बालाघाट में डीएफओ शंकर लाल दुबे के ट्रांसफर के बाद एफए लहरी ने डीएफओ का चार्ज लिया। वे जीबी दशपुत्रे के बैचमेट थे। इसका अर्थ था कि वे मुझसे दस वर्ष वरिष्ठ थे। उनके ऊपर अंग्रेजों की ट्रेनिंग का प्रभाव था। उनसे मुलाकात करने के दौरान आभास हुआ कि वे दूरी बनाकर औपचारिक व रूखेपन से मिल रहे थे। ज्यादा बात ना कर आंगुतक को शीघ्र विदाई का संकेत दे देते थे। जंगल महकमे के डिवीजन आफिस में विभिन्न कूपों की नीलामी की जाती थी। इस नीलामी का संचालक डीएफओ द्वारा किया जाता था। नीलामी की कार्रवाई फॉरेस्ट ट्रेनिंग स्कूल के परिसर में की जाती थी। नीलामी के दौरान बहुत सारे ठेकेदार, सभी रेंज आफिसर व जंगल महकमे के अन्य कर्मचारी यूनीफार्म में रहते थे। इस दिन उत्सव जैसा माहौल रहता था।
एसएएफ ईएमडी दस प्रतिशत धरोहर की राशि कलेक्ट कर नीलम के समय डीएफओ की सहायता करते थे। स्वीकृत वर्किंग प्लान के अनुसार विभिन्न रेंजों के जंगल क्षेत्रों में वर्किंग प्लान में दर्शाए अनुसार कूपों का डिमारकेशन कर उनमें मार्किंग रूल्स के अनुसार निकाले जाने वाले पेड़ों को चिन्हित कर जड़ के पास एवं छाती की ऊंचाई पर हथौड़े का निशान लगाया जाता। उन पेड़ों का बाजार मूल्य के आधार पर मूल्यांकन कर कुल कीमत निकाली जाती, जिसे अपसेट प्राइस कहा जाता है। इसी अपसेट प्राइस की घोषणा कर जंगल ठेकेदारों द्वारा आपस में प्रतिस्पर्धा कर नीलामी में बोली लगाई जाती थी। जो अधिकतम बोली लगा देता उसे डीएफओ एक, दो, तीन बोलकर लकड़ी का हैमर टेबल पर हल्के से पटक कर कूप उसके नाम कर देते थे। जब नीलामी की बोली लगाई जाती थी, उस समय एसएएफ अपने वरिष्ठ डीएफओ को जानकारी देते रहते कि ठेकेदार द्वारा लगाई गई बोली उचित है कि नहीं। जिस राशि की बोली लगाई जाती थी, उसकी दस प्रतिशत की राशि धरोहर राशि के रूप में जमा करवाना अनिवार्य रहता था। यदि बोली अधिक राशि की पाई जाती थी तो ठेकेदार को तुरंत निर्देश दिए जाते थे कि वे बोली के अनुसार अधिक राशि को तुरंत जमा करवाएं। इस तरह बोली पर नियंत्रण रखा जाता था।
नीलामी में सूट टाई पहन कर आते थे अधिकारी
नीलामी के दिन जंगल महकमे के सभी अधिकारियों को सूट व टाई या बंद कॉलर कोट पहनकर उपस्थित होना पड़ता था। धरोहर की राशि की सुरक्षा के लिए सशस्त्र पुलिस बल के जवान विशेष रुप से तैनात रहते थे। नीलामी समाप्त होने के उपरांत एकत्रित की गई राशि का ईएमडी बॉक्स पुलिस जवानों की सुरक्षा के साथ ट्रेजरी या पुलिस थाने में जमा कराया जाता था। ठेकेदार द्वारा शेष राशि जमा करने पर उसे कूप की बाउंड्री दिखा कर कूप सौंप दिया जाता था। ठेकेदार हेमर लगाए हुए पेड़ों को काट कर इमारती लकड़ी के लट्ठे व जलाऊ लकड़ी ढुलाई करवा कर ले जाता था। इस व्यवस्था में काफी खामियां थीं। जैसे निचले स्तर के कर्मचारियों से सांठगांठ कर कभी-कभी ठेकेदार कूप में खड़े हुए अन्य पेड़ों या आसपास के जंगल के पेड़ों को काटकर चोरी करके ले जाते थे। इस को ध्यान में रखते हुए कई वर्षों बाद इमारती लकड़ी का राष्ट्रीयकरण किया गया। जंगल महकमे द्वारा स्वयं पेड़ों की कटाई कर लट्ठे व जलाऊ लकड़ी जंगलों के बाहर ढुलाई कर डिपो में एकत्र कर नीलाम करने की प्रथा अपनाई गई। इस प्रथा के कारण ठेकेदारों का जंगलों में प्रवेश वर्जित हो गया।
रात में लालटेन ही रोशनी का सहारा
बालाघाट पोस्टिंग मेरे लिए स्पेशल रही, क्योंकि यही वह जगह थी जहां मेरी पोस्टिंग के समय विवाह होने का निर्णय हुआ। शासकीय सेवा करते हुए मुझे एक वर्ष से कम का ही समय हुआ था, इसलिए विवाह के लिए केवल सात दिन का अवकाश स्वीकृत हुआ। शादी के बाद जब पहली बार में पत्नी को लेकर बालाघाट पहुंचा तो आवास में बिजली नहीं थी, इसलिए रात में केवल लालटेन का सहारा था। पत्नी शाम चार बजे से लालटेन जलवा कर रखवा लेती थीं। उनको लालटेन जलाना नहीं आता था। धीरे-धीरे पत्नी ने घर में पानी सहित अन्य समस्याओं को अपने ढंग से सुलझाना शुरू कर दिया। वाहन के नाम पर एक पुरानी साइकिल थी। इस साइकिल से ऑफिस जाता और उसी के सहारे अन्य काम निबटाता। बालाघाट में एक प्रशिक्षु एसएएफ था इसलिए पोस्टिंग रेंज ट्रेनिंग हेतु हेडक्वार्टर बालाघाट रेंज में हुई। उस रेंज में बहुत सारा काम पेंडिंग पड़ा था। इस काम को पूरा करने के लिए केवल दिन ही नहीं, बल्कि रात में भी एक-दो बजे तक लालटेन की रोशनी में काम करना पड़ता था।
परिवार से दूर रहना एक नेगेटिव पहलु
अभी तक जो भी ट्रेनिंग मैं कर रहा था उसमें सिर्फ देखने समझने का ही मेरा काम था। जैसे ही मुझे रेंज ट्रेनिंग के लिए पदस्थ किया गया वैसे ही मुझे समझ में आने लगा कि अब जो भी काम मैं करूंगा उसका उत्तरदायित्व मेरा ही होगा। नई शादी होने के कारण हल्का फुल्का काम करना चाहता था, लेकिन पोस्टिंग रेंज चार्ज में आते ही मेरे कंधों पर भारी उत्तरदायित्व आ गया। रेंज के कार्यों का ज्यादा अनुभव नहीं था इसलिए न केवल रेंज कार्यालय में बल्कि बाहर जाकर कामों का संचालन व निरीक्षण दोनों करना होता था। इस वजह से मुझे घर से लम्बे समय तक बाहर रहना पड़ता था। मैं समझता हूं कि जंगल महकमे में नौकरी करने का यह अत्यंत नेगेटिव पहलू है, जिसमें परिवार व बच्चों को छोड़ कर जंगलों में लम्बे समय तक रह कर वहां के कामों में व्यस्त रहना। सीनियर आफिसरों से जानकारी मिली कि प्रतिमाह बीस दिन दौरे पर रहना होगा, जिसमें बारह से पन्द्रह रातें जंगल में बिताना होंगी। प्रत्येक फॉरेस्ट डिवीजन में लगभग छह से आठ रेंज होते हैं। रेंज का इंचार्ज रेंज आफिसर होता है। रेंज आफिसर की सीधी भर्ती कर उन्हें दो साल की ट्रेनिंग पूरी करने पर फील्ड में पदस्थ किया जाता है।
ऐसे होती है जंगल और वनजीवों की देखरेख
प्रत्येक रेंज को तीन-चार सर्किल में बांट कर उसका इंचार्ज फॉरेस्टर या डिप्टी रेंजर होता है। प्रत्येक सर्किल में छह से आठ बीट होती है, जिसका जिम्मा बीट गार्डों पर होता है। फॉरेस्टर व फॉरेस्ट गार्ड की भी ट्रेनिंग होती है। इसके बाद ही उनको जिम्मेदारी सौंपी जाती है। बालाघाट रेंज में तीन सर्किल थे। प्रत्येक सर्किल में लगभग छह से आठ बीड गार्ड पदस्थ थे। रेंज ऑफिसर का मुख्य काम जंगलों व वन्य प्राणियों की सुरक्षा, रखरखाव और अग्नि बचाव के इंतजाम के अतिरिक्त वर्किंग प्लान के अनुसार कूपों का सीमांकन व मार्किंग कर उनकी नीलामी करना होती थी। जंगल के रास्ते एवं महकमे की सभी भवनों को मेंटेन करना, नर्सरी में पौधे तैयार करना और प्रत्येक वर्ष प्लांटेशन क्षेत्रों की तैयारी कर वर्षा ऋतु में प्लांटेशन करना, वन महोत्सव में जनता को पौधे का वितरण करना जैसे काम भी शामिल रहते थे। इसके अलावा जंगल में हो रहे अपराध को नियंत्रित कर उनको रोकना और केस तैयार कर या तो कंपाउंडिंग के लिए भेजना या कोर्ट में चालान प्रस्तुत करने जैसे कामों को भी समय पर करना होता था। प्रत्येक बीट गार्ड को पीओआर (प्रीलिमनरी ऑफेंस रिपोर्ट) बुक और बीट कुल्हाड़ी हैमर दिया जाता था। जब भी कोई अपराध पकड़ा जाता तो जब्तीनामा बनाकर जब्त की गई लकड़ी पर बीट हैमर का निशान लगाकर पीओआर जारी किया जाता। पीओआर की एक कॉपी रेंज ऑफिसर और दूसरी प्रति डीएफओ को तत्काल सीधे भेजी जाती थी। इन कामों के संचालन के लिए डीएफओ से चेक द्वारा राशि प्राप्त की जाती और उस राशि से कर्मचारियों का वेतन वितरण किया जाता। इसके अलावा जंगल महकमे के कामों का संपादन करवा कर भुगतान करना और केशबुक मेंटेन करना पड़ती थी। रेंज आफिस के विभिन्न कामों से संबंधित रजिस्टर को भी व्यवस्थित रखना होता था।
वरिष्ठ अधिकारियों के लिए ज़रूरी था ड्रेस कोड
जंगल महकमे में फॉरेस्ट गार्ड से लेकर रेंज ऑफिसर तक सब के लिए ड्रेस कोड निर्धारित किया गया था। कार्यरत कर्मचारियों को जंगल महकमा ड्रेस की सप्लाई करता था। जब भी कर्मचारी ड्यूटी पर होते तो उन्हें ड्रेस पहनना ज़रूरी होता था। वरिष्ठ अधिकारियों के सामने कोई भी कर्मचारी बिना ड्रेस के उपस्थित नहीं होता था। एसएएफ व उससे वरिष्ठ अधिकारियों के लिए कोई ड्रेस कोड निर्धारित नहीं था, फिर भी यह प्रथा प्रचलित थी कि जब भी वरिष्ठ अधिकारी जंगल का निरीक्षण करने जाएंगेए तो वे खाकी पेंट व खाकी हेट लगा कर जरूर जाएंगे। शायद वरिष्ठ अधिकारियों के लिए ड्रेस कोड की प्रथा इसलिए प्रचलित रही होगी कि कर्मचारियों को यह आभास ना हो कि उन्हें तो खाकी ड्रेस पहना दी गई और अधिकारी रंग बिरंगी मुफ्ती ड्रेस में कार्य पर आ रहे हैं। ड्रेस कोड की प्रथा अंग्रेजों के समय से प्रचलित थी।
बीट गार्ड व्यवस्था में आमूलचूल बदलाव की ज़रूरत
जंगल महकमे के कर्मचारियों को जंगलों में रह कर बेहद कठिन परिस्थितियों में काम करना होता है। एक बीट गार्ड पांच से आठ स्क्वेयर किलोमीटर जंगल क्षेत्र की देखरेख व सुरक्षा के लिए जिम्मेदार होता है, जिसमें करोड़ों रुपयों की मूल्यवान वन संपदा पूरे क्षेत्र में बिखरी हुई होती है। जहां तक साधन एवं सुविधाओं का प्रश्न है वह लगभग ना के बराबर होती है। अकेला फॉरेस्ट गार्ड कैसे यह काम कर पाता होगाए यह विचारणीय प्रश्न है। उसके केवल पीओआर बुक व बीट कुल्हाड़ी थमा दी जाती है। कुछ ऐसे मामले सामने आएए जहां फॉरेस्ट गार्ड पर जंगल में कोई अपराध होते समय आक्रमण हो गया। कुछ मामलों में उनकी हत्या कर दी गई। इस व्यवस्था में आमूल चूल बदलाव की ज़रूरत है। जंगल महकमे के अधिकारियों व कर्मचारियों को उचित अध्ययन के बाद वे सभी साधन व सुविधाएं उपलब्ध करवाना चाहिएए जिसके वे वाकई में हकदार हैं। बीट गार्ड के स्थान पर सशस्त्र वन रक्षकों का समूह प्रत्येक बीट की सुरक्षा व अन्य कामों के लिए पदस्थ करना चाहिए। उनको वाहन व आधुनिक संचार साधनों से लैस करना चाहिए। स्थानीय ग्रामीणों का योगदान लेना भी ज़रूरी है। आखिरकार जंगल महकमे के ये कार्मिक प्रदेश के खजाने के लिए जंगल महकमे से बड़ी मात्रा में रेवेन्यू अर्जित करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के साथ पर्यावरण व वन्य प्राणियों के संरक्षण खासा योगदान देते हैं।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक मध्यप्रदेश हैं)