अनिल कर्मा। खबर है कि फेसबुक अब मेटावर्स होने की तरफ कदम बढ़ा रही है। एक पूरी की पूरी आभासी दुनिया बनाने की तैयारी, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि वह इस असल दुनिया के समानांतर खड़ी होगी। यानी सब कुछ असल दुनिया की तरह ही होगा, लेकिन होगा आभासी। इंटरनेट के जरिए आप इस अलग दुनिया में घूमने, सामान खरीदने से लेकर अपने दोस्तों रिश्तेदारों से मिलने जुलने तक सारे काम कर सकेंगे। एक ऐसे समय में जबकि असल दुनिया में दिलों के आभास न्यूनतम पर आते जा रहे हैं, तब मस्तिष्क जनित टेक्नोलॉजी से निर्मित हो रही यह अलग दुनिया असल-नकल के बीच कई परिभाषाओं को गड्ड- मड्ड तो नहीं कर देगी? यह बड़ा सवाल है...
ये कैसा समाज... जहां संवाद के सेतु ढह रहे हैं
असल दुनिया में पनपता नकलीपन वैसे ही हमें इससे दूर कर रहा है। आप सोचिए, आईआईटी किया हुआ एक होनहार युवक इस दुनिया को अलविदा कह देता है। जाहिर तौर पर कारण यह कि उसे बेहतर पैकेज वाला जॉब ऑफर नहीं हुआ। लेकिन सुसाइड नोट का एक-एक अक्षर बताता है कि इसके मूल में उसके वह एहसास रहे जिन्हें कभी समझा ही नहीं गया, बल्कि समय- समय पर उनका कत्ल किया जाता रहा। वह अपने प्रशासनिक अफसर पिता को इस अधूरी चाह के साथ हमेशा के लिए छोड़ गया कि 'काश पापा! आप हमें थोड़ा वक्त देते, हमसे कुछ बात करते, कुछ हमारी सुनते।'' एक और मामला इन दिनों बड़ा चर्चा में है। बॉलीवुड के बड़े स्टार का बेटा ड्रग्स की दुनिया में उलझा पाया गया। तमाम जांच और कयास के बीच उसका एक बयान बहुत कुछ कह जाता है। उसने कहा- 'पापा इतने बिजी हैं कि उनसे मिलने के लिए भी अपॉइंटमेंट लेना होता है।' बताइए, जब असल दुनिया इतनी तंग होगी तो उसके समानांतर दूसरी किसी दुनिया का दरवाजा खुल जाना कोई बहुत अचंभे की बात तो नहीं। ड्रग्स भी अंततः एक आभासी दुनिया में ही ले जाता है जहां इस असल दुनिया की उपेक्षा, उकताहट और नाउम्मीदी को कुछ देर केे लिए ही सही, लेकिन खत्म करना संभव होता है। यही उसका आकर्षण है। यह ड्रग्स या ड्रग्स लेने वालों की तरफदारी नहीं है। वह तो गलत ही है। लेकिन यह ड्रग्स रहित दुनिया की बेहोशी पर सवाल है। नई पीढ़ी अगर भ्रमित होने या हकीकत से भागने की दोषी है तो पुरानी पीढ़ी द्वारा की गई परवरिश भी सवालों के घेरेे में है। आखिर क्यों हम ऐसा परिवार या समाज बनाते जा रहे हैं जहां सहज संवाद का सेतु ही ढहता जा रहा है? जज्बात क्यों अर्थ हो रहे हैं? और परवाह 'पुराने दिनों की बात' क्यों हुई जा रही है?
खतरनाक है मेटावर्स की आभाषी दुनिया
दरअसल मेटावर्स के आने से पहले ही हम बहुत कुछ आभासी दुनिया के करीब होते नजर आ रहे हैं। आत्मकेंद्रित। जैसे एक घर में भी कई दुनिया हो। दूसरे की दुनिया में झांकने या उसे साथ लेने या साझा बेहतर दुनिया बनाने की पहल कम ही नजर आ रही है। मानो सबके अपने-अपने मेटावर्स हैं। असल दुनिया के खुरदरे सवालों, उसके घरघराते सरोकारों या मटमैली अपेक्षाओं से भागने का सुंदर-सजीला-सपाट रास्ता। खूबसूरत पलायन। ऐसे में खतरा यह है कि जब असल में मेटावर्स आएगा, तब कहीं असल-नकल का यह द्वंद बढ़ते-बढ़ते हमें उस निर्द्वंद्व बिंदु तक तो नहीं लेकर चला जाएगा जहां असल और नकल की शक्ल एक होती नजर आएगी? या फिर हम यह भी विस्मृत करते तो नहीं दिखेंगे कि हम असल दुनिया के मनुष्य हैं और इससे हमारा कोई वास्ता है?
सामंजस्य बनाना चुनौती
तकनीक के तौर पर सब अच्छा है। बदलना नियति है और आगे बढ़ना ही प्रगति। रुकना मौत है और कुछ भी रोक सकना बहुत मुश्किल। मगर तकनीक का दखल हमारी जिंदगी में कितना हो? और हमारी जिंदगी पर अपनों का, अपने जैसों का हक कितना हो? यह सवाल तो सामने रखने ही होंगे। दिल और दिमाग का अनुपात तो बिठाना ही होगा। ज्यादा से ज्यादा पाने की दौड़भाग और इत्मीनान से बैठकर कुछ गुनगुनाने के बीच सामंजस्य तो बनाना होगा। परिवार और पैसे को अलग-अलग पैमाने पर कसना होगा। असल और आभासी का अंतर स्पष्ट रखना होगा। इनमें से किन्हीं भी दो को समानांतर नहीं रख सकते। ध्यान रखना होगा कि मेटावर्स हमें आभास दिला सकते हैं, मगर भावनाओं का ज्वार-भाटा मन के जिस समंदर में उठता है उसका कोई आभासी अनुवाद नहीं हो सकता। आप क्या सोचते हैं? ( लेखक प्रजातंत्र समाचार पत्र के संपादक हैं)