आलोक मेहता। ब्रिटेन के विधि आयोग ने हाल ही में सरकार और संसद के लिए सरकारी गोपनीयता कानून में संशोधन प्रस्तावित किये हैं | इस प्रस्ताव में लीक डाटा हासिल करने वाले पत्रकार को जासूस मानकर दो से चौदह वर्षों तक की सजा का प्रावधान है | यह प्रस्ताव इस्राइल कंपनी एनएसओ की जानकारियां डेटा लीक होने से मचे बवाल के बाद लाया गया है | संसद में रखे जाने से पहले ही इसका विरोध भी शुरू हो गया है | अभिव्यक्ति की पूरी स्वतंत्रता के समर्थक ऐसे कदम को प्रेस की आज़ादी , खोजी पत्रकारिता के विरुद्ध बता रहे हैं।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अंकुश के मुद्दों पर विवाद
अत्याधुनिक संचार साधनों के दौर में लोकतांत्रिक देशों के लिए नई समस्याएं सामने आ रही हैं। यूरोप , अमेरिका और एशिया के देशों में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमाओं, अधिकार और आतंरिक अथवा बाहरी संकट से रक्षा के लिए अंकुश के मुद्दों पर गंभीर विवाद चल रहे हैं।भारत में भी सुरक्षा और सरकार विरोधी गतिविधियों या उन्हें रोकने के लिए जासूसी तरीके अपनाए जाने पर हंगामा बरपा है। यही नहीं कुछ बड़े मीडिया संस्थानों के प्रबंधकों के ठिकानों पर आयकर विभाग के छापों पर भी मीडिया की आवाज़ दबाने की कोशिश के रूप में माना जा रहा है | फिर भी विभिन्न राज्यों के अख़बार , पत्रिकाएं और न्यूज़ चैनल , डिजिटल चैनल सरकार की कमियों को उजागर करने के साथ प्रधान मंत्री सहित नेताओं के विरुद्ध तीखी टिप्पणियां कर रहे हैं। यही लोकतंत्र की ताकत है।
असल संकट जासूसी के इरादों का हैं
असली संकट इस बात का है कि पत्रकार सही या गलत इरादे से संचार साधनों से जासूसों की तरह जानकारियां एकत्र करते हैं और सरकार राजनैतिक अथवा सुरक्षा कारणों से पत्रकारों की जासूसी करवाती है | पत्रकार ही नहीं सत्ताधारी सरकारें नेताओं , अधिकारियों , व्यापारियों , पर भी बाकायदा नियम क़ानूनी प्रक्रिया से भी निगरानी करती रही हैं। कारपोरेट प्रतिद्वंदिता में निजी एजेंसियों से अवैध जासूसी के मामले सामने आए हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सरकारी गोपनीयता कानून ब्रिटिश राज की देन है | 1923 में लागू हुए कानून में आज़ादी के बाद कई संशोधन हो चुके हैं | फिर भी इसके दुरूपयोग के खतरे बने हुए हैं। सामान्यतः पत्रकारों पर इस कानून का उपयोग नहीं होता हैं |लेकिन यह भी सच है कि पत्रकार का चोगा पहनकर विदेशी ही नहीं देश के लोगों ने भी भारत विरोधी विदेशी ताकतों - एजेंसियों के लिए मोहरे बनकर जासूसी का काम किया है | चीन के लिए जासूसी करते एक पत्रकार राजीव शर्मा तो हाल ही में चीनी एजेंटों के साथ गिरफ्तार हुआ है | आतंकवादी अथवा नक्सली संगठनों को प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से सहायता करने वाले पत्रकारों - लेखकों या प्राध्यापकों पर केंद्र या राज्य सरकारों की नज़र रहती है और गंभीर मामलों में क़ानूनी कार्रवाई भी हो रही है।
पत्रकारिता को कमजोरियों और गड़बड़ियों से उबारना जरूरी
पत्रकारिता पर सरकारों के दबाव का विरोध स्वाभाविक है। पत्रकार संगठनों से अधिक राजनीतिक पार्टियां सड़क से संसद तक आवाज उठाती हैं | दूसरी तरफ समाज का एक वर्ग और वरिष्ठ पत्रकार यह मुद्दा भी उठाते हैं कि हम अपने लिए बने नियम कानूनों, प्रेस कौंसिल, एडिटर्स गिल्ड , ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन द्वारा निर्धारित आचार संहिता का कितना पालन कर रहे हैं | मुझसे इन दिनों अधिक सवाल इसलिए पूछे जा रहे हैं , क्योंकि हाल ही में ब्लूम्सबरी पब्लिशर्स ने अंग्रेजी में मेरी नई पुस्तक " पावर प्रेस एन्ड पॉलिटिक्स " प्रकाशित की है | इसमें मैंने पिछले पचास वर्षों के दौरान सम्पादकों प्रकाशकों पर रहे दबावों और पत्रकारिता के व्यावसायिक नए रूपों की भी विस्तार से चर्चा की है | मुझ जैसे कई संपादक - लेखक अपने क्षेत्र में रही कमजोरियों और गड़बड़ियों को स्वीकारने एवं इसमें सुधार के पक्षधर रहे हैं।
अवैध कमाई के खिलाफ कार्रवाई प्रेस पर हमला कैसे?
आजकल मीडिया में कारपोरेट प्रभाव की भी बहुत चर्चा हो रही है | जबकि पहले भी टाटा , बिड़ला , डालमियां , गोयनका, जैन जैसे बड़े उद्योगपतियों के व्यावसायिक समूहों के प्रकाशन समूह रहे हैं | उनका मिला जुला असर रहता था | नेहरू - इंदिरा राज में उन्हें जुट प्रेस और पूंजीपतियों के पूर्वाग्रह वाले संस्थान कहा जाता था | तब अधिकांश औद्योगिक समूह के मुख्यालय कोलकाता में होते थे और पटसन के कारखाने उस इलाके में थे | राजीव राव अटल मनमोहन राज में मीडिया का विस्तार होता गया | पूंजी का प्रभाव बढ़ गया | तेजी से बढ़ रहे अम्बानी समूह ही नहीं प्रदेशों में भी अरबपति कहे जाने वाले मालिकों के मीडिया संस्थान आ गए | यहां से पेंच शुरू हुआ। आपात काल के पहले या बाद में भी कई मालिकों और व्यावसायिक कंपनियों पर आय कर , विदेशी मुद्रा से सम्बंधित आर्थिक अपराधों के आरोपों पर छापे पड़ते रहे हैं और क़ानूनी कार्रवाई हुई | लेकिन तब अधिकांश सम्पादकों पत्रकारों ने इन्हें पत्रकारिता पर हमला नहीं बताया | कहीं-कंही पत्रकारों ने शीर्ष नेताओं या अधिकारियों से सहानुभूति दिलाने में मदद की होगी | लेकिन यदि प्रकाशन या प्रसारण से इतर व्यावसायिक धंधों , पेड न्यूज़ या चुनावों के दौरान प्रचार के लिए अवैध रूप से करोड़ों की कमाई या विदेशों में खाते खोलने पर आय कर और प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में बाधक कैसे कहा जाएगा ?
अवैध पूंजी पर कानूनी शिकंजा अभिव्यक्ति पर हमला कैसे
इसी तरह धर्म, जाति , साम्प्रदायिक मुद्दों के लिए निर्धारित नियम कानून आचार संहिता का पालन नहीं करने , प्रमाणों के बिना अनर्गल आरोपों के उपयोग , अश्लील सामग्री के प्रकाशन , हथियारों की खरीदी में विदेशी कंपनियों की लॉबी के प्रभाव वाली खबरें,पेड न्यूज़ जैसे गंभीर मामले बढ़ते जा रहे हैं | इन पर सरकारी क़ानूनी कार्रवाई में समय लगता है | लेकिन मीडिया की विश्वसनीयता कम होती जा रही है | यह काम एक वर्ग करता है , लेकिन कलंक संपूर्ण पत्रकारिता पर लगता है। आज चीन और पाकिस्तान भी भारतीय मीडिया को प्रभावित करने की अधिक कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अमेरिका , सोवियत रूस , और ब्रिटिश फ्रेंच लॉबी ही नहीं उनकी गुप्तचर एजेंसियों के साथ जुड़ जाने वाले पत्रकारों के आपराधिक मामले भी आए हैं। डिजिटल युग में तो यह खतरे अधिक बढ़ गए हैं | दो चार वर्षों में विदेशों से अवैध ढंग से करोड़ों रुपयों की पूंजी लेकर वेब पोर्टल या टी वी न्यूज़ नेटवर्क चलाने पर क़ानूनी शिकंजा कसने को अभिव्यक्ति के अधिकार पर हमला कैसे माना जा सकेगा?
पत्रकारिता के आंगन को साफ-सुथरा रखने के प्रयास जरूरी
मीडिया संस्थानों , सम्पादकों , पत्रकारों की वैचारिक मत भिन्नताओं को सदैव उचित कहा जाता रहा है| लेकिन व्यावसायिक हितों की तरह वैयक्तिक प्रतियोगिता , जलन , पूर्वाग्रह के कारण कई संस्थान और पत्रकार भी सरकारों या अन्य संगठनों के माध्यम से एक दूसरे का नुक्सान करने , क़ानूनी कार्रवाई , सोशल मीडिया पर अनर्गल आरोपबाजी करवाने की घिनौनी गतिविधियां करने लगे हैं। इस तरह अपनी बिरादरी की खींचतान से पहले भी नामी सम्पादकों को सरकारों तथा प्रबंधन से बहुत नुक्सान पहुंचा है | मैंने अपनी पुस्तक में भी ऐसे कई सम्पादकों से जुड़ी बातें लिखी हैं | इस दृष्टि से पत्रकारिता के आँगन को साफ़ सुथरा रखने और अभिव्यक्ति के अधिकारों को अक्षुण्ण रखने के लिए विभिन्न स्तरों पर प्रयासों की आवश्यकता है |( लेखक विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादक रहे हैं। )