पंकज स्वामी. हरिशंकर परसाई (Hari Shankar Parsai)स्वतंत्रता के बाद भारत की ट्रेजेडी के चितेरे हैं। उनका रचना संसार समुद्र की तरह है। परसाई के पास जो दृष्टिकोण है, उसकी सामयिकता भी बहुत दूर तक जाती है। हरिशंकर परसाई के अपने संघर्षों को लेकर उनके अपने विश्वास थे। जो उनके अपने जीवन के आगे बढ़ते-बढ़ते दृढ़ से दृढ़तर होते चले गए। उनका आत्म कथ्य है-हंसना-हंसाना, विनोद करना अच्छी बातें होते हुए भी, उन्होंने मनोरंजन के लिए कभी नहीं लिखा। उनकी रचनाएं पढ़कर हंसी आना स्वाभाविक है। ये उनका यथेष्ट नहीं। वे और चीजों की तरह व्यंग्य को उपहास, मखौल न मान कर एक गंभीर चीज मानते थे।
उनका विश्वास था कि साहित्य के मूल्य, जीवन मूल्यों से बनते हैं
उनका मानना था कि जीवन जैसा है, उससे बेहतर होना चाहिए। जिन रचनाकारों की या किसी प्रबुद्ध नागरिक की यदि इस घटाटोप समय में संवेदना और विवेक खंडित नहीं हैं तो वह अच्छी तरह जानता है कि इस सियाह रात का अभी अंत नहीं हुआ है। अपनी दुनिया को पाने के लिए मीलों दूर जाना है। हरिशंकर परसाई इस राह पर आजीवन चलते रहे। किशोरावस्था से ही उनके जीवन में दुखों ने अपना घेरा इस तरह बनाया कि वे लंबे समय तक उससे लड़ते रहे। संभवतः आयु की उस सक्रांति के वक्त ही उनके अंदर एक बड़े रचनाकार ने जन्म लिया। परसाई व्यंग्य के विचारक हैं। अप संस्कृति के स्त्रोतों पर परसाई निरंतर व्यंग्य करते हैं, अपराजित उत्साह के साथ। उनकी रचनाएं स्वातंत्रोत्तर भारत का चेहरा है।
सीधी-साफ दो टूक भाषा लिखने की प्रेरणा रामेश्वर प्रसाद गुरू ने दी
परसाई के लेखन की विशेषता पैनी कलम, सीधी और साफ दो टूक भाषा, भाषा का चुटीलापन रही है। उन्होंने जब लेखन शुरू किया तो समकालीनता उनके खिलाफ थी, लेकिन धीरे-धीरे उनको स्वीकार किया गया। मुक्तिबोध ने परसाई का साथ दिया, पर वह गहरा आलोचकीय साथ नहीं था। ऐसा माना जाता है कि जबलपुर के भवानी प्रसाद तिवारी, रामेश्वर प्रसाद गुरू और रामानुज लाल श्रीवास्तव ऊंट की त्रयी ने हरिशंकर परसाई के विचारों और अभिव्यक्ति को धार दी थी। भवानी प्रसाद तिवारी ने परसाई को समाजवादी विचारधारा की ओर प्रेरित किया, सीधी और साफ दो टूक भाषा लिखने की प्रेरणा रामेश्वर प्रसाद गुरू ने दी और ऊंट साहब ने परसाई की चुहल और व्यंग्य को पैना किया। परसाई में जो बांकपन था, गंभीर से गंभीर बात को हल्के फुल्के अंदाज में कह सकने का जो तरीका और व्यंग्यों की पठनीयता का तत्व है, वह रामानुज लाल श्रीवास्तव ऊंट की देन थी। हरिशंकर परसाई का भवानी प्रसाद तिवारी, रामेश्वर प्रसाद गुरू और रामानुज लाल श्रीवास्तव ऊंट के साथ गहरा सानिध्य था।
परसाई हर दिन सुबह-शाम जाते थे भवानी प्रसाद तिवारी के घर
भवानी प्रसाद तिवारी विख्यात स्वाधीनता सेनानी थे। उन्होंने ‘प्रहरी’ जैसे लोकप्रिय साप्ताहिक पत्र का संपादन किया। भवानी प्रसाद तिवारी 7 बार महापौर और 2 बार राज्य सभा सदस्य बने। उन्होंने नोबल पुरस्कार से सम्मानित रवींद्रनाथ ठाकुर की ‘गीतांजलि’ का अनुगायन कर प्रसिद्धि पाई थी। परसाई लगभग प्रतिदिन सुबह-शाम भवानी प्रसाद तिवारी के घर जाते थे। भवानी प्रसाद तिवारी के घर के पास एक पान की दुकान उनके बैठने का ठिकाना होती थी। इसी पान की दुकान में परसाई को अपने व्यंग्य के कई पात्र मिले हैं। परसाई कई बार वहां बैठे-बैठे माचिस या सिगरेट के खोखे में अपने नोट्स लिख लिया करते थे।
रामेश्वर प्रसाद गुरू ने भवानी प्रसाद तिवारी के साथ मिलकर प्रहरी साप्ताहिक समाचार पत्र निकाला था। जबलपुर के क्राइस्ट चर्च स्कूल में शिक्षक रहे रामेश्वर प्रसाद गुरू जबलपुर के महापौर भी रहे। दोनों दायित्व संभालने के दौरान रामेश्वर प्रसाद गुरू घर से स्कूल साइकिल से जाते थे और स्कूल से वापस आने के बाद जब वे नगर निगम में महापौर की कुर्सी में बैठते थे, तब ही महापौर के रूप में सरकारी कार का उपयोग किया करते थे। कई बार उनसे कार का उपयोग करने को कहा गया लेकिन उन्होंने स्पष्टत: इंकार कर दिया।
रामानुज लाल श्रीवास्तव ने ‘प्रेमा’ नाम की पत्रिका निकाली थी
रामानुज लाल श्रीवास्तव का कद सवा 6 फुट से अधिक था, इसलिए उन्होंने अपना तखल्लुस ‘ऊंट’ रखा था। वे कोरिया (छत्तीसगढ़) के राजा रामानुज प्रताप सिंह देव के पर्सनल सेक्रेटरी थे। जबलपुर के इंडियन प्रेस के मैनेजर तो थे ही, साथ ही हिंदी और उर्दू में कविताएं लिखते थे। उन्होंने हिंदी में शिकार की पहली कहानियां लिखीं-जंगल की कहानियां नाम से। 1930 में रामानुज लाल श्रीवास्तव ने ‘प्रेमा’ नाम की एक साहित्यिक मासिक पत्रिका निकाली थी। अपने समय की इस शीर्ष पत्रिका की देन रही ‘हालावाद’। हरिवंश राय बच्चन की पहली कविता और सुभद्रा कुमारी चौहान की पहली कहानी ‘सोने की कंठी’ छापने का श्रेय ‘प्रेमा’ को ही है। केशव प्रसाद पाठक इस पत्रिका के सितारा कवि थे। रामानुज लाल श्रीवास्तव ‘ऊंट’ ने ‘प्रेमा’ के माध्यम से अतिथि संपादक की परम्परा डाली थी। ऊंट साहब की इच्छा थी कि ‘प्रेमा’ के 9 रसों के विशेषांक निकाले जाएं। ’प्रेमा’ ज्यादा दिनों तक प्रकाशित नहीं हो पाई और तीन साल में यह बंद हो गई। हिंदी पत्र-पत्रिकाओं के इतिहास में ‘प्रेमा’ आज भी मील का पत्थर मानी जाती है।