बिरसा मुंडा ने अंग्रेजों से मुक्ति के लिए दिया जीवन का बलिदान

10 नवंबर 2021 को भारत सरकार ने उनके जन्म दिवस 15 नवंबर को जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की।अब यह स्मृति दिवस पूरे देश में गौरव पूर्वक मनाया जाता है ।

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दासत्व के घने अंधकार में ऐसी विभूतियां विरली हुई हैं जिनका जीवन बहु आयामी रहा। उन्होंने अपने जीवन का प्रत्येक पल समाज के स्वत्व जागरण एवं दिशा बोध को समर्पित किया और विदेशी सत्ता से भारत राष्ट्र की मुक्ति के लिए जीवन का बलिदान दिया। क्रांतिकारी बिरसा मुंडा ऐसी ही विभूति थे। इनमें अद्भुत आध्यात्म चेतना थी। जिससे पूरे समाज ने उन्हें "भगवान बिरसा मुंडा" कहकर शीश नवाया। 

15 नवंबर 1875 को हुआ था बिरसा मुंडा का जन्म

भारत राष्ट्र की अस्मिता और संस्कृति रक्षा के लिए भारतीय जनजातियों ने सदैव संघर्ष किया है। यह संघर्ष सिकन्दर के आक्रमण से लेकर अंग्रेजों के आतंक का सामना करने तक दिखता है। राष्ट्र रक्षा के लिए वन में निवास करने वाली जनजातीय समाज के असंख्य नाटकों के बलिदान हुए हैं। ऐसे ही महानायक हुए हैं बिरसा मुंडा। उनके जीवन में कुछ ऐसी विलक्षण घटनाएं घटीं जिससे उन्हें पूरे समाज ने भगवान कहकर नमन किया। उनके बारे में कितनी ही कहानियां हैं। जो लोक जीवन में सुनाई जाती हैं। वे सही मायने में लोकनायक थे। उनका जन्म 15 नवंबर 1875 को झारखंड प्रांत के रांची जिला अंतर्गत वनक्षेत्र के ग्राम उलीहातू ग्राम में हुआ।तब यह क्षेत्र बंगाल प्रांत में था। उनके पिता का नाम सुगना मुंडा और माता का नाम करमी हातू था। वे कुल पांच भाई बहन थे।उनके आरंभिक शिक्षक उनके गांव के ही जयपाल नाग थे।1980 में ईसाई मिशनरी स्कूल में पढ़ने गए। पूरे क्षेत्र में ईसाई मिशनरी का प्रभाव था। इससे उनके पिता, चाचा ताऊ और मामा मौसी ने भी ईसाई मत स्वीकार कर लिया था। जब स्कूल गए तो इनका भी ईसाई पंथ में मतान्तरण करके बिरसा डेविड नामकरण कर दिया गया।

बांटो और राज करो

उन दिनों अंग्रेज भारत में अपनी सत्ता को स्थाई करने के लिये बांटो और राज करो की नीति पर काम कर रहे थे। वे पहले अपने सैनिकों और एजेंटों को तैनात करते। कई प्रकार का शोषण करके यह प्रचार कर रहे थे कि जनजातीय समाज की जो भी समस्याएं हैं वे नगरीय समाज जनों के कारण अंग्रेज चाहते थे कि जनजातीय समाज जो शक्ति अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष में लगाता है, उसका ध्यान अंग्रेजों से हटे। इसके लिए एक ओर वे स्कूलों में बच्चों का ब्रेनवॉश करते थे। 

 

दूसरी ओर उनके धर्म प्रचारक गांवों में सभाएं करते थे। इसके पीछे अंग्रेजों का उद्देश्य भारतीय वन संपदा पर अधिकार करना था। अंग्रेजों ने पूरी वन संपदा पर अधिकार करके जनजातीय समाज को भुखमरी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया था, और उन्हीं में कुछ को सिपाही बनाकर अपने ही समाज का शोषण करने नियुक्त कर दिया था, ताकि वह वन संपदा को संग्रहित कर ठेकेदार तक पहुंचा।अंग्रेजों द्वारा नियुक्त ये ठेकेदार जनजातीय समाज का शोषण करते थे, उनसे बेगार लेते थे। अंग्रेजों के एजेंट इसके लिए अंग्रेजों की नीति को दोषी नहीं बताते थे बल्कि ऐसी कहानी बनाकर सुनाते थे जिससे जनजातीय समाज में नगरीय समाज से दूरी बढ़े और उनके बीच वैमनस्य रहे। ऐसी कहानियों का प्रचार दोनों प्रकार से हो रहा था। एक तो चर्च से जुड़े स्कूलों में पढ़ाई के विषयों के साथ शिक्षक ऐसी कहानियां सुना और उनका ब्रेनवॉश करते और जनजातीय परंपराओं को अति पिछड़ा बताकर उपवास करके ईसाई मत को श्रेष्ठ बताकर मतान्तरण के लिए आकर्षित करते थे। 

ईसाई पादरियों का विरोध

बचपन में अपनी स्कूल शिक्षा के साथ बालक बिरसा मुंडा ने भी ऐसी कहानियां सुनीं। पर ऐसी कहानियां उनके गले नहीं उतरी थीं। वे बहुत कुशाग्र बुद्धि एवं शारीरिक रूप से भी सुगठित शरीर के थे । वे अपनी धरती और परंपराओं के लिए समर्पित थे।स्कूल में उनकी जनजातीय संस्कृति का जो उपहास किया जाता था, वह उन्हे सहन नहीं होता था। उन्होंने कुछ दिन तो सहन किया लेकिन बाद में उन्होंने भी ईसाई पादरियों और उनके धर्म का भी उपवास करना बंद कर दिया। इसपर उन्हें दंडित किया गया पर वे नहीं माने तो ईसाई धर्म प्रचारकों ने उन्हें स्कूल से निकाल दिया। यह 1890 की घटना है। इसके बाद उनके जीवन में एक नया मोड़ आया। उन्होंने उड़ीसा के पुरी स्थित जगन्नाथ मंदिर में दर्शन करने की इच्छा से पदयात्रा की। जनजातीय समाज जगन्नाथ जी को अपना इष्टदेव मानता है । किशोर वय बिरसा जी ने दर्शन किए और पन्द्रह दिन साधना की उन्होंने अन्न त्याग दिया था । उन्हें एक रात स्वप्न आया । इसका आशय उन्होंने वहां पुजारी जी से पूछा। पुजारी जी ने स्वप्न का रहस्य समझाया और बताया कि तुम साधारण नहीं हो, एक उद्देश्य लेकर संसार में आए हो ।

स्वप्न बिरसा मुंडा के जीवन में परिवर्तन लाया

संसार में जितने महापुरुष आए सबके जीवन में कोई न कोई घटना ऐसी होती है जो परिवर्तन आती है । महर्षि वाल्मीकि, आदि शंकराचार्य, संत तुलसीदास, दयानंद सरस्वती आदि सब । इसी प्रकार यह स्वप्न बिरसा मुंडा के जीवन में परिवर्तन लाया। वे अपने क्षेत्र लौटे, युवकों की टोली बनाई और समाज को जनजातीय परंपराओं की महत्ता समझने के कार्य में जुट गए।

इसी अभियान में उनका संपर्क स्वामी आनन्द पाण्डे से हुआ । जिनसे उन्होंने उन्हें सनातन धर्म के रहस्य और पौराणिक पात्रों का परिचय समझा और अपने व्याख्यानों में इन विषयों को जोड़कर जनजातीय समाज से अपनी परंपराओं पर गर्व करने का आह्वान करते । वे पीड़ितों की सेवा में लग गए । विशेषकर बीमारों की सेवा में। उनके अभियान से न केवल जनजातीय समाज का मतान्तरण कम हुआ अपितु बड़ी संख्या जनजातीय समाज बंधु अपने धर्म में वापसी करने लगे।

इसी बीच कुछ ऐसी आलौकिक घटनाएं घटीं,  जिनके कारण लोग उन्हें को असाधारण और भगवान का अवतार मानने लगे। लोगों में यह विश्वास दृढ़ हो गया कि बिरसा के स्पर्श मात्र से ही रोग दूर हो जाते हैं। जन-सामान्य में यह चर्चा दूर दूर तक होने लगी इससे बिरसा जी का प्रभाव क्षेत्र बहुत बढ़ गया । उनकी बातें सुनने के लिए दूर दूर से लोग आने लगे । वे प्रवचन भी करते और लोगों को सक्रिय होकर आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा देते थे । उन्होंने समाज को अंधविश्वास और आलस्य से दूर रहकर कर्मशील बनाने का मानों अभियान ही छेड़ दिया था। उन्होंने अलग-अलग क्षेत्र के लिए अलग-अलग टोलियां बनाई। जो समूचे वनक्षेत्र में घूम घूमकर वे लोगों को हिंसा और मादक पदार्थों से दूर रहने की सलाह देते थे। इसके लिए मिशनरियों ने सरकार से सहायता ली। अंग्रेजों की पुलिस और अंग्रेज भक्त कुछ जमीदारों ने दमन शोषण आरंभ कर दिया । 

बिरसा मुंडा हुए गिरफ्तार

बिरसा ने समाज और  किसानों का शोषण करने वालों के विरुद्ध संघर्ष का आव्हान किया। इसमें जमींदार और पुलिस दोनों से संघर्ष करने का संकल्प दिलाया। यह देखकर ब्रिटिश सरकार ने उन पर कई प्रकार की पाबंदियां लगा दी । यहां तक कि वे लोगों को एकत्र न करें । यह बात बिरसा जी ने नहीं मानी और कहा कि मैं तो अपनी जाति को अपना धर्म सिखा रहा हूं। इस पर पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव वालों ने एकत्र होकर उन्हें छुड़ा लिया। इससे पुलिस बड़ी संख्या में आया और उनके साथ गांव के अधिकांश लोगों को गिरफ्तार कर लिया। बिरसा  को दो वर्ष के कैद की सजा दी और हज़ारीबाग़ जेल में भेज दिए गए। बाद में उन्हें इस चेतावनी के साथ छोड़ा गया कि वे कोई प्रचार नहीं करेंगे।

गिरफ्तारी वारंट जारी हुआ

बिरसा मानने वाले नहीं थे। वे तो एक निहित संदेश लेकर संसार में आए थे। इसलिए अपने संकल्प पर दृढ़ रहे। जेल से छूटने के बाद उन्होंने अपना अभियान तेज किया। युवाओं के दो दल बनाए। एक दल धर्म प्रचार के लिये और दूसरा दल अंग्रेजों से भारत की मुक्ति के लिये राजनीतिक जागृति अभियान।दोनों समूहों में नए नए युवक भर्ती किए गए। सरकार को उनके कार्य की भनक लगते ही उनकी गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया, किन्तु बिरसा जी पकड़ में नहीं आए।

जब बिरसा मुंडा ने पुलिस थाना पर लगा दी थी आग

वे वेष बदलकर सक्रिय रहे। उन्होंने सरकार के सामने कुछ मांग रखी जिसमें वन और वन संपदा अंग्रेजों के अधिकार से मुक्त करने, बेगारी प्रथा बंद करने, उचित पारिश्रमिक देने तथा ईसाई मिशनरियों का जनजातीय समाज में हस्तक्षेप न करने की बात प्रमुख थी। बिरसा जी का उद्देश्य वनों से पूरे यूरोपीय पदार्थों के तंत्र को हटाकर वन संस्कृति के मौलिक स्वरूप को स्थापित करना था। इसके लिए वे रात दिन अपने अभियान में लगे रहे। पुलिस उन्हें पकड़ने के लिए आई । वे नहीं मिले तो उनके सहयोगियों को पकड़कर थाने ले गई। इससे वनवासियों में गुस्सा बढ़ गया। अपने साथियों को छुड़ाने के लिए बिरसा के नेतृत्व में पुलिस थाने पर धावा बोल दिया। यह 24 दिसम्बर 1899 की तिथि थी । बिरसा ने अपने साथियों को छुड़ाकर थाने में आग लगा दी। अंग्रेजी सत्ता ने इस घटना को एक चुनौती माना। उनपर राजद्रोह, हत्या, बलवा आदि की धाराएं लगीं और पकड़ने के लिए सेना भेजी गई। 

पांच सौ रुपए के पुरस्कार की घोषणा 

सूचना देने वाले को पांच सौ रुपए के पुरस्कार की घोषणा हुई। सेना ने आकर पूरे क्षेत्र को घेर लिया। जनजातीय समाज ने अंग्रेजी फौज का मुकाबला किया। जनजातीय समाज के युवाओं के पास केवल तीर कमान थे। जबकि अंग्रेजी फौज के पास बंदूकें थीं। अंग्रेजों की बंदूक की गोलियों का सामना वासियों ने तीर कमान से ही किया। जो अधिक देर न चल सका। बड़ी संख्या में वनवासी बलिदान हो गए। पर बिरसा जी सेना के हाथ ना लगे। तब अंग्रेज पुलिस ने दूसरा तरीका अपनाया। डरा धमकाकर और लालच देकर कुछ लोगों को अपना मुखबिर बनाया। यह षड्यंत्र काम कर गया । उनके विश्वस्त दो लोगों ने विश्वासघात किया और अंग्रेजों को उनकी योजना की सूचना अंग्रेजों को दे दी। वेश बदलकर अंग्रेज पुलिस ने अपनी जमावट करली और बिरसा मुंडा गिरफ्तार कर लिए गए। जेल में उन्हे अनेक प्रकार की यातनाएं दी गईं। इस सेवा को शारीरिक रूप से कमजोर हुए। 8 जून 1900 को उन्हें खून की उल्टियां हुईं और अगले दिन 9 जून को उन्होंने देह त्याग दी। तब उनकी आयु मात्र चौबीस साल की थी।आशंका यह भी है कि जेल में उन्हें विष दे दिया गया था। लोक जीवन में उनकी स्मृतियां आज भी सजीव हैं। वे गीतों और साहित्य में ही नहीं लोगों के दिलों में आज भी जीवित हैं। लोग उन्हे भगवान के स्थान पर मिलते हैं।

बिरसा मुंडा अंतर्राष्ट्रीय विमानक्षेत्र

भगवान बिरसा की समाधि रांची में जाकर के निकट डिस्टिलरी पुल के पास स्थित है। वहीं उनका स्टेच्यू भी लगा है। उनकी स्मृति में रांची में बिरसा मुंडा केन्द्रीय कारागार तथा बिरसा मुंडा अंतरराष्ट्रीय विमानक्षेत्र भी है।10 नवंबर 2021 को भारत सरकार ने उनके जन्म दिवस 15 नवंबर  को जनजाति गौरव दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की। अब यह स्मृति दिवस पूरे देश में गौरव पूर्वक मनाया जाता है।

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