जातीय राजनीति से हिंदुत्व हो रहा 'कमजोर'

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The Sootr CG
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जातीय राजनीति से हिंदुत्व हो रहा 'कमजोर'

सरयूसुत मिश्र. देश में जातीय राजनीति का जहर कम होने की बजाय बढ़ता ही दिखाई पड़ रहा है। सबसे दुखद बात यह है कि राजनीतिक दल जातिवाद को बढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद आक्रामक जातीय राजनीति हिंदू एकता को कमजोर कर रही है। हिंदू राष्ट्रवाद के लिए समर्पित आरएसएस जरूर ऐसा महसूस कर रहा होगा कि जातीय राजनीति के कारण हिंदू एकीकरण प्रभावित हो रहा है। हिन्दू राष्ट्रवाद की परिकल्पना में मुस्लिम, बौद्ध सहित अन्य सभी समाजों का एकीकरण शामिल है।  





कोई भी राजनीतिक दल जातीय दलदल से मुक्त नहीं है। जातीय ध्रुवीकरण के लिए राजनीतिक दल ऐसे ऐसे प्रयास करते हैं, जिससे समाज की एकता प्रभावित होती है। ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जहां जातीय राजनीति का प्रवेश ना हो गया हो। यहां तक कि आपराधिक घटनाओं को भी जातीय नजरिए से देख कर आवाज उठाई जाती है। जातीयता पर सामाजिक सौहार्द की बली चढ़ाने से भी लोग नहीं चूकते हैं।





देश के संविधान के अंतर्गत शोषित, पीड़ित और गरीब वर्गों को वरीयता देना गलत नहीं है। लेकिन इसका आक्रामक प्रचार, जातीयता की भावना से समाज में विभेद को बढ़ाता है। अभी हाल ही में पंचायतों और नगरीय निकायों में ओबीसी आरक्षण को लेकर ऐसा माहौल बनाया गया, जैसे अगर यह रिजर्वेशन नहीं मिलेगा, तो प्रदेश और समाज का बड़ा नुकसान हो जाएगा। 





ओबीसी को मिला क्या? इस पर कई सवाल हैं। लेकिन जातीय अभिनंदन पहला लक्ष्य है, इसे ज़रूर पूरा किया गया। सरकारों की ओर से जातियों के सम्मेलन और अभिनंदन से क्या समाज में एकता बढ़ रही है? जातिवाद में सिरमौर उत्तर प्रदेश में तो जातीय सम्मेलनों पर प्रतिबंध लगा हुआ है। यह प्रतिबंध क्या सभी राज्यों में नहीं होना चाहिए?





हिंदू समुदाय में जातियों को निजी स्वार्थों के लिए उभारा जाता है। जातियों पर राजनीति और सरकारों द्वारा जातियों को बढ़ावा, हिंदू राष्ट्रवाद की कल्पना को साकार करने की दिशा में, बड़ी बाधा प्रतीत हो रहा है। सदियों के संघर्ष से आज हिन्दू एकीकरण को एक मुकाम मिला है। जातीय राजनीति को नहीं रोका गया तो ये सारा संघर्ष विफल होने का खतरा बढ़ जायेगा। 





विधानसभा के 2018 के चुनाव में जातीय संघर्ष और “माई का लाल” डायलॉग प्रमुख मुद्दे के रूप में चर्चा में आए थे। एससी एसटी एक्ट के कारण समाज में खाई गहरी हुई थी। इस एक्ट में संशोधन के कारण मध्य प्रदेश के ग्वालियर चंबल इलाके में तो आंदोलन भड़क गया था। पहले दलित नाराज हुए तो सरकार सुप्रीम कोर्ट के फैसले से निपटने के लिए अध्यादेश लाई। जिसके बाद सामान्य वर्ग नाराज हो गए, उन्हें लगा कि वोटों के लिए तत्कालीन सरकार उनके अधिकारों का हनन कर रही है। फिर उन्होंने भी जबरदस्त आंदोलन छेड़ दिया। जातीय संघर्ष में 7 लोग मारे गए।





सवर्णों में गुस्सा इतना ज्यादा बढ़ा कि उन्होंने अपनी सपाक्स पार्टी बनाई। भले ही इस पार्टी को कोई राजनीतिक सफलता नहीं मिली हो, लेकिन सामाजिक सौहार्द तो इन सब बातों से बिगड़ा ही है। बीजेपी को 2018 में मिली पराजय के लिए जातीय संघर्ष को भी एक कारण माना गया। जातिवाद की राजनीति किसी को फायदा नहीं पहुंचाती, राजनीति में सब कुछ गोलमाल हो जाता है।





राजनेताओं ने जातिवाद को खत्म करने के लिए भले ही कभी कोई प्रयास नहीं किया हो, लेकिन वे चुनावी लाभ के लिए जातिवाद को रंग देकर जातिभेद को गहरा करने का काम जरूर कर रहे हैं। जातिवाद की  इस घृणित राजनीति के जरिए हम दलित ओबीसी और सवर्णों को एक दूसरे के सामने दुश्मन की तरह खड़ा करने का प्रयास कर रहे हैं। राजनीतिक लाभ के लिए सामाजिक समरसता को बिगाड़ने का इतना उतावलापन समझ से परे है।





राजनेताओं और बुद्धिजीवियों को राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए समाज में विभेद की खाई को गहरा करने के षड्यन्त्र से बचना चाहिए। सभी को संभल कर जातिवाद पर लिखना, बोलना और राजनीति करना चाहिए। देश में कई स्थानों पर जातियों के आधार पर मॉब लिंचिंग की घटनाएं हुई हैं। अभी हाल ही में नीमच में एक बुजुर्ग को जाति की गलतफहमी में मार दिया गया। सिवनी जिले में दो आदिवासियों की गोकशी के संदेह में भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई।





ऐसी घटनाओं के समय भीड़ तन्त्र में शामिल किसी के भीतर का इंसान नहीं जागता। सभ्य समाज के लिए इस तरह की घटनाएं बहुत बड़े सवाल हैं। इनका जवाब खोजना अनिवार्यता बन गई है। भीड़ तंत्र द्वारा न्याय के नाम पर लोगों में बढ़ रहा मनोरोग का इलाज नहीं किया गया तो संकट और गहरा सकता है। आखिर लोगों में किसी इंसान के खिलाफ इतना गुस्सा किस लिए है। एक इंसान में दूसरे इंसान के लिए इतनी नफरत कहां से आती है? ऐंसी घटनाएं हमें बताती हैं कि हमारा समाज किस दिशा में जा रहा है। हम किस तरह का समाज रच रहे हैं। हमारी संवेदनाएं क्या मर गई हैं? 





आरएसएस ने हिंदू राष्ट्रवाद के लिए आजादी के पहले से संघर्ष शुरू किया था। बहुत लंबे संघर्ष के बाद भारत में हिंदुओं का एकीकरण का स्वरूप  सामने आया है। हिंदुत्व और हिंदू एकता आज उस मुकाम पर पहुंच गई है, जहां अगर यह मजबूती से चलती रही तो भारत का स्वरूप नया होगा।





हिंदू एकीकरण से एक तबका परेशान हो रहा है। जातीय राजनीति को हिंदुत्व के तोड़ के रूप में उभारने की कोशिश सियासी दलों द्वारा की जा रही है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जातीय जनगणना के लिए अड़े हुए हैं। इसके पीछे उनकी कोई प्रगतिशील सोच है ऐसा नहीं लगता। जातिगत  जनगणना उन्हें चुनावी लाभ का सौदा लग रही है। समाज की एकता जातीय विखंडन से कमजोर हो रही है। भारत इसी कमजोरी के कारण सदियों गुलाम रहा। आज जातीयता नहीं भारतीयता को बढ़ाने की जरूरत है। जातीयता का दंश समाज में धीरे-धीरे कम हो रहा है, लेकिन उसे उभार कर अपना स्वार्थ साधने में राजनीतिक दलों की नकारात्मक भूमिका दिखाई पड़ती है। जातिगत विखंडन से ना केवल हिन्दू एकता मजबूत होगी बल्कि देश के दुसरे समुदाय और मत पन्थ समाज के बीच में भी एकता का नया दौर आ सकता है। 





देश के सुप्रसिद्ध कवि रामधारी सिंह दिनकर की एक कविता जातीय राजनीति पर बहुत मौजू है-  





"मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,





धनुष छोड़कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?





पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,





'जाति - जाति' का शोर मचाते केवल कायर, क्रूर।"



 



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