विमर्श या नैरेटिव के नाम पर भारत में एक अघोषित युद्द चला हुआ है। इन दिनों भारत में चल रहा विमर्श शुद्ध राजनैतिक है। राजनीति और कुछ नहीं समाज का एक संक्षिप्त प्रतिबिंब ही है। विमर्श में यह प्रतिबिंब विषय व समयानुसार कुछ छोटा या बड़ा होता रह सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विचार परिवार के राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को यदि हम सामाजिक प्रतिबिंब के रूप में देखें तो हमें वैचारिक प्रतिबंधों, वर्जनाओं और सीमाओं से मुक्ति मिल जाती है। वैचारिक दृष्टि से देखें तो भाजपा एकमात्र भारतीय राजनैतिक दल है जो वैचारिक दासता से मुक्त है। भाजपा अपने चिर परिचित हिंदुत्वशाली आग्रहों पर अंगद, अटल है। नवीन व पुरातन का अभिनव संगम हो गई है भाजपा। वस्तुतः आरएसएस ने भाजपा के माध्यम से राजनीति एक विशाल, विराट व विमुक्त वैचारिक कैनवास हमें दिया है।
हम भारत के राजनैतिक, अराजनैतिक और यहां तक की हम भाजपा के लोग भी भाजपाई राजनीति को सही शब्दों में संपूर्णतः व्यक्त नहीं कर पाते हैं। यह अव्यक्तिकरण इसलिए नहीं है कि भाजपाई नेतृत्व के पास या भाजपा के आलोचकों के पास शब्दों या समझ का अभाव है। गैर भाजपाई तो शब्दों के कुटिल जादूगर हैं। यह अव्यक्तिकरण इसलिए है कि भाजपा का सर्वसमावेशन, सर्वस्पर्शन और सर्वव्याप्तिकरण का लक्ष्य समाज में तीव्रता से आ रहे परिवर्तनों के साथ साथ त्वरा भाव से उर्वर, अद्यतन होकर अपडेशन हमारे प्रस्तुत हो जाता है। तेजी से बदलते समाज में एक तीव्र और तेज वैचारिक अपडेशन को अपनाना यही भाजपा का देश भर में सत्तासीन होने का अंतर्तत्व है। यह तो निर्विवाद रूप से सभी मानते हैं कि पिछले तीन दशकों में विशेषतः पिछले दशक का भारत सौ वर्षों के परिवर्तनों को समेटे हुए है। भाजपा का वैचारिक तंत्र इस तीव्र, तेज, तीक्ष्ण सामाजिक परिवर्तन सौम्यता से प्रकट करने का सबसे बड़ा भारतीय संस्थागत ढांचा बन गया है।
यहां सौम्य शब्द का प्रयोग इसलिए है क्योंकि इस तेज युग के तीव्र सामाजिक परिवर्तनों के समय में सौम्य बने रहना तनिक कठिन और कष्टप्रद होता है किंतु भाजपा की सौम्यता है की जाती ही नहीं। भाजपा को यह सौम्यता संघ से मिलती है। संघ से इस सौम्यता को ग्रहण कर लेने की मशीन है पंडित दीनदयाल उपाध्याय जी का एकात्म मानववाद का सिद्धांत। एकात्म मानववाद का सिद्धांत भाजपा की रीढ़ है। भाजपा अपनी रीढ़ की रक्षा करना और रीढ़ पर टिके रहना दोनों भलीभांति सीख गई है। यही भाजपा नामक वटवृक्ष फोटो सिंथेसिस प्रोसेस अर्थात प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया है।
मोटी दृष्टि से देखें तो भारत में राजनीति की चार धाराएं हैं। भाजपा, कांग्रेस, वामपंथ और समाजवाद। भाजपा स्वयं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार से उपजी एक राजनैतिक धारा है। इसने अपने कोई डमी या छद्म रूप उत्पन्न नहीं किए। शेष तीन राजनैतिक विचार अपने डमी उत्पन्न करके छल करते रहते हैं। जैसे कांग्रेस से तृणमूल कांग्रेस या राष्ट्रवादी कांग्रेस। कांग्रेस, वामपंथ व समाजवाद ने सकारात्मक विमर्श तो कम उपजाए किंतु नकारात्मक विमर्शों में ये लोग मास्टर ऑफ मास्टर्स हो गए हैं।
भाजपा के बड़े स्तर पर सत्तासीन हो जाने से लोग बहुधा एक बात कहते हैं; अरे, अब यह “पार्टी विद डिफ़रेंस” नहीं रही। विरोधी दल स्वानंद के लिए यह कह लें किंतु भाजपा आज भी “पार्टी विद डिफ़रेंस” ही है!! भाजपा में अनेक दलों से करोड़ो कार्यकर्ता आकर सम्मिलित हुए हैं, लाखों पदाधिकारी आए, हजारो सांसद विधायक आये; किंतु क्या भाजपा ने क्या मंदिर को छोड़ा? कश्मीर को छोड़ा? सामान नागरिक संहिता को छोड़ा? तुष्टिकरण के विरुद्ध अभियान को छोड़ा? हिंदुत्व के आग्रह को छोड़ा? आप पिछले एक दो दशक में सभी भारतीय दलों दलों द्वारा विकसित किये गए विमर्शों को जांचे तो पता चलेगा की वैचारिक दृष्टि से शेष दल सुविधाभोगी हो गए हैं किंतु भाजपा ने अपना वैचारिक आग्रह नहीं छोड़ा। भाजपा ने दुसरे दलों से कार्यकर्ता, पदाधिकारी, विधायक, सांसद अपने दल में लिए अवश्य किंतु आने वाले व्यक्ति और उनके विचार बदले हैं भाजपा का वैचारिक आग्रह नहीं बदला है। भाजपा आज भी अपने संघी ध्रुव पर, एकात्म मानववाद पर, अन्त्योदय पर, राममंदिर पर, समान नागरिक संहिता पर और ऐसे अनेक विषयों पर अंगद और अटलभाव से खड़ी हुई है। वहीं दूसरी ओर सत्ता प्राप्ति को बैचेन भाजपा से इतर के दल आजकल अपना वैचारिक आधार बनाना ही नहीं चाहते हैं। वो कभी इस डाल पर तो कभी उस डाल पर बैठते हैं। वो विचार बदलते हैं, परिवार बदलते हैं, आधार बदलते हैं और नौ सौ चूहे खाकर कभी हज को तो कभी हरिद्वार को जाने का प्रपंच करते हैं।
कांग्रेस कम्युनिस्ट होकर कटुक, बिटूक गई है। कम्युनिस्ट लोग इस्लामिस्ट होने का ढोंग रच रहे हैं। साम्यवादी समाजवादी तो पता नहीं क्या क्या प्रपंच कर रहे हैं। सबसे बड़ी बात सत्तासीन होने के लिए ये लोग भारतीयता को छोड़ने में अव्वल सदा रहते हैं। “भारतीयता को छोड़ना” इस एक बड़े शब्द का प्रयोग यहां किया है, किंतु आपके समक्ष कांग्रेस जनित आपातकाल और तुष्टिकरण के बाद के कालखंड के कुछ सामाजिक संदर्भ रख रहा हूं, थर्मामीटर लगाकर चैक करें कि इन संदर्भों में भाजपा से इतर वाले राजनैतिक दलों ने कितनी तेजी से सत्ता के लिए अपनी केंचुली बदली है। जनजातीय को हिंदुओं से अलग बताना, जैन और लिंगायत जैसे कुछ अन्य समुदायों को अलग धर्म या अल्पसंख्यक कराना, शाहबानों प्रकरण में न्यायालय के निर्णय को बदलना, एक देश दो विधान, आर्य अनार्य का वितंडा उपजाना, राममंदिर को संघ भाजपा का कार्यालय बताना, अयोध्या निर्माण में बाधाएं उत्पन्न करना, रामेश्वर रामसेतु के विध्वंस हेतु मशीनों का बेड़ा भेजना, श्रीराम को काल्पनिक बताना, ऐन दीवाली की रात्रि को पूज्य शंकराचार्य की गिरफ्तारी, देश में कोविड वेक्सिन को भाजपा की वेक्सिन कहना, विरोध, विदेशों में वेक्सिन डिप्लोमेसी का विरोध, नक्सलवाद, खालिस्तान, बोडो, माओइज्म, अनुच्छेद 370, पंडित विहीन कश्मीर, दक्षिण राज्यों में हिंदी विरोध के आधार पर राजनीति, भाषायी विभाजन, भीम मीम गठजोड़, मंडल-कमंडल, पूर्वोत्तर राज्यों में अलगाव, गुरमेहर कौर विवाद, चीन के साथ भारत के विवाद या संघर्ष में चीन की ओर झुकाव बताना जैसे कई कई मुद्दे हैं।
ये और इन जैसे अनेक अन्य मुद्दों पर भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी व प्रगतिशील राजनीतिक तत्वों ने सदैव ही राष्ट्र की मूलभावना के विपरीत आचरण प्रस्तुत किया है। भारत की परिवार परम्परा और विवाह परम्परा के विरुद्ध इनके षड़यंत्र आए दिन नए नए रूप में देश के प्रत्येक भाग में उभरते रहते हैं। सीआरपीएफ के 75 सैनिकों के नक्सलियों से संघर्ष करते हुए बलिदान होने पर उत्सव मनाने जैसी घटनाएं ये लोग आए दिन करते रहते हैं। इन सब प्रपंचों को करने के बाद यदि ये विभिन्न राजनैतिक दल जब सत्ताप्राप्ति के लिए एक होने का जब प्रयास करते हैं तो बड़ा हास्य उत्पन्न होता है। सांप-नेवला, कुत्ता-बिल्ली-चूहे की जोड़ी बना ली जाती है और समाज से समाज का समर्थन मांगा जाता है। समाज सोचता है किसे देखकर इन्हें समर्थन दें? कुत्ते को देखकर समर्थन दें तो वह बिल्ली को खा जाएगा बिल्ली को दें तो वह चूहे को खा जाएगी चूहे को दें तो वह देश को ही कुतर जाएगा। प्रश्न बड़ा है शेष फिर कभी…
(प्रवीण गुगनानी, विदेश मंत्रालय, भारत सरकार में राजभाषा सलाहकार )