व्यक्ति इस संसार में सुख शांति और समृद्धि का जीवन व्यतीत करते हए शाश्वत धर्म के अनुरूप अपने अंतःकरण का विकास कर सके। इस प्रकार धर्म आंतरिक जगत और बाह्य संसार दोनों से संबंध रखता है। धर्म का आचरण इन दोनों का कल्याण करता है। इसलिए कहते हैं धर्म रक्षा करनेवाले की रक्षा करता है .धर्मो रक्षति रक्षित मनुस्मृति (8.15) । गीता भी आश्वासन देती है कि धर्म का थोड़ा सा भी पालन महान भय से रक्षा करता है . स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायेत महतो भयात् ; गीता (2.40)।
शास्त्र कराते हैं धर्म, अधर्म की पहचान
किस अवस्था में क्या धर्म है क्या अधर्म इसकी पहचान शास्त्र कराते हैं जिन्हें ऋषियों की अंतःप्रज्ञा और बोध के आधार पर रचा गया है। इसलिए गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं कि जब कर्तव्य और अकर्तव्य का निर्णय करना हो तो शास्त्र प्रमाण होते हैं- तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्याकार्यव्यवस्थितौ ; गीता (16.24)। इसलिए तुलसीदास जी भी चेताते हैं कि शास्त्रों का बार.बार अध्ययन मनन करते रहना चाहिए- सास्त्र सुचिंतित पुनि पुनि देखिअ । धर्म में नकारात्कता है ही नहीं। वह तो अत्यंत सहज, सरल होता है। महाभारत में कहा है कि जो धर्म दूसरे धर्म को बाधा पहुँचाये, दूसरे धर्म से लड़ने के लिए प्रेरित करे, वह धर्म नहीं वह तो कुधर्म है। सच्चा धर्म तो वह है जो धर्मविरोधी नहीं होता- धर्मं यो बाधते धर्मो न स धर्मः कुधर्म तत्। अविरोधात् तु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम ;महा-वनपर्व (131.11) । अनजाने में भी धर्म के स्थान पर अधर्म का आचरण हमारे अभ्युत्थान ;भौतिक उन्नतिद्ध और निरूश्रेयस ;आत्मिक उन्नतिद्ध दोनों को ही नष्ट कर देता है। इसलिए धर्म की सही पहचान आवश्यक है।
(आईएएस अधिकारी opshrivastava@ymail.com तथा धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता हैं)