डॉ. वेदप्रताप वैदिक का दिल्ली में हार्ट अटैक से निधन हो गया। उन्होंने हिन्दी को उचित सम्मान देने के लिए भी कार्य किया। एक राजनीतिक विश्लेषक और स्तंभकार के रूप में उनकी उपस्थिति प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों में रही। उनके कार्यों को लेकर कई बार संसद में गंभीर बहस हुई।
हिंदी के लिए किया संघर्ष
1971 में उन्होंने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से पीएचडी की। उनके शोध का विषय था 'अफगानिस्तान में सोवियत अमेरिकी प्रतिस्पर्धा'। उनका यह शोध प्रबंध हिन्दी में था, जिसे जेएनयू ने मान्यता नहीं दी और कहा कि उसे अंग्रेजी में प्रस्तुत किया जाए। उन्होंने इसका विरोध यह कहकर किया कि हिन्दी हमारी मातृभाषा है। वे आंदोलन में सड़कों पर उतरे। उस संघर्ष को भारतीय भाषाओं के संघर्ष का प्रतीक माना गया।
डॉक्टरेट की उपाधि के लिए लंबा राष्ट्रीय विवाद
अंग्रेजी विरोधी आंदोलन के कारण ही उन्हें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज से निष्कासित किया गया। हिन्दी में लिखे शोध प्रबंध पर डॉक्टरेट की उपाधि के लिए लम्बा राष्ट्रीय विवाद चला। अनेक बार संसद में हंगामा भी हुआ। संसद में डॉ. राम मनोहर लोहिया, अटल बिहारी वाजपेयी, चन्द्रशेखर मधु लिमये, आचार्य कृपलानी, हीरेन मुखर्जी, प्रकाश वीर शास्त्री, भागवत झा आजाद, हेम बरुआ आदि ने वैदिक जी का समर्थन किया।
वेदप्रताप जी के लिए पीएम इंदिरा गांधी ने की पहल
स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज ने उनकी छात्रवृत्ति रोक दी थी और संस्थान से बाहर का रास्ता दिखा दिया था, जिसका चारों तरफ विरोध हुआ और आखिर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पहल की और जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज का संविधान बदला गया और वेदप्रताप वैदिक की ससम्मान वापसी हुई। उन्होंने हिन्दी पत्रकारिता को अंग्रेजी की पत्रकारिता के समकक्ष लाने के लिए लगातार कार्य किया। उन्होंने इस बात को सरासर गलत साबित किया कि केवल अंग्रेजी भाषा में ही उच्च अध्ययन और शोध किए जा सकते हैं।
आतंकी हाफिज सईद से की थी मुलाकात
2014 में भी वैदिक जी को लेकर भारतीय संसद में कई दिन तक हंगामा होता रहा। इसका कारण उनका पाकिस्तान जाकर आतंकवादी हाफिज सईद से मुलाकात करना था। मुंबई में आतंकी हमले के मास्टरमाइंड हाफिज सईद से मुलाकात की तस्वीर उन्होंने सोशल मीडिया में जारी की थी। इस मुलाकात की तस्वीर वायरल होने के बाद कड़ी आलोचनाओं के बाद उन्होंने सफाई देते हुए कहा कि मैंने सईद से मुलाकात एक पत्रकार होने के नाते की थी।
जीवन के अंत तक हिंदी के लिए लड़ते रहे
वेद प्रताप वैदिक की हिन्दी की लड़ाई उनके जीवन के अंत तक जारी रही। उनके प्रयासों ने अनेक स्थानों पर हिन्दी को प्रतिष्ठित तो कर दिया, लेकिन संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी की वैसी स्थापना अभी नहीं हो पाई है। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में हिन्दी को लेकर लिखा था- 'संयुक्त राष्ट्र संघ में अगर अब भी हिंदी नहीं आएगी तो कब आएगी ? हिंदी का समय तो आ चुका है लेकिन अभी उसे एक हल्के-से धक्के की जरूरत है। भारत सरकार को कोई लंबा-चौड़ा खर्च नहीं करना है, उसे किसी विश्व अदालत में हिंदी का मुकदमा नहीं लड़ना है, कोई प्रदर्शन और जुलूस आयोजित नहीं करने हैं। उसे केवल डेढ़ करोड़ डॉलर प्रतिवर्ष खर्च करने होंगे, संयुक्त राष्ट्र के आधे से अधिक सदस्यों (96 ) की सहमति लेनी होगी और उसकी काम-काज नियमावली की धारा-51 में संशोधन करवाकर हिंदी का नाम जुड़वाना होगा। इस मुद्दे पर देश के सभी राजनीतिक दल भी सहमत हैं। सूरिनाम में संपन्न हुए पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन में मैंने इस प्रस्ताव पर जब हस्ताक्षर करवाए तो सभी दलों के सांसद मित्रों ने सहर्ष उपकृत कर दिया।'
वेद प्रताप वैदिक जी की कमी खलती रहेगी
वैदिक जी का मानना था कि अगर हमने संयुक्त राष्ट्र में पहले हिन्दी बिठा दी तो हमें सुरक्षा परिषद में बैठना अधिक आसान हो जाएगा। 1945 में संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषाएं केवल 4 थीं। अंग्रेजी, रूसी, फ्रांसीसी, और चीनी। सिर्फ ये 4 ही क्यों? सिर्फ ये 4 इसलिए कि ये चारों भाषाएं 5 विजेता महाशक्तियों की भाषा थीं। अमेरिका और ब्रिटेन, दोनों की अंग्रेजी, रूस की रूसी, फ्रांस की फ्रांसीसी और चीन की चीनी! वेदप्रताप वैदिक ने भारतीय भाषाओं के समर्थन में कई आंदोलन किए और जेल भी गए थे। वे व्यवसाय करने वाले अग्रवाल परिवार में जन्मे, आर्य समाजी रहे। उनकी कमी खलती रहेगी।