परदेसी मीडिया की मोहमाया या गुलाम मानसिकता खतरनाक 

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The Sootr CG
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परदेसी मीडिया की मोहमाया या गुलाम मानसिकता खतरनाक 

ह आकाश से हुई कोई देव वाणी नहीं है। आज़ादी के 75 साल बाद भारतीय समाज और मीडिया अधिक जागरुक, सक्रिय और शक्ति संपन्न हो चुका है। न्यूयॉर्क टाइम्स, वाशिंगटन पोस्ट या इकानॉमिस्ट जैसे विदेशी प्रकाशन अथवा प्रसारण के पूर्वाग्रह और संदिग्ध विश्सनीयता पर भारत के राजनेता, लेखक, पत्रकारों का बड़ा वर्ग ही आशंका और सवाल नहीं उठाते हैं, अमेरिका के नामी संपादक, लेखक और नेता भी भ्रामक, झूठी, निहित स्वार्थों से पत्रकारिता के प्रामाणिक तथ्य सामने रखते हैं। हाल ही में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल और उनके सहयोगियों तथा समर्थकों द्वारा दिल्ली की स्कूली शिक्षा पर न्यूयॉर्क टाइम्स में छपी एक रिपोर्ट को जय-जयकार के साथ प्रचारित किया गया। इस विवाद से विदेशी मीडिया के प्रति खास मोह और एक तरह की गुलाम मानसिकता का मुद्दा भी सामने आया।



इसी दौरान मुझे अमेरिका के एक नामी संपादक लेखक एश्ले रिन्डसबर्ग (Ashle Rindsbarg) की पुस्तक देखने में आई, जिसमें न्यूयॉर्क टाइम्स द्वारा की गई रिपोर्टिंग लेखन में गड़बड़ियों, तोड़ मरोड़ कर तथ्यों को रखने, महत्वपूर्ण घटनाओं पर पूर्वाग्रहों और मनगढंत विवरण होने पर करीब दस वर्षों के शोधपरक 300 पृष्ठों का दस्तावेज सा है। पिछले साल 2021 में प्रकाशित इस पुस्तक में अमेरिका तथा विश्व के विभिन्न देशों की महत्वपूर्ण घटनाओं को लेकर हुए गलत लेखन प्रकाशन की दिलचस्प दास्तान है।



बिकाऊ लोगों को पालते हैं विदेशी मीडिया



न्यूयॉर्क टाइम्स ने किसी विशेष आग्रह या केजरीवाल समर्थक देशी विदेशी लॉबी से प्रभावित, प्रायोजित तारीफ की एक-दो खबर छाप दी होगी, अन्यथा दशकों का अनुभव तो यह है कि यह अखबार या उसके जैसे अमेरिकी,  ब्रिटिश या पाकिस्तान-चीन के प्रकाशन और प्रसारण प्रचार तंत्र भारत की छवि बिगाड़ने वाली नकारात्मक रिपोर्ट, लेख, फोटो इत्यादि प्रमुखता से प्रस्तुत करते हैं। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी,  भारत सरकार, हमारी प्रगति के विरुद्ध सामग्री जुटाने वाले बिकाऊ लोगों को अधिकाधिक धन, लाभ, सैर सपाटों की सुविधाएं भी यही संस्थान देते हैं। वैसे केजरीवाल या कांग्रेस के नेता यह याद नहीं रखते कि इंदिरा गाँधी सत्ता काल से मोदी राज तक इस तरह के परदेसी मीडिया और उनको शह देने वाली एजेंसियां और संगठन भारत में राजनीतिक अस्थिरता तथा अराजकता के लिए बराबर प्रयास करते रहे हैं।



चीन ने ऐसे भड़काया भारत विरोधी अभियान 



यहां एक बात बताना जरूरी है कि यह बात दुनिया के सभी प्रकाशनों अथवा प्रसारणों के लिए लागू नहीं होती है, न ही मैं पश्चिम देशों के प्रति कम्युनिस्ट विचारों से प्रभावित पत्रकार हूं। मैं स्वयं चालीस वर्ष पहले जर्मनी के प्रसारण संस्थान वॉइस ऑफ़ जर्मनी में तीन वर्ष हिंदी डिवीजन का संपादक रहा हूं और बाद में वॉइस ऑफ़ अमेरिका आदि के लिए भारत से रिपोर्ट, टिप्पणियां करता रहा हूं, लेकिन इसमें मुझ जैसे पत्रकार भारतीय हितों को सर्वाधिक महत्व देते हैं। इसमें भी कोई शक नहीं कि दिल्ली की केजरीवाल सरकार या केंद्र की सरकार भी अपनी अनुकूल खबरें या लेख छपवाने या प्रचारात्मक शार्ट फिल्म दिखाने के लिए विज्ञापन या प्रायोजित सामग्री विदेशी संस्थानों को देती हैं। दूसरी तरफ हाल के वर्षों में चीन ने प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से कुछ अमेरिकी प्रकाशन संस्थानों में भारी पूंजी लगाकर भारत विरोधी अभियान के लिए घी का इंतजाम किया है। चीन ने रूस-यूक्रेन युद्ध पर भी पूर्वाग्रही रिपोर्टिंग के लिए करोड़ों डॉलर खर्च किए हैं।



पूर्वाग्रह से पक्ष या विरोध में छापते हैं विदेशी अखबार



एश्ले ने अपनी किताब में पहले दूसरे विश्व युद्ध से लेकर वियतनाम, जापान, क्यूबा, इसराइल सहित कई देशों और अमेरिका के तत्कालीन अथवा वर्तमान राजनेताओं प्रशासन की भूमिकाओं पर आधी अधूरी मनगढंत अनेकानेक बातों को प्रचारित करने के तथ्य लिखे हैं। उनका कहना है कि न्यूयॉर्क टाइम्स अपने को सिद्धांतों से बहुत ज्ञानी और साधन संपन्न संस्थान दिखाता है, लेकिन असलियत यह है कि वह फेक न्यूज़, झूठी ख़बरें तैयार करवाकर उन्हें उछालता है। इसका प्रबंधन कुछ ऐसे लोगों के पास है, जो किसी अन्य सलाहकार की कुछ नहीं सुनते हैं। उनके अपने एजेंडे रहते हैं। वे पूर्वाग्रह से पक्ष या विरोध में छापते हैं। फिर यह अकेला नहीं है। अमेरिका तथा पश्चिमी देशों के कुछ संस्थान भारत की आर्थिक प्रगति, संचार क्रांति, परमाणु अंतरिक्ष सफलता, कम्प्यूटर, सॉफ्टवेयर क्षेत्र, स्वास्थ्य सुविधाओं में निरंतर प्रगति से विचलित होते हैं। पिछले दो वर्षों के दौरान कोविड महामारी से बचाव में सरकार और भारतीय समाज के संयुक्त प्रयासों की सराहना के बजाय लाखों लोगों के मरने, नदियों में मृत लोगों को बहाने की झूठीं ख़बरों को बढ़ा चढ़ाकर पेश किया। इसी तरह पाकिस्तान के आतंकवादी हमलों के विरोध के बजाय जम्मू कश्मीर में अशांति और उसे अलग किए जाने के भारत विरोधी प्रचार को प्रमुखता दी है। सवा सौ करोड़ के भारत देश में अल्प संख्यकों की प्रगति के बजाय उन्हें असुरक्षित दिखाने का निरंतर अभियान चलाया है।



मानव अधिकार के नाम पर भी नहीं मिले छूट



दुर्भाग्य की बात यह है कि डिजिटल क्रांति के बाद भारत में भी मीडिया का एक वर्ग विदेशी तंत्र से गुलाम मानसिकता के कारण उसकी दी सूचनाओं की झूठन को अपने यहां इस्तेमाल करता है। चीन और पाकिस्तान की गुप्तचर एजेंसियां किसी कंपनी या अन्य संस्था के नाम पर ऐसी कठपुतलियों को फंडिंग करा देती हैं। यह विदेशी खेल भी सत्तर अस्सी के दशक से चला आ रहा है। तीस साल पहले तो ऐसे पत्रकारों और उनसे जुड़े लोगों के भंडाफोड़ हुए। कुछ देश से भाग गए, कुछ दण्डित हुए। पिछले साल भी कुछ लोगों पर क़ानूनी कार्रवाई हुई, छापे भी पड़े। हाँ, यह स्वीकारना होगा कि अपने देश में न्यायिक व्यवस्था में दोषी देर से दण्डित होते हैं। अमेरिका तक में पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के ठिकानों पर छापों को कोई अनुचित नहीं कहता। अमेरिका, यूरोप, चीन आदि में मानव अधिकारों के नाम पर मनमानी गड़बड़ी की छूट नहीं होती। भारत में अंदर या बाहर के लोग बिना बात के मानव अधिकार का हल्ला कर हिंसा और गड़बड़ियों को प्रोत्साहित कर देते हैं।

(लेखक आई टी वी नेटवर्क  इंडिया न्यूज़ और दैनिक आज समाज के सम्पादकीय निदेशक हैं)


विचार मंथन विदेशी मीडिया का भारत विरोधी अभियान धन देकर बिगाड़ रहे भारत की छवि प्रायोजित अभियान Anti-India campaign of foreign media spoiling the image of India by giving money sponsored campaign