आलोक मेहता। एक बार फिर मुंबई और दिल्ली ही नहीं, सुदूर बेंगलुरु तक कोरोना और उसके नए रूप पर तनाव के घने बादल हैं। मेरे परिजनों, मित्रों के सन्देश देश के दूर दराज हिस्सों के साथ ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिका से भी आ रहे हैं। विदेश में बैठे परिजन तो और अधिक विचलित हैं, क्योंकि उन्हें केवल भयानक सूचनाएं ही मिल रही हैं। कोई बचाव स्पष्टीकरण नहीं सुना जा सकता। यह महायुद्ध सरकार के साथ सम्पूर्ण भारतीय समाज के लिए है।
देश के गांवों की हालत अब भी बदतर
हफ़्तों से घर में बंद होने से पुरानी बातें भी याद आती हैं। बहुत छोटे से गांव में जन्म हुआ। फिर शिक्षक पिता जिन गांवों में रहे, वहां अस्पताल, डॉक्टर तो दूर सड़क तक नहीं थी। इसलिए छह सात साल तक कोई टीका नहीं लगा। चिंतामन जवासिया (उज्जैन) स्कूल के नाम पर जो डेढ़ कमरे थे। रात को उसी में खाट लगाकर सोते रहे। न शौचालय था न स्नान गृह। लाल दवाई डले कुंए का पानी पीकर बाल्टी लोटे से नहाना हुआ। शिक्षक रहते हुए भी आरएमपी ( रजिस्टर्ड मेडिकल प्रैक्टिसनर) की परीक्षा- प्रशिक्षण लेकर पिताजी छोटी— मोटी बीमारी, बुखार आदि की दवाइयां इंजेक्शन जरूरत पड़ने पर उस या आसपास के गांवों के लोगों को दे देते थे। आठ वर्ष की आयु के बाद उससे बड़े गांव उन्हेल में रहे और बारह वर्ष की आयु में क़स्बा शहर उज्जैन आना हो पाया। साठ साल में वे गांव तो बदल गए हैं, लेकिन मुझे अपनी यात्राओं से पता है अब भी देश के अनेक गांवों की हालत कमोबेश वैसी ही है। इसलिए मुझे लगता है कि इस संकट काल में उन सैकड़ों गांवों के लिए बचाव को भी प्राथमिकता से अलग अभियान चलना जरूरी है।
गुटबाजी की जगह देश का सामूहिक हित देखें
क्षमा करेंगे इस बार मुझे कुछ निजी बातों की चर्चा कर समस्याओं पर लिखना पड़ रहा है। सरकारों की कमियों, गड़बड़ियों, राजनेताओं की बयानबाजी, आरोप प्रत्यारोपों से हम ही नहीं सामान्य जनता बहुत दुखी होती है। कोरोना के परीक्षण और टीकों को लेकर भी घमासान छिड़ गया। सवा सौ करोड़ को वेक्सीन के टीके लगाए जाने के बावजूद राहुल गांधी और उनके कुछ सहयोगी कमियां गिनाने में लगे हैं। अभी सबको दूसरा डोज नहीं मिला या आंकड़े फर्जी हैं या बच्चों को जल्दी से जल्दी टीका क्यों नहीं लगाया, जैसे आरोप लगा रहे हैं। वे यह क्यों भूल जाते हैं कि महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और पंजाब में कांग्रेस की ही सरकारें हैं। क्या उन्होंने ढिलाई बरती है? क्या बघेल, गहलोत और ठाकरे फर्जी आंकड़े दे रहे हैं? मासूम बच्चों को स्वास्थ्य विशेषज्ञों की सलाह और पूरी तैयारी के बिना टीका देना सही होता? दिल्ली की केजरीवाल सरकार और उनकी पार्टी दिन रात केंद्र सरकार और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी से समुचित सहायता नहीं मिलने का आरोप लगाते हैं और तीसरी लहर से बचाव के लिए वीकेंड कर्फ्यू और अपने अस्पतालों के इंतजाम के प्रचार पर दिल्ली से अधिक अन्य राज्यों तक करोड़ों रुपया बहा रही है। जबकि केजरीवाल मार्का मोहल्ला क्लिनिक में जहरीली दवाई देने से सोलह बच्चे बुरी हालत में पहुंचे और चार की मृत्यु तक हो गई। मतलब क्या यह अपना राग अलापने और दूसरों को नाकारा बताने का वक्त है? क्या सत्तारूढ़ भाजपा या कांग्रेस अथवा अन्य पार्टियों के कार्यकर्ता टीका लगवाने के अभियान में घर— घर जाने में सहयोग नहीं कर सकते? दिल्ली में सभी वयस्कों को टीका लगाने का दावा सही नहीं है। कई शिक्षित लोग भी अब तक टीका लगाने को तैयार नहीं हैं, जिन्हें हम जैसे पत्रकार जानते हैं।
कोरोना में सभी को एक मंच पर आने की जरूरत
फ्रांस में भी कुछ महीने बाद चुनाव हैं। ब्रिटेन और अमेरिका में सत्तारूढ़ और प्रतिपक्ष में भी कोरोना संकट से निपटने के तरीकों को लेकर मतभेद हैं। कोई कठोर कदमों के पक्ष में है, तो कोई आर्थिक संकट गंभीर होने से बचाव के लिए केवल सतर्कता और समुचित चिकित्सा व्यवस्था के पक्षधर हैं। लेकिन वहां डॉक्टरों और अपनी सेनाओं पर पूरा विश्वास रखा जाता है। भारत में इन दिनों विरोध के चक्कर में डॉक्टरों की रिपोर्ट या सीमा पर सेनाओं द्वारा की जा रही सुरक्षा के दावों को भी गलत बताने का सिलसिला चल रहा है। पाकिस्तान की आतंकवादी घुसपैठ तक को अपनी प्रायोजित बताना या चीन द्वारा भारत की सीमाओं में घुस जाने- झंडे फहराने के झूठे वीडियो को सही मानकर सरकार और सेना पर अविश्वास दिखाना लोकतान्त्रिक अधिकारों का दुरुपयोग ही कहा जा सकता है। अब पांच राज्यों के विधानसभाओं के चुनाव भी अगले तीन महीनों में संपन्न होने वाले हैं। महामारी की तीसरी लहर के बावजूद कोई पार्टी चुनाव स्थगन के पक्ष में नहीं हैं। चुनाव आयोग के लिए दोनों तरह से मुश्किल है- स्थगन या सही समय पर होने के निर्णय के बाद महामारी के असर के लिए उसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। यही नहीं केंद्र सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का साथ देने का आरोप तो विपक्ष लगा ही रहा है। बहरहाल, जो भी निर्णय हो चुनाव अभियान का उपयोग गांवों कस्बों में सही जानकारियां देने, लोगों को टीका लगवाने में सहयोग, प्रभावित लोगों को इलाज में मदद और स्वास्थ्यकर्मियों को अधिकाधिक सहायता करने में सभी दलों के लोग क्यों नहीं कर सकते? जिस तरह टीवी बहस के लिए एक मंच पर बैठ सकते हैं, तो चुनावी सभा एक ही मंच पर क्यों नहीं कर सकते? आख़िरकार भीड़ तो उसी इलाके के मतदाताओं की होती है। जिसकी बात और सेवा के काम और भविष्य के वेदों पर भरोसा होगा, लोग उसे वोट दे देंगे। महात्मा गांधी का नाम हर पार्टी जपती है, तो उनके सेवा और परस्पर सम्मान के आदर्शों का पालन करते हुए सुदूर गांवों तक स्वस्थ भारत के लिए चुनाव अभियान का उपयोग क्यों नहीं कर सकते हैं? ( लेखक आई टी वी नेटवर्क - इंडिया न्यूज़ और आज समाज दैनिक के सम्पादकीय निदेशक हैं)