मैं फॉरेस्ट डिवीजन वेस्ट भोपाल की वर्किंग स्कीम तैयार कर रहा था। सभी रिकार्ड व नक्शे डीएफओ ऑफिस में ही उपलब्ध थे। इस काम के लिए मुझे अक्सर सीहोर से भोपाल जाकर डिवीजन ऑफिस से जानकारी, रिकार्ड व नक्शे जुटाने पड़ते थे। भोपाल जाने से पूर्व सीहोर में रेंजरों व अन्य कार्यालयीन कर्मियों को उस दिन क्या काम करना है, की जानकारी देकर भोपाल चला जाता था। शाम को वापस सीहोर आकर ऑफिस स्टॉफ को दिए गए। दिन भर किए गए कार्यों की जानकारी का अपडेट लेता था। मेरे ऑफिस में एक फॉरेस्ट रेंजर साधू सिंह को ट्रेनिंग पूर्ण करने के बाद पदस्थ किया गया था। वे मेहनती, व्यवहार कुशल व सक्षम अधिकारी थे। उनसे बातचीत कर के आनंद का अनुभव होता था। एक दिन साधू सिंह सहित अन्य कार्मिकों को सुबह काम के संबंध में जानकारी देकर भोपाल रवाना हो गया। जब शाम को वापस पहुंचा तो पाया कि उनको जो काम पूर्ण करने के निर्देश दिए गए थे, वे मेरे अनुसार पूर्ण नहीं किए गए थे। इस पर मैंने अपना असंतोष जताया और नाराजगी व्यक्त करते हुए कहा कि ‘साला’ दिया हुआ काम संतोषजनक ढंग से नहीं हुआ।
मेरे बर्ताव से अधीनस्थ को हुई आत्मग्लानि
अगले दिन फॉरेस्ट रेंजर साधू सिंह का एक लंबा हस्तलिखित पत्र मुझे अपनी टेबल पर रखा मिला। इस पत्र में साधू सिंह ने विस्तार से लिखा था कि मैंने ‘साला’ कह कर उन्हें गाली दी, जिसके कारण वे आहत हुए और स्वयं को कार्य करने में असमर्थ पा रहे हैं। मेरे बर्ताव से उनको आत्मग्लानि हो रही है। इस पत्र के मिलने के बाद मैं स्वयं सोचा में पड़ गया कि मैंने ‘साला’ शब्द का उपयोग कब और कैसे साधू सिंह के लिए कर दिया। पत्र पढ़ने के बाद मुझे अहसास हुआ कि मैं अनजाने में इस शब्द का प्रयोग धड़ल्ले से करता आ रहा हूं। मुझे पता ही नहीं चला कि यह शब्द मेरे वार्तालाप का अभिन्न हिस्सा व तकियाकलाम बन चुका था। संभवत: साधू सिंह को यह महसूस हुआ कि मैंने ‘साला’ शब्द उनको जानबूझ कर बोल कर उन्हें गाली दी। मैं व्यक्तिगत रूप से साधू सिंह को बहुत पसंद करता था और वे मेरे चहेते कार्मिक थे इसलिए मुझे अफसोस हुआ। मेरे ‘साला’ कहने से वे आहत हुए। मैंने उन्हें बुलाकर समझाया कि मेरा आशय उनको गाली देना नहीं था, बल्कि यह शब्द अनजाने में ही मेरे मुंह से निकल जाता है। इस पर वे ध्यान न दें और इसे नज़र अंदाज़ करें। मेरी बात सुन कर वे किसी प्रकार संतुष्ट हुए। उस घटना को कई वर्ष बीत गए लेकिन आज भी वार्तालाप में ‘साला’ शब्द का त्याग नहीं कर पाया हूं। आज भी यह शब्द अनजाने में निकल आता है। इस पर मेरा वश नहीं चल पाता। एक बार लाल रंग तरबूज खाने को दिया गया। जैसे ही मैंने तरबूज खाया मेरे मुंह से निकला ‘साला’ बहुत मीठा है।
बीला खेड़ा, मोगरा खेड़ा व भूरा खेड़ा के घने सागौन जंगल
फॉरेस्ट महकमे में वर्किंग स्मीम का फील्ड वर्क करते हुए मुझे कुछ अच्छे व सुंदर जंगलों को देखने का मौका मिला। लाडकुई रेंज़ में तीन वन ग्राम बीला खेड़ा, मोगरा खेड़ा व भूरा खेड़ा के जंगल क्षेत्रों का जब हम लोग मैपिंग करने पहुंचे तो वहां के सागौन जंगल को देख कर हम लोग आनंद से भर गए। वन ग्रामवासियों ने आसपास के जंगलों की सुरक्षा व देखरेख पर विशेष ध्यान दे कर उस क्षेत्र के जंगलों को बचाए रखा था। ग्रामवासियों की मेहनत से सागौन के परिपक्व अवस्था के ऊंचे-ऊंचे पेड़ बड़ी संख्या में देखने को मिले। वन ग्राम के निवासी सरल व मेहनती होने के साथ सहयोगी स्वभाव के थे। हमारी टीम को गांव वाले पूरे समय सहायता देने के लिए तत्पर रहते थे। उन लोगों की सहायता के कारण हम लोगों को अपना काम करने में कभी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा।
ग्रामीणों ने बचाए रखे जंगल और वन्य प्राणी
नसरूल्लागंज के पास लाडकुई रेंज का सेमल पानी ब्लॉक का जंगल भी अनूठा है। यह छोटा सा वन क्षेत्र था, जो चारों ओर कृषि भूमि से घिरा हुआ था। यहां उपजाऊ भूमि होने से बहुत अच्छी श्रेणी का घना सागौन जंगल देखने को मिलता था। यहां न केवल ऊंचे-ऊंचे सागौन के परिपक्व अवस्था के पेड़ थे बल्कि विभिन्न आयु के पेड़ भी अच्छी मात्रा में उपलब्ध थे। यह बड़े पेड़ों का स्थान आसानी से ले लेते थे। इन जंगल में चीतलों का एक झुंड भी विचरण करते हुए अनायास ही अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर आंखों से ओझल हो जाता था।
बहुतायत में थे चीतल
चीतलों की वहां उपस्थिति दर्शाती थी कि यहां के ग्रामीणों ने न केवल इस क्षेत्र में वन और विचरण कर रहे वन्य प्राणियों को भी संरक्षण देकर बचाए रखा था। फॉरेस्ट रेस्ट हाउस देलावाड़ी के आसपास घना जंगल क्षेत्र था। यहां ऊंचे सागौन व बरगद आदि के पेड़ बड़ी संख्या में देखने को मिलते थे। पहाड़ी क्षेत्र होने के कारण कल-कल ध्वनि करते बहते हुए नाले व झरने और बरगद की हवा में लटकती हुई मोटी-मोटी जड़ें बरबस ही आगुंतक का मन मोह लेती थी। वातावरण इतना शांत था कि चिड़ियों की चहचहाहट और बहते हुए नालों व झरनों की ध्वनि के अलावा कोई अन्य आवाज़ सुनाई नहीं देती थी। किसी भी व्यक्ति का इस वातावरण में आते ही मन शांति से भर जाता था। कुछ समय बिताने के बाद शरीर व मस्तिष्क की थकान दूर हो कर नई ऊर्जा का संचार हो जाता था।
उस समय भीमबैठिका को नहीं मिली थी प्रसिद्धि
देलावाड़ी और रेहटी के मध्य पहाड़ी के ऊपर सलकनपुर वाली देवी का प्रसिद्ध मंदिर घने जंगल के बीच स्थित है। इसके पास में ही एक दर्शनीय पुराना खंडहर किला भी है। औबेदुल्लागंज के पास भीमबैठिका भी एक दर्शनीय स्थल है। यहां पाषाण युग की बड़ी-बड़ी चट्टानों पर पुरानी कलाकृतियां देखने को मिलती है। जब हम लोगों ने मैपिंग की तो उस समय तक भीमबैठिका क्षेत्र को पर्याप्त प्रसिद्धि नहीं मिली थी। फॉरेस्ट रेस्ट हाउस देलावाड़ी के पास ही एक गोसाधान था। यहां बूढ़े व बेकार हो चुके ऐसे पशुओं को रखा जाता था जिनकी लोगों के लिए उपयोगिता खत्म हो चुकी होती थी और जिन्हें लावारिस अवस्था में छोड़ दिया जाता था। गोसाधान का संचालन पशुपालन विभाग द्वारा किया जाता था।
बुधनी-मिडघाट वन्य प्राणियों के विचरण का उपयुक्त क्षेत्र
बुधनी व मिडघाट के आसपास स्थित जंगल का मैपिंग करते वक्त हमारी टीम को जानकारी मिली कि यह क्षेत्र वन्य प्राणियों के स्वाभाविक रूप से विचरण करने के लिए अत्यंत उपयुक्त क्षेत्र था। विंध्याचल पर्वत श्रेणी के ऊंचे-ऊंचे पहाड़ दूर से ही दिखाई देते थे। वर्षा ऋतु में यहां नदी-नालों में स्वच्छ पानी बहता और कई स्थानों पर चट्टानों पर बहता हुआ पानी राहगीरों को पास आने और स्नान के लिए आकर्षित करता। चारों ओर हरियाली के साथ ही कई स्थानों पर छोटे-छोटे जल प्रपात दिखाई देते। इन प्रकृति दृश्यों को देखने उस समय भी लोग अक्सर यहां आते थे।
बुधनी के जंगल की आग और भोपाल डीएफओ का टेंशन
बुधनी के पास स्थित विंध्याचल श्रेणी के ऊंचे पहाड़ों के जंगलों में लगी हुई आग नर्मदा नदी के किनारे बने हुए होशंगाबाद के फॉरेस्ट कंजरवेटर के बंगले से दिखाई देती थी। फॉरेस्ट कंजरवेटर होशंगाबाद के अधीन ही डीएफओ भोपाल वेस्ट के कार्य क्षेत्र में ही ये जंगल आते थे। डीएफओ का ऑफिस भोपाल में था। पहाड़ी जंगल में जब भी आग लगती, तब कंजरवेटर तत्काल डीएफओ भोपाल को फोन से इतला देते थे कि बुधनी के जंगलों में आग लगी हुई है। इस आग पर तत्काल काबू पाने के निर्देश फोन पर दिए जाते थे। उस समय के डीएफओ भोपाल वेस्ट फायर सीजन यानी कि मई-जून माह में टेंशन में रहते थे। उन्हें डर सताता रहता था कि यदि बुधनी में जंगलों में आग लगी तो कंजरवेटर होशंगाबाद का तत्काल फोन पर संदेश मिलेगा।
समरधा के जंगल में एनरिचमेंट प्लांटेंशन का प्रयोग
समरधा फॉरेस्ट रेस्ट हाउस पहाड़ों की ढलान पर फैले हुए घने जंगलों के नीचे अत्यंत शांत वातावरण में स्थित था। यहां चारों ओर हरियाली व हरे भरे जंगलों का आनंद उठाया जा सकता है। भोपाल-रायसेन पक्के मार्ग के बांयी ओर लगभग दस-पन्द्रह किलोमीटर की दूरी पर जंगल के कच्चे रास्ते से यहां पहुंचा जा सकता है। इस जंगल मार्ग के दोनों ओर मिसलेनियस फॉरेस्ट पाया जाता है। तत्कालीन चीफ फॉरेस्ट कंजरवेटर केपी सागरिया ने इसी जंगल मार्ग के किनारे एनरिचमेंट प्लांटेंशन लगाने का प्रयोग किया था।
सागौन का पौधारोपण किया गया
इस प्रयोग में 10 मीटर लंबाई क्षेत्र में मिसलेनियस फॉरेस्ट छोड़ा गया और अगले 10 मीटर में क्लियर फैलिंग कर सागौन का पौधारोपण किया गया। इसके बाद पुन: 10 मीटर मिसलेनियस फॉरेस्ट छोड़ा गया और अगले 10 मीटर में क्लियर फैलिंग कर सागौन का पौधारोपण किया गया। यह सिलसिला काफ़ी दूर तक अपनाया गया। इस तरह के पौधारोपण करने का यही उद्देश्य यही था कि जंगलों की वैल्यू बढ़ जाए और पर्यावरण से कम से कम छेड़छाड़ की जाए। शुद्ध रूप से सागौन के पौधारोपण तैयार करने में पर्यावरण से अधिक छेड़छाड़ होती है और प्योर क्रॉप होने के कारण बीमारियां व कीड़ों आदि का प्रकोप पूरे पौधारोपण क्षेत्र में तीव्रता से फैलने की संभावना बनी रहती है। मुझे इन क्षेत्रों का दौरा व निरीक्षण करने का मौका नहीं मिला, इसलिए यह कहना मुश्किल है कि यह प्रयोग कहां तक सफल हुआ।
कोलार ब्लॉक का नामकरण
जंगलों के निरीक्षण के दौरान हम लोगों को झालपीपली, लवाखेड़ी, चारमंडली आदि स्थानों का भ्रमण कर कोलार नदी के किनारे स्थित जंगलों की मैपिंग करने का मौका भी मिला। कोलार नदी के आसपास सागौन के बहुमूल्य व बहुत अच्छी श्रेणी के जंगल देखने को मिले। सर्वे के उपरांत कोलार नदी के किनारे स्थित जंगल क्षेत्र का ब्लॉक तैयार किया गया, जिसका नाम भी हम लोगों ने कोलार ब्लॉक ही रखा। वैसे भोपाल में नवाबों का शासन रहा। जब भोपाल स्टेट का विलय नए मध्यप्रदेश में हुआ तो भोपाल के आसपास के शहर या कस्बों के नाम नवाब खानदान के लोगों के नाम पर रखे गए। जैसे हबीबगंज, नसरूल्लागंज, ओबेदुल्लागंज, गैरतगंज, बेगमगंज, सिद्दीकगंज, नासीराबाद, हमीदिया रोड, जहांगीराबाद, शाहजहांनाबाद, सुल्तानिया लायंस, ऐशबाग, बाग मुगलिया।
(लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं)