नक्सल और माओवाद में बुनियादी फर्क समझिए!

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नक्सल और माओवाद में बुनियादी फर्क समझिए!

जयराम शुक्ल। बस्तर फिर अशांत है। चरमपंथियों ने बंद का आह्वान किया है। मीडिया और अन्य वर्ग के लोग इसे नक्सलियों का एक्शन बता रहे हैं। जबकि वस्तुतः ये कानू सान्याल, चारू मजूमदार की नक्सलबाड़ी के क्रांतिदूत नहीं, अपितु ये वहसी राक्षस हैं, ये नक्सली नहीं, माओवाद की नकाब ओढ़े फिरौती और चौथ वसूलने वाले राष्ट्रद्रोही, खूनी दरिन्दे, डकैत और लुटेरे हैं। 



नक्सल, यहां से आया 



नक्सल शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के छोटे से गांव नक्सलबाड़ी से हुई है जहां भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारू मजूमदार और कानू सान्याल ने 1967 में जमीदारों के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरूआत की। पं.बंगाल की तत्कालीन सरकार सामंतों की पोषक थी और वे खेतिहर मजदूरों का क्रूरता के साथ शोषण करते थे। 



सान्याल ने कहा था कि वो हिंसा की राजनीति का विरोध करते हैं 



सरकार जब मजदूरों, छोटे किसानों की बजाय जमीदारों के पाले में खड़ी दिखी तो यह धारणा बलवती होती गई कि मजदूरों और किसानों की दुर्दशा के लिए सरकारी नीतियां जिम्मेदार हैं, जिसकी वजह से उच्च वर्गों का शासन तंत्र और फलस्वरूप कृषितंत्र पर वर्चस्व स्थापित हो गया है। इस न्यायहीन दमनकारी वर्चस्व को केवल सशस्त्र क्रांति से ही समाप्त किया जा सकता है। 1967 में "नक्सलवादियों" ने कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों की एक अखिल भारतीय समन्वय समिति बनाई। इन विद्रोहियों ने औपचारिक तौर पर स्वयं को भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी से अलग कर लिया और सरकार के खिलाफ भूमिगत होकर सशस्त्र लड़ाई छेड़ दी। 1971 के आंतरिक विद्रोह (जिसके अगुआ सत्यनारायण सिंह थे) और मजूमदार की मृत्यु के बाद यह आंदोलन एकाधिक शाखाओं में विभक्त होकर कदाचित अपने लक्ष्य और विचारधारा से विचलित हो गया। कानू सान्याल से अपने आन्दोलन की यह दशा देखकर 23 मार्च 2010 को नक्सलबाड़ी गांव में ही खुद को फांसी पर लटकाकर जान दे दी थी। मरने से एक वर्ष पहले बीबीसी से बातचीत में सान्याल ने कहा था कि वो हिंसा की राजनीति का विरोध करते हैं। उन्होंने कहा था, ‘‘ हमारे हिंसक आंदोलन का कोई फल नहीं मिला, इसका कोई औचित्य नहीं है। ’’ 



नक्सलबाड़ी की क्रांति किसान-मजदूरों की चेतना का उद्घोष थी 



नक्सलबाड़ी की क्रांति पं.बंगाल के जमीदारों के खिलाफ थी। चूंकि तत्कालीन मुख्यमंत्री सिद्धार्थ शंकर रे जो कि खुद बड़े जमीदार थे के नेतृत्व वाली पं.बंगाल सरकार जमीदारों की पक्षधर थी। इसलिए इस लड़ाई को सरकार के खिलाफ घोषित कर दिया गया था। बहरहाल अपनी मौत से पहले कानू सान्याल ने हिंसक क्रांति को व्यर्थ व अनुपयोगी मान लिया था। नक्सलबाड़ी की क्रांति किसान-मजदूरों की चेतना का उद्घोष थी। नक्सलबाड़ी की क्रांति में खेतिहर महिलाएं भी शामिल थीं। जिन्होंने हंसिया,खुरपी,दरांती से सामंती गुन्डों का मुकाबला किया। अपने आरंभकाल में यह क्रांति अग्नि की भांति पवित्र व सोद्देश्य थी। इसके विचलन को स्वीकारते हुए ही कानू सान्याल ने आत्मघात किया।  



ये नक्सली नहीं माओवादी हैं 



सन् 2006 में एक पत्रिका की कवर स्टोरी के संदर्भ में मैनें कानूदा से बातचीत की थी। क्या ये नहीं मालूम कि कानू सान्याल और चारू मजूमदार का नक्सलवाद 77 की ज्योतिबसु सरकार के साथ ही मर गया था। जिस भूमिसुधार को लेकर और बंटाई जमीदारी के खिलाफ नक्सलबाड़ी के खेतिहर मजदूरों ने हंसिया और दंराती उठाई थी उसके मर्म को समझकर पं.बंगाल में व्यापक सुधार हुए, साम्यवादी सरकार के इतने दिनों तक टिके रहने के पीछे यही था। उस समय के नक्सलबाड़ी आन्दोलन के प्रायः सभी नेता मुख्यधारा की राजनीति में आ गए थे। चुनावों में हिस्सा भी लिया। मेरी दृष्टि में इन आदमखोर माओवादियों को नक्सली कहा जाना या उनकी श्रेणी में रखना उचित नहीं। वैसे बता दें कि आधिकारिक तौर पर भी ये नक्सली नहीं माओवादी हैं और सरकार भी मानती है कि ये राष्ट्र के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए हैं। जबकि नक्सलियों का कदम विशुद्ध रूप से सामंती शोषण के खिलाफ था। 



चीन की सत्ता गरीबों के शोषण के लिए दुनिया भर में बदनाम 



दरअसल पड़ोस के किसी भी देश को अस्थिर और आंतरिक विद्रोह की स्थिति उत्पन्न करना चीन की दीर्घकालिक रणनीति का हिस्सा है। विचारों के साथ अस्त्र-शस्त्र और हिंसक क्रांति का नारा समता मूलक समाज के लिए एक छलावा है। नागरिक अधिकारों को पांव तले रौंदने वाला चीन(वहां की सत्ता) स्वयं दुनिया भर में गरीबों के शोषण के लिए बदनाम है लेकिन वह तमाम उन देशों में ऐसे अपराधिक गिरोहों को फंड उपलब्ध कराता है ताकि सरहद पर लड़ने की बजाय वह उन्हें घर के भीतर ही अस्थिर कर सके। दुर्भाग्य यह कि देश का बड़ा तबका नकस्ली व माओवादी में इस बुनियादी भेद से अब तक अनजान है।


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