वह ऐसा समय था जब वन्य प्राणी संरक्षण पर कोई विशेष ध्यान नहीं दिया गया। पूरा फॉरेस्ट डिवीजन कई शूटिंग ब्लॉक्स में बंटा रहता था। शूटिंग ब्लॉक में शिकार के लिए डीएफओ द्वारा गेम परमिट जारी किए जाते थे। इस परमिट में अवधि दर्शाने के साथ ही शिकार किए जाने वाले वन्य प्राणियों की संख्या का भी ब्यौरा रहता था। यह काम डीएफओ का कैंप क्लर्क करता था। साधारणतः एक परमिट पर एक बाघ या एक पेंथर, एक सांभर या दो चीतल आदि का शिकार के लिए शिकार करने वालों को अधिकृत किया जाता था। शिकार करने वाले व्यक्ति को फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में ठहरने की अनुमति भी दी जाती थी।
मैं जब रेंज के चार्ज में था, तब उत्तरप्रदेश के एक जमींदार शिकार करने बालाघाट आए। जमींदार जबलपुर के फॉरेस्ट कंजरवेटर एसए कार्नेलियस का एक सिफारिशी पत्र मेरे नाम का साथ ले कर आए। बालाघाट रेंज जबलपुर के अधीन आता था। जमींदार ने बालाघाट रेंज का प्रसिद्ध खारा ब्लॉक शिकार के लिए आरक्षित करवाया था। वे खारा फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में ठहर कर प्रकृति का आनंद लेने के साथ ही शिकार कर रहे थे। उन्हें रेस्ट हाउस के दो कमरे दिए गए, जिसके कारण मैं जब भी खारा दौरे पर जाता तो रेस्ट हाउस में मुझे कोई कमरा खाली नहीं मिल पाता। इस दौरान बालाघाट रेलवे स्टेशन पर कई बार देखता कि लोहे के बड़े पिंजरों में बंदरों के कई छोटे असहाय बच्चे भरे हुए दिखाई देते। उस समय उन्हें पकड़ने पर कोई रोक टोक नहीं थी। इन बंदरों को संभवतः विभिन्न प्रकार के प्रयोग करने के लिए ट्रेन से ले जाया करता था। बंदरों के बच्चों को इस प्रकार बालाघाट से बाहर भेजने सिलसिला कई सालों तक चलता रहा।
इस अधिकारी को कर्मचारी मानते थे अन्नदाता
प्रत्येक माह के प्रथम सप्ताह में रेंज ऑफिस में उत्सव जैसा माहौल रहता था। इस दिन रेंज के सभी फॉरेस्ट गॉर्ड व अन्य कर्मचारी यूनीफार्म पहन कर अपना वेतन लेने आते थे। उस समय रेंज आफिसर अपने हाथों से कर्मचारियों को वेतन देता था, जिसके बाद सभी कर्मचारी उस रेंज आफिसर को सैल्यूट करते थे। कर्मचारी रेंज ऑफिसर को अन्नदाता समझते थे। वेतन बांटते वक्त रेंज आफिसर कर्मचारियों से उनके क्षेत्र के संबंध में जानकारी लेता था और यदि कोई समस्या होती तो उसका समाधान निकालने का प्रयास किया जाता था। इस दौरान मुझे आफिस में देर रात तक इसलिए काम करना पड़ा, क्योंकि कई रजिस्टरों में पोस्टिंग महीनों से नहीं की गई थी। जितने भी रजिस्टर रेंज आफिस में रखे जाते हैं, उनमें से अधिकांश को पोस्ट करने का आधार केश बुक होती है। कुछ समय पश्चात डीएफओ ऑफिस से मुझे सूचना मिली कि डीएफओ मेरे आफिस का वार्षिक निरीक्षण करने के लिए आने वाले हैं। जिस तारीख को उन्हें आना था, उस दौरान कुछ ज़रूरी काम के लिए बाहर जाना पड़ा और निरीक्षण के ठीक एक दिन पहले बालाघाट पहुंच पाया। इसहाक साहब को इसके बारे में बताया। उन्होंने सबसे पहले यही प्रश्न किया कि तुम्हारी केश बुक पूरी तरह से भरी हुई है कि नहीं? मैंने जवाब दिया कि बाहर जाने से केश बुक अभी तक लिख नहीं पाया हूं। ऑफिस इंस्पेक्शन का मतलब मैं यही समझ रहा था कि डीएफओ साहब आ कर रजिस्टर इत्यादि चेक कर निरीक्षण करेंगे। इसहाक साहब ने बताया कि डीएफओ साहब आकर सबसे पहले केश बुक ही चेक करेंगे और आपके पास कितना केश बैलेंस है, उसका केश बुक के बैलेंस से मिलान कर एक सर्टिफिकेट केश बुक में दर्ज करेंगे। उन्होंने फॉरेस्ट स्कूल में पदस्थ रेंजर पीसी चतुर्वेदी को इस कार्य में मेरी सहायता के लिए लगाया। हम दोनों रात भर बैठ कर वाउचर कंप्लीट कर केश बुक लिखते रहे और सुबह होते होते तक यह काम पूरा हो पाया। यदि मुझे यह मदद नहीं मिलती तो ज़रूर डीएफओ साहब के कोपभाजन का शिकार बनने के साथ ही कॉन्फिडेंशियल रिकॉर्ड भी खराब हो जाता। यह मेरे कैरियर के लिए भी नुक्सानदायक होता। रेंज ट्रेनिंग के समय मुझे इस गलती से बहुत सीख मिली जिसे मैं कभी नहीं भूल पाया। डीएफओ साहब ने आकर ऑफिस का इंस्पेक्शन किया और केश बुक इत्यादि चेक कर केश बैलेंस का मिलान वास्तविक बैलेंस से कर सर्टिफिकेट दर्ज किया। रेंज ऑफिस इंस्पेक्शन की रिपोर्ट मुझे कुछ समय मिली, जिसमें मेरा कार्य संतोषजनक पाया गया।
दौरों में जूनियर्स से पौधों के नाम पूछने की परंपरा
रेंज आफिसर रहने के दौरान चीफ कंजरवेटर ऑफ फॉरेस्ट आरएन दत्ता का बालाघाट दौरा हुआ। वे सर्किट हाउस में सपरिवार ठहरे। उनके साथ परिवार के सदस्य ज्यादा थे, इसलिए बाहर से पलंग बुलवा कर व्यवस्था की गई। हेड क्वार्टर रेंज आफिसर होने के कारण पूरे इंतजाम का जिम्मा मेरे ऊपर ही था। दत्ता साहब फॉरेस्ट स्कूल का दौरा करने मेरे साथ निकले। एक पेड़ जिसमें सुंदर गुलाबी फूल लगे हुए थे, उसको देख कर तुरंत मुझसे लोकल व बॉटनिकल नाम बताने को कहा। मुझे याद है कि मैंने पेड़ का नाम जारूल यानी कि लग्रस्ट्रोमिया फ्लासरिजाइना बताया। यह पेड़ बंगाल में पाया जाता है। फॉरेस्ट महकमे में यह प्रथा प्रचलित थी कि जब भी कोई वरिष्ठ अधिकारी आते तब वे दौरे के समय अपने से जूनियर आफिसरों या कर्मचारियों विभिन्न पेड़ों के नाम ज़रूर पूछते थे। उनका अभिप्राय रहता था कि सभी को अपने आसपास के पेड़ों व जंगलों की अच्छी जानकारी होना चाहिए। दत्ता साहब का बालाघाट से वापसी का समय सुबह सात बजे रखा गया। हेड क्वार्टर रेंज आफिसर होने के नाते मुझे सबसे पहले सर्किट हाउस पहुंच जाना चाहिए था, परन्तु मुझे वहां पहुंचने में देरी हो गई। मैं जब वहां पहुंचा तो मैंने देखा कि डीएफओ लहरी साहब सहित अन्य अधिकारी पहले से ही वहां मौजूद थे। इसहाक साहब ने मुझे अलग से ले जा कर बताया कि लहरी साहब ने आते ही प्रश्न किया कि रेंज आफिसर बालाघाट रावत कहां हैं। इसहाक साहब ने डीएफओ को जानकारी दी कि रावत सुबह से आकर इंतजाम देखने के बाद कपड़े बदलने के लिए गए हैं। इसहाक साहब ने डीएफओ लहरी के गुस्से से मुझे बचा लिया।
दौरों में अपने खाने पीने का बिल चुकाने वाले अधिकारी
सरकारी नौकरी में इसहाक साहब जैसे शुभचिंतक बहुत कम ही होते हैं। दत्ता साहब से जुड़ा एक वाक्या और है। जब देहरादून में ट्रेनिंग कर रहा था, तब कुछ समय के लिए नागपुर आया। मैंने सोचा कि फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में नौकरी करना है इसलिए विभाग के वरिष्ठ अधिकारी से मिल लूं। आरएन दत्ता उस समय फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के हेड क्वार्टर में पदस्थ थे। मैं जब उनसे मिलने पहुंचा तो उन्होंने मुझे देखते हुए टोकते हुए कहा कि आप प्रॉपर ड्रेस पहल कर क्यों नहीं आए? मैं उस वक्त केवल पेंट शर्ट पहन कर उनसे मिलने चला गया था। उस समय फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में अनुशासन का यही स्तर हुआ करता था। बाद में मुझे पछतावा हुआ कि मैं अनावश्यक रूप में उनसे मिलने क्यों चला गया। आरएन दत्ता वही अधिकारी थे जिनसे मैं नागपुर में मिला था। जब वे बालाघाट से जाने लगे तब उन्होंने न केवल अपने खाने पीने के बिल का पूरा भुगतान किया, बल्कि जो पलंग उनके परिवार के लिए ले कर लाया था, उनके लाने व ले जाने के खर्च का भी उन्होंने भुगतान किया। आरएन दत्ता एक कम बोलने वाले सख्त व ईमानदार अधिकारी के रूप में प्रसिद्ध थे। उस समय के अधिकांश वरिष्ठ अधिकारी भले ही अभावग्रस्त जीवन यापन करें परन्तु वे ईमानदारी व कार्यकुशलता को हर समय सर्वोच्च वरीयता देते थे।
बता देना कि वे जंगल गश्त में निकल गए हैं
बालाघाट रेंज चार्ज की चर्चा अधूरी ही रहेगी यदि लौगूर के रेंज असिस्टेंट गजनफर अली की बात ना की जाए। वे फॉरेस्ट डिपार्टमेंट में आने से पूर्व किसी वकील के पेशकार रह चुके थे। वे हमेशा खाकी हाफ पेंट, खाकी कमीज और काली टोपी पहनते थे। चेहरे पर चेचक के दाग, मुंह में चबाता हुआ पान और हाथ में लटका हुआ झोला उनकी खास पहचान थी। मैं जब लौगूर दौरे पर पहुंच कर किसी फॉरेस्ट गार्ड के बारे में उनसे पूछता कि वह कहां है तो वे उत्तर दे देते कि वह जंगल गश्त करने निकल गया है। बाद में जानकारी मिली कि वे अपने स्तर से ही फॉरेस्ट गार्ड को छुट्टी दे देते थे और इसी तरह उनके बचाव में वे हमेशा बने रहते। जब वे स्वयं भी बिना अनुमति लिए छुट्टी पर जाते तो फॉरेस्ट गार्डों को कह जाते कि यदि रेंजर साहब आएं तो उन्हें बता देना कि वे जंगल गश्त में निकल गए हैं। लौगूर के पास बैहर सड़क पर मिसलेनियस (सतकटा) वन की कटाई कर वर्ष 1957 की वर्षा ऋतु में सागौन का पौधरोपण मेरी देखरेख में किया जा रहा था। नर्सरी में पर्याप्त शूट उपलब्ध न होने के कारण सागौन के कुछ छोटे पौधे ला कर पौधरोपण क्षेत्र में लगाए गए थे। डीएफओ लहरी साहब पौधरोपण क्षेत्र का निरीक्षण करने आए। उन्होंने देखा कि कुछ छोटे पौधे लगाए गए हैं। उन्होंने अपना आपा खो दिया और मुझे अधीनस्थ कर्मचारियों के सामने ही जोर-जोर से डांटने लगे। मुझे अपनी गलती समझ में आ गई। हमें रूट शूट अन्य रोपणी से ला कर लगानी चाहिए थी। मैं उनके सामने चुप ही रहा। लहरी साहब के जाते ही गजनफर अली ने मज़ा लेते हुए मुझे भड़काते हुए कहा कि सामान्यतः जब एसएएफ रेंज के चार्ज में होते हैं, तब डीएफओ आ कर उनसे हाथ मिला कर गपशप कर वापस चले जाते हैं और आप के साथ यह क्या हो गया। मैं समझ रहा था कि जब इस तरह अधिकारी को डीएफओ द्वारा डांट लगाई जाती हैए तब अधीनस्थ कर्मचारी मन ही मन खुश हो कर इसका मज़ा लेते हैं।
(लेखक सेवानिवृत्त प्रधान मुख्य वन संरक्षक मध्यप्रदेश हैं)