भारतीय सभ्यता की खास पहचान, जब भी सत्ता बेपरवाह हुई तो संतों ने सुधारा

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भारतीय सभ्यता की खास पहचान, जब भी सत्ता बेपरवाह हुई तो संतों ने सुधारा

सूर्यकांत बाली। हम यह माने बैठे हैं कि सत्ययुग यानी कृतयुग में सभी तरफ अच्छाई ही अच्छाई थी। न्याय ही न्याय था, धर्म ही धर्म था और पाप का नामोनिशान नहीं था। त्रेता में जाकर थोड़ा पाप, थोड़ा अधर्म, थोड़ा असत्य शुरू हुआ। द्वापर में और बड़ा तो कलियुग में सब ओर पाप और अधर्म ही छा गया। यह धारणा लुभावनी होने पर भी अतार्किक है। इसका पता उन कुछ लापरवाह और कुछ दुष्ट राजाओं ने दिया है, जिनके नमूने हम बस अभी पेश करने जा रहे हैं।

भारत ने राजाओं के अहंकार को बर्दाश्त नहीं किया

सिद्ध यह होता है कि किसी भी युग में धर्म-अधर्म दोनों रहते हैं, पर व्यक्तियों और संस्थाओं की मर्यादाएं इस बात से तय होती हैं कि हम इस ढंग के हालात से कैसे सुलटते हैं। दूसरी बात। भारतवर्ष को सिर्फ मूर्खताओं और झगड़ालुओं का देश मानने वालों को यह बात कहने में भरसक लुत्फ आ सकता है कि यहां ब्राह्मण और क्षत्रिय हमेशा आपस में लड़ते रहे हैं और तमाम जातियां ब्राह्मणों के अन्याय से पीड़ित रही हैं। ये नमूने उन राजाओं के नहीं हैं जिन्होंने कोई बड़ा काम करके बड़ा नाम कमाया, बल्कि ऐसे लापरवाह या दुष्ट राजाओं के हैं, जिन्होंने राजा बनने के बाद या तो अपने पद से न्याय नहीं किया या उसका दुरुपयोग किया। पहला उदाहरण वेन का लिया जाए। वेन का समय पता नहीं। उसे पुराणों में अंग देश का राजा कहा गया है। राजा बनने के बाद वह दम्भ और अहंकार से भर गया। किसी के नाम चार कुकृत्य लिखे हों, तो बातचीत में पांच और जुड़ जाते हैं। पुराण ग्रन्थ वेन के कुकृत्यों से भरे पड़े हैं। राजा बनते ही उसने यज्ञ-याग बन्द करवा दिए। वह खुद को ईश्वर का रूप मानने की हद तक दम्भी हो गया। प्रजा पर अत्याचार ढाने वाले इस राजा को ऋषि लोग सहन नहीं कर पाए और उन्होंने मिलकर इसका वध कर दिया। वेन के दो पुत्र थे-पृथु और निषाद। पुराण कहते हैं कि निषाद ने जिस समुदाय का शासन किया, वे ही आगे चलकर निषाद (धीवर) कहलाए, जबकि पृथु ने वेन का उत्तराधिकार पाकर राजशासन के नए-नए मानदंड कायम किए। 

उर्वशी के लिए पागल राजा को ऋषियों ने गद्दी से उतारा

दूसरा नमूना पुरुरवा का है, जो मनु से तीसरी पीढ़ी था और प्रतिष्ठान का राजा था। वह वही सम्राट पुरुरवा है, जिसकी उर्वशी अप्सरा के साथ प्रेम कथा पर कवि कुलगुरु कालिदास ने 'विक्रमोर्वशीय' नामक सुन्दर नाटक लिखा है। पुरुरवा अच्छा और नेक राजा था। पर उर्वशी के सौन्दर्य पर मोहित होकर उससे विवाह करने की ठान ली। उर्वशी कुछ शर्तों पर विवाह को राजी हो गई और एक शर्त यह थी कि कोई भी शर्त टूट जाने पर वह पुरुरवा को छोड़कर चली जाएगी। वही हुआ। पुरुरवा ने लापरवाही में शर्त तोड़ी और उर्वशी उसे छोड़ कर चली गई। अब पुरुरवा उसके पीछे पागल होकर दर-दर, गांव-गांव, जंगल-जंगल भटकने लगा। पेड़ों से बातें करने लगा और उसका सारा राजपाट चौपट और राजकोष खाली हो गया। दरिद्र राजा ने अब  जबरदस्ती प्रजा से पैसा उगाहना शुरू किया। यह बात भारतीय स्मृति में इस कदर दर्ज है कि चाणक्य तक ने अपने अर्थशास्त्र में, यानी चौथी सदी ई.पू. में, साफ-साफ लिखा है कि राजा पुरुरवा ने प्रजा पर अत्याचार कर पैसा इकट्ठा किया। कालिदास ने बेशक अपने नाटक में पुरुरवा उर्वशी का सुखान्त वर्णन कर इस लापरवाह और बाद में अन्यायी और अनाचारी हो गए राजा की तस्वीर कुछ उजली करने की कोशिश की है, पर सच्चाई यह है कि ऋषियों ने प्रजा की तरफ पहले लापरवाह और फिर अनाचारी हो गए इस कामान्य पुरुरवा को गद्दी से उतार दिया और उसके बेटे आयु को राजा बनाया। 

भारत की सभ्यता और संस्कृति अपने नैतिक बल पर अक्षुण्ण

इस सन्दर्भ में देखेंगे तो हमें भगवान ऋषभदेव और उनके पुत्र जड़ भरत के दार्शनिक होने का महत्व समझ में आ सकता है कि राजा अपने लिए नहीं, प्रजा के हित के लिए है और ऐसा राजा फिर दार्शनिक के अलावा और कुछ हो नहीं सकता। सत्ता और शक्ति के शिखर पर पहुंचकर उससे पैदा हो सकने वाले दम्भ और लापरवाही से दूर रहना आसान नहीं। अगर वह ऐसा कर पाए तो यह एक ऐसी दृष्टि है, जो राजा को असामान्य बना देती है। अगर राजदंड हो निष्ठुर हो जाए, तो फिर उसका एक ही इलाज है-ब्रह्मबल, जिसके बराबर इस दुनिया में शायद दूसरा कोई बल नहीं। भारत की सभ्यता के विकास में ये तमाम उदाहरण बड़े महत्व के हैं। इसलिए कि इनमें से सच्चाई यह झांक रही है कि इस देश की राजनीतिक और सामाजिक सोच क्या है और उसे वैसा बनाने में किन घटनाओं और व्यक्तियों ने क्या योगदान किया। भारत के स्वभाव में राजा सिर्फ इसलिए महत्वपूर्ण है कि उसे प्रजा को हर तरह से प्रसन्न रखना है-राजा प्रकृतिरंजनात्। पर राजा से भी कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण वे हैं, जिन पर समाज की मर्यादाएं स्थापित करने का दायित्व है। एक वेन, एक पुरुरवा लापरवाह या अनाचारी हो सकता है, पर अगर देश की बुद्धि अपने नैतिक बल से युक्त रही तो फिर कैसे राजनीति मर्यादा से विमुख हो सकती है और कैसे कोई भी तूफान इस तरह की बड़ी सभ्यताओं को खत्म कर सकता है? 

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