सामान्य रूप से यह माना जाता है कि धर्म का आधार आस्था और विश्वास है। इसलिए आधुनिक लोग धर्म को अंधविश्वास मान बैठते हैं, वहीं आस्तिक लोग विवेक-बुद्धि का इस्तेमाल किये बगैर धर्म के नाम पर प्रत्येक कही-सुनी बात को मानकर परोक्ष रूप से इस बात को सिद्ध कर देते हैं कि धर्म तो अंधविश्वासों का पिटारा है। दोनों ही धर्म की समान रूप से हानि करते हैं और स्वयं भी धार्मिक जीवन के लाभों से वंचित हो जाते हैं।
हिन्दू धर्म के आधार, वेदों में धर्म को ‘माना’ नहीं जाता ‘जाना’ जाता है। कोई कहे और हम स्वीकार कर लें यह ‘मानना’ है पर किसी के कहे को हम अनुभव करें और अपना निष्कर्ष निकालें यह ‘जानना’ है। वेदों का धर्म प्रश्न से शुरू होता है, उत्तर के खोज की विधि का संकेत करता है पर खोजना तो हमें स्वयं पड़ता है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद के नारदीय सूत्र में सृष्टि के उद्भव के प्रश्न दिये हैं। यह सृष्टि कहां से आई, कैसे बनी, इसका कर्ता कौन है, वह कहाँ रहता है आदि-आदि। इसने मनुष्य को विचार करने पर विवश किया। यह भविष्य के विचारों और अनुभूतियों के लिए अपार संभावनाएं छोड़ता है।
अनुभव के आधार पर स्थापित किए जीवन मूल्य
तुलसीदासजी ने सम्पूर्ण जगत को किसी के कहने से सीयराममय नहीं मान लिया उन्होंने उसका अनुभव किया तब लिखा - सीय राममय सब जग जानी । करउँ प्रणाम जोरि जुग पानी ।। यदि तुलसीदास जी ‘जानी’ की जगह ‘मानी’ लिख देते तो धर्म का तत्त्व ही नष्ट हो जाता। राजा हरिश्चंद्र की सत्यप्रियता, कर्ण की दानवीरता, भीष्म की वचनबद्धता, राम के आदर्श की कथाएं सुनाकर सामान्य लोगों में जीवनमूल्य स्थापित किये जाते थे ताकि वे इनका पालन कर स्वयं ‘जान’ सकें। सारी गीता सुनाकर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से यह नहीं कहा कि मेरी बात मान लो वरन् कहा कि – यथैच्छसि तथा कुरु। हमारी संस्कृति में ऋषि होते थे जिन्होंने सत्य को अनुभूत करके वेदों के रूप में प्रस्तुत किया और फिर वेदों के सत्य की सरल व्याख्या करने और उसे जीवन में क्रियान्वित करने के लिए स्मृति, पुराण, इतिहास ग्रंथ आदि रचे। दूसरी श्रेणी विद्वान और पंडितों की थी जो इन शास्त्रों का पठन-पाठन करके, शस्त्रार्थ करके, धार्मिक कर्म और परंपराओं के माध्यम से इस सत्य को आम जनता तक ले जाते थे। यह बौद्धिक लोग थे, बुद्धि का प्रयोग करते थे परंतु उस स्तर के नहीं थे कि ऋषियों की तरह स्वयं सत्य अनुभूत कर सकें। तीसरी श्रेणी उन लोगों की थी जो पुराणों, महाभारत और रामायण जैसे ग्रंथों की कथाएँ, भजन आदि सुनाकर गॉंवों से भिक्षा माँगकर जीवन यापन करते थे। सामान्यत: यह गृहस्थ होते थे, न यह बौद्धिक थे और न ही इनका स्वयं का कोई अनुभव था, यह मात्र कथावाचक थे। यह भी समाज के काम के थे क्योंकि इनकी कथाएँ सरल शब्दों में समाज में जीवन मूल्य प्रसारित करती थीं।
आज समाज ऋषि, विद्वान और कथावाचकों में अंतर नहीं समझ पा रहा है। ऋषि तो वैसे भी विरले हैं। गीता कहती है कि हजारों मनुष्यों में कोई एक सिद्ध होने के लिए प्रयास करता है और उनमें से कोई एक ईश्वर को वास्तव में जान पाता है – मुनष्याणां सहस्रेषु कश्चिद् यतति सिद्ध्ये, 7.3। उन्हें पहचान पाना तो और भी दुष्कर कार्य है। विद्वानों का काम एकेमेडिक स्वरूप का है प्रायोगिक स्वरूप का नहीं। अब बचे कथावाचक। इनके कंधों पर बड़ी जिम्मेदारी है। परंतु इनमे गिने-चुने प्रमाणिक लोगों को छोड़ दें तो शेष पर तुलसीदास जी की यह भविष्यवाणी सही बैठती है कि कलियुग में तो – ‘पंडित सोइ जो गाल बजावा’, ‘मिथ्यारंभ दंभ रत जोई । ता कहुँ संत कहइ सब कोई’ और ‘जाकें नख अरु जटा विसाला। सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला’ आदि।
कर्म का फल तो नियम से मिलेगा ही...
बड़ा प्रचार तंत्र, भड़कीली पोशाकें, शानदार पांडाल, टीवी चैनलों पर सीधा प्रसारण जैसे आडंबर तो फिर भी सहन किये जा सकते हैं पर विडम्बना यह है कि हिंदू धर्म को उसके मूल सिद्धांतों से हटकर प्रचारित किया जा रहा है। ऐसे कथावाचक ‘जानने’ की बात ही नहीं करते वह जो भी ऊटपटाँग कह रहे हैं उसे ‘मान’ लेने का आग्रह करते हैं। एक उदाहरण लें। हिंदू धर्म का मूल है कर्म का सिद्धांत। तुलसीदासजी ने कहा है – ‘करम प्रधान बिस्व करि राखा। जो जस करइ से तस फलु चाखा’। गीता भी कहती है कि हम कर्म करने में स्वतंत्र हैं पर कर्म का फल तो नियम से मिलेगा ही, उसे बदलने की स्वतंत्रता नहीं है (कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, 2.47) । बिना कर्म करे एक क्षण भी नहीं रहा जा सकता (न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्, 3.5) यह कर्मफल भोगने के लिए ही जीव को पुनर्जन्म लेना पड़ता है। कर्म तो बीज है जो बो दिया तो उसका वृक्ष बनना है और फल लगना है। जब भविष्य में यह फल मिलता है तो उसे भाग्य कहते हैं। इस प्रकार कर्म पर ही पुनर्जन्म और भाग्य आधारित हैं। गीता कहती है हम स्वयं ही अपने मित्र हैं और स्वयं ही अपने शत्रु, हमारी उन्नति या अवनति हमारे ही हाथ है (उद्धरेद् आत्मनात्मानं नात्मानम् अवसादयेत्, 6.5)। ईश्वर न किसी को पाप देता है न पुण्य ( नादत्ते कश्यचित् पापं न चैव सुकृतं विभु:, 5.15) हम जैसा करते हैं वैसा नियम से मिलता है। यदि हम नैतिक दृष्टि से भी देखें तो यह सिद्धांत व्यक्ति को प्रेरित करते है कि हम स्वयं जिम्मेदार बनें, वर्तमान में कितनी भी कठिनाइयाँ हों हम अच्छे कर्म करें ताकि हमारा भविष्य सुखद हो । समाज की भलाई के लिए इससे अच्छी बात भला क्या हो सकती है?
सनातन धर्म के सिद्धांतों के विरुद्ध है यह उपदेश
अधिकतर लोग जीवन की समस्याओं का सरल समाधान चाहते हैं। वे कर्म और जिम्मेदारी से भागते हैं। इसलिए धर्म के ठेकेदार उन्हें सरल उपाय बताते हैं। एक कथावाचक कहते हैं बच्चा न पढ़े तो कोई बात नहीं शिवजी को बेलपत्र चढ़ा दे प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हो जाएगा। कोई रुद्राक्ष बाँट रहा है तो कोई नारियल। कोई अपने आश्रम में लगातार सात बार आने को कह रहा है। आम श्रद्धालु को बिना कुछ किये धरे अपनी समस्याओं का इससे आसान समाधान क्या मिलेगा। इसका परिणाम है नारियल और रुद्राक्ष बँटने में भगदड़ मच रही है, कथा में कई किलोमीटर का जाम लग रहा है। भगवान् की शरण लेना अच्छी बात है पर गीता पहले हृदय की दुर्बलता को त्याग कर पूरे पुरुषार्थ से कर्म करने को कहती है (क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्तोतिष्ठ परंतप, 2.3) और जब पुरुषार्थ की सीमा हो जाती है तब ईश्वर की मदद के लिए शरणागत हो जाने का मंत्र देती है (मामेकं शरणं ब्रज, 18.66) । जब हम बच्चों को पढ़ाई का पुरुषार्थ करने की जगह शुरु से ही शरणागत होने का उपदेश देते हैं तो वह सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध हो जाता है।
समय पर ही समाप्त होगी समस्या
अब एक प्रश्न रह जाता है लोगों को इनके पास जाने से कुछ लाभ तो होता होगा तभी तो इतनी भीड़ जा रही है ? निश्चित ही कुछ लोगों की समस्याओं का समाधान होता है परन्तु महत्वपूर्ण यह है कि वे न भी जाते तब भी कुछ का समाधान तो होना ही था। हर प्रारब्ध अपना भोग कराकर शांत हो जाता है। आज आप परेशान हैं तो वह परेशानी समय के साथ समाप्त होगी ही। यदि कोई 100 विद्यार्थियों को उत्तीर्ण होने के लिए टोटके बताता है तो उनमें से 50 तो वैसे भी उत्तीर्ण होना ही थे । यह 50 उस टोटके का आगे प्रचार करते हैं और शेष 50 अपना भाग्य समझ कर चुप रह जाते हैं। इस प्रकार समाज में अंधविश्वास बढ़ता है। इसके स्थान पर यदि उन्हें कर्म के नियम पर विश्वास करके पुरुषार्थ करने और सम्पूर्ण प्रयास के बाद ईश्वर की शरणागति की बात बताई जाती तो इन 100 में से पूरे 100 उत्तीर्ण हो जाते परंतु तब गीता के अनुसार आप ही अपनी प्रगति के जिम्मेदार होते। यह बच्चों को नैतिक और जिम्मेदार बनाता, समाज को सुंदर और सुखद बनाता। धर्म को व्यवसाय बनाने के लिए मूल प्रमाणिक ग्रंथों की शिक्षाओं का विलुप्त करते जाना हिन्दू धर्म के समक्ष वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है।
• हिन्दू धर्म के आधार, वेदों में धर्म को ‘माना’ नहीं जाता ‘जाना’ जाता है। कोई कहे और हम स्वीकार कर लें यह ‘मानना’ है पर किसी के कहे को हम अनुभव करें और अपना निष्कर्ष निकालें यह ‘जानना’ है।
• बड़ा प्रचार तंत्र, भड़कीली पोशाकें, शानदार पांडाल, टीवी चैनलों पर सीधा प्रसारण जैसे आडंबर तो फिर भी सहन किये जा सकते हैं पर विडम्बना यह है कि हिंदू धर्म को उसके मूल सिद्धांतों से हटकर प्रचारित किया जा रहा है।
• अधिकतर लोग जीवन की समस्याओं का सरल समाधान चाहते हैं। वे कर्म और जिम्मेदारी से भागते हैं। इसलिए धर्म के ठेकेदार उन्हें सरल उपाय बताते हैं।
opshrivastava@ymail.com,( लेखक आईएएस अधिकारी तथा धर्म, दर्शन और साहित्य के अध्येता हैं)