सिवनी से मेरा ट्रांसफर भोपाल फॉरेस्ट डिवीजन में वर्किंग स्कीम ऑफिसर के पद पर हुआ। उस समय भोपाल में केवल दो डीएफओ ईस्ट व वेस्ट हुआ करते थे। ये दोनों डिवीजन ऑफिस बड़े तालाब के किनारे सदर मंज़िल के पास एक ही बिल्डिंग में आजू-बाजू में थे। डिवीजन ऑफिस की खिड़की से भोपाल तालाब का मनोरम दृश्य साफ दिखता था। भोपाल के दोनों डीएफओ फॉरेस्ट कंजरवेटर होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) के अधीन थे। मध्यप्रदेश का पुनर्गठन हो गया था। फॉरेस्ट महकमे का मुख्यालय पूर्व विंध्य प्रदेश की राजधानी रीवा में ही रखा गया। सभी उच्चाधिकारी रीवा में ही पदस्थ थे, लेकिन प्रदेश की राजधानी भोपाल में होने के कारण वन मंत्री भोपाल में रहते थे। शासन स्तर की तमाम बैठकों में भाग लेने के लिए उच्चाधिकारी रीवा से भोपाल दौरे पर आते थे। इस व्यवस्था के कारण फॉरेस्ट महकमे के उच्चधिकारियों का अधिकांश समय रीवा व भोपाल के बीच आने जाने में बीतता था। इस कारण फॉरेस्ट महकमे के कार्य पिछड़ते रहते थे। रोशनपुरा में रेंज ऑफिसर भोपाल के क्वार्टर थे, जिन्हें फेरबदल कर फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में बदल दिया गया था। इस फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में बाहर से आने वाले फॉरेस्ट ऑफिसर ठहरा करते थे। रोशनपुरा वही स्थान है जहां बाद में कांग्रेस भवन का निर्माण किया गया।
डिवीजन राजधानी में लेकिन ऑफिस सीहोर व रायसेन में
भोपाल स्टेट में केवल दो जिले सीहोर एवं रायसेन थे। भोपाल फॉरेस्ट डिवीजन ईस्ट में रायसेन जिले के और भोपाल फॉरेस्ट वेस्ट डिवीजन में सीहोर जिले जंगल क्षेत्र शामिल थे। एसएल पाराशर भोपाल ईस्ट और एसके वशिष्ठ वेस्ट के डीएफओ थे। कंजरवेटर पद पर एसडीएन तिवारी पदस्थ थे। उनके अधीन भोपाल के दोनों डिवीजन आते थे। भोपाल प्रदेश की राजधानी थी, लेकिन विभागाध्यक्ष यहां पदस्थ नहीं था। इसका कारण भोपाल़ की हुजूर, सीहोर जिले की एक तहसील थी और विभागाध्यक्ष का हेडक्वार्टर सीहोर में था। इसी तरह रायसेन जिले के विभागाध्यक्ष रायसेन में ही पदस्थ थे। कुछ वर्ष पश्चात् नए भोपाल जिले का गठन किया गया।
डिवीजन ऑफिस में भोपाली संस्कृति की झलक
जैसे ही फॉरेस्ट डिवीजन ऑफिस में पहुंचा वैसे ही मुझे कुछ अजीब सा वातावरण देखने को मिला। भोपाल स्टेट से आए हुए अधिकांश कर्मचारियों की भाषा सूरमा भोपाली जैसी ही थी। जो पान चबाते रहते। अंगुली में चूना लगाए रहते, जिसको यदा.कदा पान तम्बाकू का सही स्वाद निर्मित करने के लिए दांत से काट कर खाते रहते। ऑफिस की दीवारों के अधिकांश कोनों में थूके हुए लाल पीक से बनी हुई कलाकृतियां दूर से ही दिखाई देती थी। अधिकांश कर्मचारियों के पहनावे में भी भोपाल की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती थी।
बिना वाहन के जंगल का सर्वे
मुझे फॉरेस्ट डिवीजन भोपाल वेस्ट यानी कि सीहोर जिले के समस्त प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट एरिया का सर्वे कर नक्शे बनाने, पूरे जंगल क्षेत्रों का निरीक्षण कर वहां के जंगलों का स्टॉक मैपिंग कर जंगलों की स्थिति का आंकलन कर अगले दस वर्षों के लिए योजना तैयार करना थी। यह कठिन कार्य था। मेरा पद नवनिर्मित था जिसका कोई ऑफिस नहीं था और ना ही कोई साधन उपलब्ध थे। इस काम के लिए कोई शासकीय वाहन भी नहीं था। सर्वे करने के लिए पटवारियों की सहायता लेना आवश्यक था, लेकिन वे मेरे अधीनस्थ नहीं थे। पटवारियों के रिकार्ड के अनुसार खसरा नंबर देख कर जंगल क्षेत्रों का सर्वे किया जाना था। वर्किंग स्कीम तैयार होने के बाद उसे प्रिंट कर वॉल्यूम एक व वॉल्यूम दो के रूप में पूरे जंगल क्षेत्र के नक्शों सहित प्रस्तुत किया जाना था। इसके अनुसार ही इन जंगल क्षेत्रों में अगले दस वर्षों तक कार्य किया जाना प्रस्तावित था।
आभार भी बिना नाम का
मेरी पदोन्नति वर्ष 1961 में डीएफओ के पद पर हुई। मुझे डीएफओ बिलासपुर नार्थ के पद पर पदस्थ किया गया कुछ समय पश्चात मेरे सिवनी वाले डीएफओ साहब वर्किंग प्लान ऑफिसर के पद पर बिलासपुर नार्थ फॉरेस्ट डिवीजन में पदस्थ किए गए। उनका यह स्पेशल ड्यूटी जॉब था। बिना डीएफओ के सहयोग के उन्हें कामकाज में काफ़ी कठिनाई हो सकती थी। मैंने उन्हें पूर्ण सहयोग देने का निश्चय किया, ताकि उनके कार्य में कोई कठिनाई न आ पाए। प्रतिमाह ऑफिस व अन्य सरकारी कामों के खर्च के लिए चेक मेरे द्वारा दिया जाता था। उन्हें उसका लेखा-जोखा मेरे ऑफिस में भेजना पड़ता था। यदा कदा उन्हें अपने काम के लिए मेरे ऑफिस में आना पड़ता था। डीएफओ साहब आदत व स्वभाव से मजबूर थे। जब भी वर्किंग प्लान सबमिट किया जाता तो उसकी प्रस्तावना में सामान्यतः जिन ऑफिसरों का नाम रहता उनके प्रति आभार जताया जाता। डीएफओ साहब डीएफओ बिलासपुर नार्थ का आभार तो व्यक्त करते लेकिन नाम का उल्लेख नहीं करते। ऐसे समय मुझे अधीनस्थ रहते उनकी वह कार्यप्रणाली याद आ जाती, जिनके कारण मैं मुसीबत में पड़ सकता था। उनके साथ काम करते हुए ऐसे ही दो वाक्ये हैं जो मुझे आज भी याद हैं।
जब बंडल से वाउचर ही कर दिया गायब
फॉरेस्ट महकमे द्वारा बरघाट में रेंज ऑफिसर क्वार्टर व अन्य दो तीन भवन बनाए जा रहे थे। निर्देशों में प्रावधान था कि फाउंडेशन की खुदाई उपरांत फॉरेस्ट महकमे के राजपत्रित अधिकारी द्वारा निरीक्षण करवा कर उसके सही होने का सर्टिफिकेट दिया जाता था। मुझसे जब फाउंडेशन सर्टिफिकेट देने के लिए कहा गया तो मैंने देखा कि फाउंडेशन तो पूर्व में ही भरी जा चुकी है। भवन काफी ऊंचाई तक बन चुके थे। इसके बावजूद मैंने बाजू से खुदाई कर फाउंडेशन की जांच की और सभी भवनों का फाउंडेशन सर्टिफिकेट प्रस्तुत किया। यह काम भी पिछली तारीख में हस्ताक्षर करने जैसा ही था। प्रत्येक रेंज ऑफिस का वर्ष में एक बार निरीक्षण डीएफओ द्वारा किया जाना निर्धारित था। डीएफओ के निरीक्षण से पहले डीएफओ ऑफिस से अकाउंटेंट एक सहायक के साथ रेंज ऑफिस जाते और चार-पांच दिन में कार्यालय के सभी रिकॉर्ड की छानबीन कर प्रारूप निरीक्षण रिपोर्ट तैयार कर लेते थे। डीएफओ ने मुझे एक रेंज कार्यालय का निरीक्षण करने के निर्देश दिए। फॉरेस्ट डिवीजन ऑफिस से अकाउंटेंट अपने सहायक के साथ उस रेंज कार्यालय में गए और प्रारूप रिपोर्ट तैयार की। निरीक्षण के दौरान एक वाउचर ऐसा मिला जिस पर दर्शाई गई राशि उस वाउचर के सामने कैश बुक में दर्शाई गई राशि से भिन्न थी। यह गंभीर त्रुटि थी। रेंज स्तर के कर्मचारियों को जैसे ही यह जानकारी मिली उन्होंने चुपचाप रात के समय वाउचरों के बंडल से वह वाउचर ही गायब कर दिया। इस त्रुटि के संबंध में मैंने अपनी रिपोर्ट डीएफओ के समक्ष प्रस्तुत कर दी। फॉरेस्ट डिवीजन ऑफिस से भेजे गए अकाउंटेंट को वाउचरों के बंडल को सुरक्षित रखना चाहिए था, जिसे करने में वे भी असमर्थ रहे।
डीएफओ ने सिवनी में डाल दी हायर पद की नींव
सिवनी में डीएफओ द्वारा मुझे महत्वहीन बनाने और अधीनस्थ कर्मचारियों के सामने अपमानजनक स्थिति उत्पन्न करने के बाद भी मैं प्रतिवाद करने या आपत्ति जताने या उच्च अधिकारियों से उनकी शिकायत करने से बचता रहा। इसका कारण यह था कि शासकीय सेवा में नया था और यदि वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन में डीएफओ द्वारा विपरीत टिप्प्णी कर दी जाती तो मेरी नौकरी के स्थायी होने में खतरा मंडरा जाता और मेरे आगे बढ़ने के कदम रुक जाते। यहां मेरी सोच गलत निकली। डीएफओ साहब ने मेरे वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन में विपरीत टिप्पणी कर दी। इसकी सूचना मुझे शासन स्तर से सूचित की गई और इसके प्रतिवाद में मैंने अपना प्रतिनिधित्व किया। डीएफओ सिवनी रिटायर होने के बाद जबलपुर में सेटिल हुए। बाद में जबलपुर पोस्टिंग के दौरान मैं उनसे मिलता रहा और अधीनस्थों को उनके छोटे मोटे काम के लिए भेजता रहा। जब मेरी पदोन्नति फॉरेस्ट महकमे के उच्चतम पद प्रधान मुख्य वन संरक्षक मध्यप्रदेश के रूप में हुई, तब सिवनी वाले डीएफओ साहब ने पत्र भेज कर बधाई दी। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि इस पद पर पदोन्नत होने की नींव उनके द्वारा मेरी सिवनी पदस्थापना के समय ही डाल दी गई थी।
( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )