एसआर रावत. वर्ष 1957-58 में मेरा बालाघाट से ट्रांसफर सिवनी डिवीजन में अटैच अधिकारी के रूप में हुआ। सिवनी पोस्टिंग के समय मुझे काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा लेकिन एक सीख भी मिली कि सरकारी सेवा में रहते हुए अधीनस्थ अधिकारियों व कर्मचारियों से किस तरह का व्यवहार करना चाहिए। एक सीख यह भी मिली कि अधीनस्थ अधिकारियों व कर्मचारियों से किस प्रकार का व्यवहार नहीं करना चाहिए।
घर की जासूसी करवाते थे डीएफओ
मेरे डीएफओ कुछ अजीब तरह की हीन भावना से ग्रसित थे। सिवनी पदस्थापना के दौरान मैं उनकी हीन भावना और प्रताड़ना से परेशान रहा। सिवनी में आने के पूर्व मैं उनसे कभी मिला तक नहीं था। जबलपुर-नागपुर सड़क पर मुझे सरकारी आवास आवंटित हुआ था। डीएफओ का आवास भी नजदीक था। मेरे आवास तक आने जाने वाले के लिए डीएफओ आवास के सामने से आना होता था। उनके आवास से हमारे घर की हर गतिविधि स्पष्ट रूप से दिखती थी। मेरे घर कोई मिलने आता या हम पति-पत्नी कहीं बाहर जाते तो न केवल डीएफओ साहब बल्कि उनका शासकीय सेवक हमारी गतिविधि पर नज़र रखता। डीएफओ साहब के दोनों बच्चे भी शायद इस काम के लिए प्रशिक्षित थे। यदि हम लोग फिल्म देखने जाते तो अगले ही दिल डीएफओ साहब व्यंग्य के साथ कहते कि काम के बोझ के कारण वे तो फिल्म देखने जाने की सोच नहीं सकते क्योंकि शाम को भी फाइलें निबटाने का काम करना पड़ता है। डीएफओ साहब ने कुछ ऐसे काम भी किए जो व्यक्तिगत व पारिवारिक रूप से कष्टदायी थे।
महत्वहीन बनाने की कवायद
मेरी ट्रेनिंग चंद्रपुर व बालाघाट में पूरी हो चुकी थी इसलिए आशान्वित था कि अब फॉरेस्ट डिवीजन के सभी काम आसानी से अपनी देखरेख में पूर्ण कर सकूंगा। उस समय आश्चर्यचकित हुआ जब डीएफओ ने मेरी सिवनी पदस्थापना के अधिकांश समय केवल कूपों की मार्किंग का कार्य करवाया। सामान्यत: फॉरेस्ट महकमे में मार्किंग का काम फॉरेस्ट गार्ड या रेंजर, रेंज आफिसर के मार्गदर्शन में करते हैं। एसीएफ रेंक के अधिकारी केवल इस कार्य का इंस्पेक्शन व चेकिंग भर किया करते हैं। इस दौरान फॉरेस्ट महकमे के अन्य कार्य सीमित मात्रा में यदा कदा मुझसे करवाए गए। रेंज आफिसर्स व अन्य कर्मचारियों को निर्देश थे कि मेरे द्वारा कार्य में दखल देने पर डीएफओ को तत्काल सूचित किया जाए।
डीएफओ ने मुझे अपने ही दफ्तर में महत्वहीन बना दिया
डीएफओ के निर्देश से अधीनस्थ कर्मचारी मुझसे मिलने का प्रयास तक नहीं करते और दूरी बनाए रखते। आफिस के कर्मचारियों को निर्देश थे कि बिना डीएफओ की जानकारी के मेरे पास कोई फाइल ने भेजी जाए। डीएफओ की इस कार्यप्रणाली से फील्ड व आफिस के कर्मचारियों के सामने मुझे महत्वहीन बना दिया गया। मुझे प्रतिमाह 15 से 20 दिन का दौरा करना निर्धारित था। इसमें 10 से 12 दिन बाहर रात्रि विश्राम करना जरूरी था। टूर प्रोग्राम प्रत्येक माह के प्रथम सप्ताह में अनुमोदन करवा कर उसी के मुताबिक दौरा कर के कार्य करना पड़ता था। यदि अनुमोदित टूर प्रोगाम से हटकर दौरा किया जाता तो उसका स्पष्टीकरण देना होता था।
मुख्यालय से 20 किमी दूरी पर 10 दिन का रात्रिकालीन कैंप
रुखड़ फॉरेस्ट एरिया सिवनी से सिर्फ 20 किलोमीटर दूरी पर स्थित था। जहां प्रतिदिन सुबह जा कर काम पूर्ण कर शाम को वापस सिवनी आ सकता था। डीएफओ साहब के कारण मुझे रुखड़ में आठ-दस दिन तक रात्रि का विश्राम कर कैंप करना पड़ता। यहां केवल मार्किंग कार्य ही करना था। डीएफओ के निर्देश के कारण रेंज आफिसर भी स्वयं का महत्वपूर्ण समझने लगे और मेरे दौरे पर वे मुझसे मिलना जरूरी नहीं समझते थे। वे कई बार मेरे विरूद्ध डीएफओ के कान भरते रहते थे। मेरे दौरा के बाद डीएफओ कभी- कभी उस जगह पर जाते और अधीनस्थ कर्मचारियों से जानकारी लेते रहते कि मैं किस समय पर वहां गया, कब वापस लौटा, कौन कौन लोग मुझसे मिलने आए थे, मैंने क्या-क्या सामान बुलवाया और उसका भुगतान किया कि नहीं। डीएफओ की इस कार्यप्रणाली के कारण अधीनस्थ आफिसर व कर्मचारियों के सामने मेरी अपमानजनक स्थिति होने के साथ ही मुझे महत्वहीन बना दिया गया।
घर लौटने से पहले ही सीधे दौरे पर भेजा
एक बार कुछ जरूरी कार्य आ जाने के कारण अवकाश लेकर मैं अपनी पत्नी को सिवनी में छोड़ कर कुछ समय के लिए जबलपुर चला गया। काम पूर्ण कर जब मैं बस से लौट रहा था, तो नेशनल हाइवे के किनारे बने लखनादौन रेस्ट हाउस में डीएफओ साहब को देख कर औपचारिकतावश उनसे मिलने बस से उतर कर गया। जैसे ही उनसे मिला उन्होंने तत्काल निर्देश दिए कि आप बीच में यहीं यात्रा समाप्त कर घंसौर चले जाएं, जहां कुछ जरूरी काम पूर्ण करना है। पत्नी सिवनी में कई दिनों से अकेली थी और मैं काफ़ी थका हुआ भी था। फिर भी उनके निर्देशानुसार मैं बस से घंसौर गया और तीन-चार दिन में कार्य पूर्ण कर वापस सिवनी लौटा। बाद में आभास हुआ कि मुझे उनसे मिलने की कोई अनिवार्यता नहीं थी और अनावश्यक रूप से उनसे मिलने जाना था।
डीएफओ को मेरा कलेक्टर से मिलना रास नहीं आया
एक बार मैं सिवनी के कलेक्टर से मिलने गया। वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन कलेक्टर के माध्यम से ही उच्चाधिकारियों को भेजी जाती थी। इस दौरान मैं कलेक्टर से कभी नहीं मिला था। यदि कलेक्टर से नहीं मिलता तो वे गोपनीय प्रतिवेदन में लिख सकते थे कि उन्होंने तो इस अधिकारी को कभी देखा ही नहीं, जो मेरे विरूद्ध ही होती। डीएफओ साहब को इसकी सूचना मिली तो उनकी बातों से स्पष्ट हुआ कि उन्हें मेरा कलेक्टर से मिलना पसंद नहीं आया। कभी-कभी आफिस पहुंचने में देर हो जाती या बंदूक लायसेंस को रिन्यू करवाने कलेक्ट्रेट चला जाता तो मुझे तत्काल डीएफओ साहब की हस्तलिखित स्लिप मेरी टेबल पर रखी मिलती, जिसमें मेरा स्पष्टीकरण देर से आने या अनुपस्थिति के लिए मांगा जाता।
डीएफओ टेलीफोन पर बात करने से बचते थे
जासूसी के काम में डीएफओ का एक मुंह लगा बाबू जासूस की भूमिका निभाता। यह बाबू दरवाजे के पर्दा को उठा कर मेरे कक्ष में तांक-झांक करता रहता था। इस तरह की तीस चालीस स्लिप मेरे पास बहुत दिनों तक रखी रहीं, जिन्हें बाद में मैंने डस्टबिन में डाल दिया। एक बार मैं डीएफओ साहब के कक्ष में बैठा हुआ था। पास में एक रेंज ऑफिसर ड्रेस में खड़े हुए थे। उसी समय टेलीफोन की घंटी घनघनाई। डीएफओ साहब ने रेंज ऑफिसर से टेलीफोन उठाने और बात करने का इशारा किया। रेंज ऑफ़ीसर ने फोन पर कहा कि साहब बाहर गए हुए हैं और मैं दफ्तर का बाबू बोल रहा हूं। इस प्रकार डीएफओ साहब फोन पर बात करने से बचते रहते थे या वे टेलीफोन पर बातचीत करने से डरते थे।
जब पोस्ट बॉक्स से सरकारी लिफाया वापस लाया गया
उच्चाधिकारियों को भेजने वाले पत्रों का ड्राफ्ट फॉरेस्ट आफिस के अकाउंटेंट व अन्य लिपिक प्रस्तुत करते थे। जिन्हें डीएफओ साहब अनुमोदन कर टाइपिंग के लिए भेज देते। जब टाइप पत्र उनके सामने प्रस्तुत होता तो वे कुछ पत्रों पर पुनः विचार कर उनमें संशोधन करते और फिर से टाइपिंग के लिए भेज देते। ऐसा कई बार होता रहता था। शायद उनकी सोच में अस्थिरता थी। एक बार डीएफओ साहब ने पत्र का अनुमोदन किया और टाइप होने के बाद उसमें डिस्पैच नंबर डालकर लिफाफे में बंद कर लेटर बॉक्स में पोस्ट करवा दिया गया। डीएफओ साहब को बाद में याद आया कि उस पत्र में कुछ संशोधन की जरूरत है। उन्होंने तत्काल एक बाबू को भेजा कि लेटर बॉक्स में डाले हुए लिफाफे को वापस लाया जाए। पोस्ट मास्टर ने बाबू को वह लिफाफा देने से मना कर दिया। पोस्ट मास्टर ने कहा कि यदि लिफाफा वापस चाहिए तो डीएफओ साहब का पत्र लेकर आना पड़ेगा। वह बाबू डीएफओ साहब के पास आया औऱ उनका टाइप किया हुआ पत्र लेकर गया, तब कहीं जा कर वह पोस्ट किया हुआ लिफाफा वापस मिल पाया।
( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )