वर्ष 1972 में जून माह की आखिरी तारीख को बैतूल से ट्रांसफर होने के बाद ग्वालियर में वर्किंग प्लान ऑफिसर ग्वालियर का पद संभाला। मुझे ग्वालियर वन मंडल का वर्किंग प्लान बनाने का कार्य सौंपा गया। ग्वालियर का कार्यकाल मेरी शासकीय सेवा का सबसे कठिन समय होने के साथ ही एक कड़ी परीक्षा का समय भी रहा। जब ग्वालियर पहुंचा तो मैंने पाया कि मेरे लिए ना तो कोई कार्यालय है और ना ही स्टाफ अथवा सामग्री उपलब्ध थी। आवागमन के लिए कोई शासकीय वाहन भी उपलब्ध नहीं था। मुझे ही पूरी व्यवस्था करनी थी। ग्वालियर में मेरे लिए कार्यालय और आवास के लिए स्थान खोजना, प्रयास कर स्टाफ की पोस्टिंग करवाना और कार्यालय की आवश्यक सामग्री की व्यवस्था करना सबसे बड़ी चुनौती थी। शासकीय वाहन मिलने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं थी। इससे पूर्व 3 फॉरेस्ट डिवीजन में डीएफओ के पद पर कार्यरत रहा चुका था। वहां ऐसी कोई चुनौती कभी नहीं आई। 1972 में जब ग्वालियर पहुंचा तब मेरी उम्र 40 वर्ष हो चुकी थी। इस उम्र में जंगलों का दौरा बिना वाहन के करना कठिन कार्य था। वर्किंग प्लान जैसे कार्य में शासकीय वाहनमय ट्राली के, पर्याप्त कर्मचारियों की संख्या और सामग्री की सबसे अधिक जरूरत रहती है। इन चीजों से काम सुचारू रूप से संचालित होता है और समय की बर्बादी भी नहीं होती।
अनुभव के आधार पर अधिकारियों की पदस्थापना क्यों जरूरी
ग्वालियर पदस्थापना से पूर्व ऐसे फॉरेस्ट डिवीजन में कार्य किया था, जहां सागौन और साल के जंगल थे। सागौन और साल के जंगलों के प्रबंधन, देखभाल और व्यवस्था करने का अच्छा अनुभव था। ग्वालियर पहुंचने पर उस समय आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब देखा कि वह सूखाग्रस्त क्षेत्र था। वहां करधई और खैर प्रजाति के पेड़ पाए जाते थे। ऐसे जंगलों के प्रबंधन का मुझे जरा-भी पूर्व अनुभव नहीं था। इस पोस्टिंग के बाद यह महसूस हूआ कि वर्किंग प्लान में पोस्टिंग से पहले अधिकारी के जंगल महकमे के पूर्व अनुभव के आधार पर ही फॉरेस्ट डिवीजन का चयन होना चाहिए। किसी भी फॉरेस्ट डिवीजन का वर्किंग प्लान बनाना एक कठिन कार्य होता है। युवा अधिकारियों को कम आयु में ही 1-2 डिवीजन में डीएफओ रहने के बाद इस काम को सौंपना चाहिए। अधिकारियों की अधिक आयु हो जाने के कारण आने-जाने और इंस्पेक्शन करने में धीरे-धीरे कठिनाई होने लगती है। वर्किंग प्लान ऑफिसर को पैदल चलकर जंगलों का भ्रमण कर स्टॉक मैपिंग करनी होती है। उन्हें जंगलों की स्थिति को ध्यान में रखते हुए विभिन्न क्षेत्रों का आकलन कर अगले 15 वर्षों में किए जाने वाले कार्यों की उचित योजना और व्यवस्था प्लान में दर्शानी होती है। उनके द्वारा तैयार किए गए प्लान के अनुसार ही पूरे फॉरेस्ट डिवीजन में कार्य किया जाता है।
ऑफिस के कामों में मकान मालिक की टोका-टाकी
ग्वालियर पहुंचकर कार्यालय और आवास की खोज में लग गया। शासकीय आवास के लिए ग्वालियर कमिश्नर के पास व्यक्तिगत रूप से जाकर प्रयास किए लेकिन निराशा ही हाथ लगी। अधीनस्थ स्टाफ ना होने के कारण मुझे यह सब काम स्वयं करने पड़े। काफी प्रयास के बाद ग्वालियर के खेड़ापति कॉलोनी में एक प्राइवेट बंगले के प्रथम तल पर कार्यालय सह-आवास किराये से मिल गया। धीरे-धीरे ऑफिस में अधीनस्थ स्टाफ की पोस्टिंग हुई और अन्य सामग्री की व्यवस्था की गई। मकान मालिक एक रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर थे और वे नीचे ही रहते थे। उनकी पैनी निगाह ऑफिस की प्रत्येक गतिविधि पर रहती थी। ऑफिस का पानी नीचे लगे नल से ही भरना पड़ता था। पानी भरने के दौरान मकान मालिक की टिप्पणी रहती थी- 'कितना पानी पीते रहते हैं आप लोग।' दीवार पर कील ठोकने या जरा-सी आवाज होने पर नीचे से उनकी टोका-टाकी भरी आवाज आ जाती थी।
ग्वालियर वर्किंग प्लान में सीमित मात्रा में पेड़ काटने का प्रावधान क्यों किया गया
ग्वालियर के वर्किंग प्लान में बहुत ही सीमित मात्रा में पेड़ों को काटने की अनुमति का प्रावधान किया गया। ग्वालियर फॉरेस्ट डिवीजन के जंगल अत्यंत विरले, कम घनत्व वाले खुले हुए और चट्टानी होने के कारण, जो भी उपलब्ध पेड़ थे उन्हीं का संरक्षण, देखरेख और उन्हें आगे बढ़ाने की जरूरत थी ताकि खुले और विरले जंगल क्षेत्र धीरे-धीरे वनाच्छादित हो सकें। वृक्षारोपण पर विशेष ध्यान दिया गया। खुले जंगल क्षेत्रों का घनत्व बढ़ाने पर विशेष जोर और प्रावधान किए गए। ग्वालियर के वर्किंग प्लान भाग 1 और 2 30 अप्रैल 1975 को पूर्ण कर प्रस्तुत किया गया, जिसके प्रावधान अगले 15 वर्ष यानि कि 1990 तक के लिए प्रस्तावित थे।
जंगलों में 50-60 किलोमीटर साइकिल की यात्रा
ग्वालियर का वर्किंग प्लान तैयार करने के लिए मुझे और मेरी टीम को प्रतिमाह लगभग 15-20 दिन दौरे पर रहना पड़ता था। गांव और भीतरी जंगलों में हम लोगों को कैम्प कर जंगलों का निरीक्षण और वर्किंग प्लान संबंधी कार्य करने पड़ते थे। हम लोगों को अपनी टीम के साथ टेंट में या गांव के मालगुजार या बड़े किसानों के घरों में रात्रि विश्राम करना पड़ता था। कभी-कभी एक दिन में 50 से 60 किलोमीटर साइकिल यात्रा भी करनी पड़ी। हमारी टीम तंबू और अन्य सभी आवश्यक सामान लेकर जंगलों के नजदीक स्थित स्थानों तक बस से पहुंचते और वहां से बैलगाड़ी किराये पर लेकर उसमें सामान रखकर भीतर के जंगलों के पास गांवों में कैंप कर अपना काम करते। स्थानीय रेंज ऑफिसर या उनके सहायक कभी-कभी औपचारिकता निभाने हम लोगों से मिलने चले आते, लेकिन ये कर्मी सीधे रूप से मेरे अधीनस्थ नहीं थे इसलिए हम उन्हें आने पर विवश भी नहीं कर सकते थे। स्थानीय फॉरेस्ट गार्ड अवश्य हम लोगों को कभी-कभी सहायता करने आ जाते। कुछ फॉरेस्ट गार्ड अपनी साइकिल भी दे देते थे। जब हमारा दौरा लंबा चलता तब वे बहाना बनाकर साइकिल देना भी बंद कर देते। इससे हम लोग अपनी-अपनी साइकिलें बस के ऊपर रखकर दौरे पर ले जाने लगे।
बड़े भैया-छोटे भैया की करतूत
ग्वालियर फॉरेस्ट डिवीजन ग्वालियर फॉरेस्ट कंजरवेटर के अधीन आता था और मेरे नियंत्रक ऑफिसर फॉरेस्ट कंजरवेटर वर्किंग प्लान जबलपुर थे। फॉरेस्ट कंजरवेटर और डीएफओ के सहयोग और सहायता के बिना वर्किंग प्लान बनाना असंभव काम था। दौरे के समय समस्त जानकारी और रिकॉर्ड उनके अधीनस्थ स्टाफ से ही लेनी पड़ती थी इसलिए सहयोग सबसे जरूरी था। कंजरवेटर औ डीएफओ के कार्यालय ग्वालियर में मोती महल में थे। हम लोगों को प्रतिदिन कोई न कोई जानकारी लेने इनके कार्यालय में जाना पड़ता था। एक बार तत्कालीन चीफ कंजरवेटर केएन मिश्रा ग्वालियर दौरे पर आए। उनसे मैंने कार्य की कठिनाई और कच्चे रास्तों के दौरे के लिए जीप उपलब्ध ना होने की बात से अवगत कराया। केएन मिश्रा ने कंजरवेटर ग्वालियर को निर्देश दिए कि उनके पास जो पुरानी जीप क्रमांक 695 उपलब्ध है, उसे मुझे शासकीय कार्य के लिए उपलब्ध करवाई जाए। यह जीप पुरानी और खटारा किस्म की थी। वाहन चालक के लिए एक ड्राइवर दैनिक वेतनभोगी कर्मी के रूप में रखा गया। यह वाहन काफी उपयोगी सिद्ध हुआ। मुझे मिलने से पूर्व इस जीप का यदा-कदा उपयोग कंजरवेटर साहब के बड़े भैया और छोटे भैया के नाम से प्रसिद्ध 2 पुत्र करते थे। जीप के बंगले से जाने के कारण वे दुखी हो गए। दोनों पुत्र फॉरेस्ट महकमे के कर्मचारियों के निरंतर सम्पर्क में रहते और विभाग के कार्यों में हस्तक्षेप भी करते थे। उनकी इस हरकत में पिता का वरदहस्त रहता। जैसे ही मैं शासकीय दौरे से वापस लौटता, कंजरवेटर साहब का ड्राइवर मुझसे सम्पर्क कर बताता कि जीप वापस ले जाने के लिए दोनों भाइयों ने उसे भेजा है। ड्राइवर कंजरवेटर साहब के निजी कामों का वास्ता देता। विवश होकर जीप ड्राइवर को सौंपनी पड़ती। मन में खीझ उठती और खून का घूंट पीकर इस अन्याय को सहना पड़ता। कंजरवेटर के बंगले से ड्राइवर लेकर जब मैं पुन: जीप लेने जाता तब जीप स्टार्ट करने की लाख कोशिश के उपरांत भी वह चालू नहीं हो पाती। मेरी परेशानी को देखकर बड़े भैया और छोटे भैया दूर खड़े कुटिलता से मुस्कराते हुए मजा लेते रहते। मैकेनिक को लाकर चेक करवाने पर पाया जाता कि किसी ने जान-बूझकर कारस्तानी कर जीप के प्लगों का फायरिंग ऑर्डर बदलकर यहां-वहां कर दिया है, जिस कारण जीप स्टार्ट नहीं हो पाती। जैसे ही फायरिंग ऑर्डर सही किए जाते, जीप चालू हो जाती। जीप से टूल किट गायब कर दिए जाते। दौरे पर से जाने पूर्व इसे पुनः हम लोगों को खरीदना पड़ता।
कूटरचित पत्र से वाहन वापस लेने का खेल
एक बार हम लोग जीप से घाटीगांव के दौरे पर गए। वहां कैम्प कर अपना काम कर रहे थे, तभी फॉरेस्ट कंजरवेटर ग्वालियर का एक लिफाफा लेकर रेंज ऑफिसर चेकिंग स्क्वॉड आए। मैंने जब लिफाफा खोलकर देखा तो उसमें चीफ कंजरवेटर भोपाल के पत्र की कॉपी पर कंजरवेटर ग्वालियर ने एंडोर्समेंट लगाकर अपने हस्ताक्षर से मुझे भेजा। एंडोर्समेंट में निर्देश दिए गए थे कि मुझे उपलब्ध कराई गई शासकीय जीप क्रमांक 695 तत्काल निसार अहमद रेंजर चेकिंग स्क्वॉड को सौंप दी। चीफ कंजरवेटर भोपाल के पत्र में लिखा था कि वर्किंग प्लान ऑफिसर को उपलब्ध कराई गई जीप का वे निरंतर दुरुपयोग कर रहे हैं, इसलिए जीप तत्काल वापस बुला ली जाए। चीफ कंजरवेटर भोपाल के निर्देश थे इसलिए मैंने रेंजर निसार अहमद को दौरे पर रहते हुए जीप तत्काल सौंप दी जाए। फॉरेस्ट कंजरवेटर ग्वालियर एक सीनियर अधिकारी थे। उनका निर्देशित पत्र और व्यवहार आश्चर्यजनक और दुखदाई था। उन्होंने जीप वापस लेने के लिए मेरे दौरे से वापस मुख्यालय लौटने तक का भी इंतजार नहीं किया। उनका कृत्य आपत्तिजनक और अशोभनीय था। कुछ समय पश्चात मुझे भोपाल जाने का मौका मिला। चीफ कंजरवेटर के पत्र लेकर उनके कार्यालय पहुंचा और उनके द्वारा भेजे गए पत्र के संबंध में तहकीकात की। वहां जानकारी मिली कि इस तरह जीप वापस लेने के लिए चीफ कंजरवेटर द्वारा कोई भी पत्र ग्वालियर फॉरेस्ट कंजरवेटर को नहीं भेजा गया था। किसी ने जालसाजीयुक्त कार्य करते हुए चीफ कंजरवेटर भोपाल का फर्जी हस्ताक्षरित पत्र तैयार करवाकर भोपाल से कंजरवेटर ग्वालियर कार्यालय में प्राप्त सील लगे खाली लिफाफे का दुरुपयोग कर उसमें यह फर्जी पत्र डालकर पोस्ट कर दिया था। फॉरेस्ट कंजरवेटर ग्वालियर कार्यालय में डाक से प्राप्त लिफाफा मानकर जीप वापस लेने की कार्रवाई कर दी गई।
( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )