मध्यप्रदेश मध्य का या केंद्रीय प्रदेश है या यह एक अवशिष्ट( residual) प्रदेश है। कहा जाता है कि जब मध्यप्रदेश बना तो पहले अड़ोस-पड़ोस के राज्य बन गये और जो बचा रह गया वह मप्र हुआ। जब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री के पास राज्यों का नक़्शा ले जाया गया तो पहली प्रतिक्रिया यही थी कि ऐसा लगता है जैसे कोई ऊंट बैठा हुआ है लेकिन यह एक ऊंटपटांग प्रदेश न था। तब कहा यही गया था कि यही बाकी रह गया हिस्सा था। तो मध्यप्रदेश शेष-प्रदेश हुआ। शेष होकर ही विशेष हुआ। हमारी परंपरा में शेष विष्णु की शैय्या है। विष्णु को सुलाते हैं लेकिन उनके अवतार प्रभु राम की पहरेदारी में स्वयं जागते हैं। शेष के अवतार इस राज्य में दो दो बार आये। कभी लक्ष्मण बनकर, कभी बलराम बनकर। महादेवी वर्मा की एक कविता है जो मध्यप्रदेश के लिए भी उतनी ही सच है।
पूछता क्यों शेष कितनी रात!
धूम-लेख स्वर्ण-अक्षत नील कुमकुम वारती ले
मूक प्राणों में व्यथा की स्नेह-उज्जवल आरती ले
मिल अरे बढ़ रहे यदि प्रलय-झंझावात!
कौन भय की बात?
पूछता क्यों शेष कितनी रात
विकास की एक बड़ी यात्रा तय की
विभिन्न झंझाओं में भी निर्भय
मध्यप्रदेश भी उसी शेष की तरह विभिन्न झंझाओं में निर्भय होकर जागा है। या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। उसने विकास की एक बड़ी यात्रा तय की है। वह उदासीन होकर नहीं रहा है जैसा कि इसके बारे में कुछ लोगों का इंप्रेशन है कि जैसा डॉम मोरेस अपनी ‘ आन्सर्ड बाइ फ्लूट्स’ में किसी की इस राय का उल्लेख करते थे कि जैसे चुंबक के बीच का बिंदु उदासीन होता है वैसे ही मप्र भी है लेकिन जिसे मप्र की उदासीनता कहा जाता है, वह इसका संतुलन है। इसका मध्यममार्ग, बुद्ध के शब्दों में ‘ मध्यमा प्रतिपदा’। उसी के चलते हम मप्र हैं। यह प्रदेश कभी अतियों पर नहीं चला। न यहां वैसी वीभत्स सांप्रदायिकता रही, न वैसा ज़िद्दी जातिवाद और न वैसा दुर्धर्ष श्रमिक असंतोष। अब यह बात अलग है कि जार्ज शुल्ज़ कहते हैं कि जो रास्ते के बीच में चलता है, उसे दोनों तरफ की गाड़ियों से टकराने का ख़तरा रहता है।(He who walks in the middle of the road gets hit from both sides.) सो कई बार यह भी हुआ कि यह दोनों तरफ़ से गया। न माया मिली न राम। स्वर्ण चतुर्भुज के प्रारंभिक ड्राफ़्ट में मप्र था ही नहीं। बाद में आया लेकिन मप्र उदासीन नहीं है बल्कि इसका एक प्रतिस्पर्धी स्वभाव बन गया है। परिवार में मध्य का बच्चा जैसे होता है जो बड़े से आदर के लिए स्पर्धा करता है और छोटे से लाड़ के लिए। मध्य में होना एक प्रतिस्पर्धी स्पिरिट का होना है। यह स्पिरिट ही मप्र के विकास की कुंजी है। यही इसे भीम जैसा बली बनायेगा। ‘मध्यम व्यायोग’ इसका भी है।
कभी इनसाइडर आउटसाइडर वाली फीलिंग नहीं रही
मप्र का मध्य होना इसका चारों ओर से प्रभाव ग्रहण करने के लिए खुला होना भी है। यहां हर राज्य और विश्वास के लोग आये और कभी इनसाइडर आउटसाइडर वाली फ़ीलिंग नहीं रही। इस मामले में मप्र देश की समन्वयवादी संस्कृति का सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि बन गया यदि यह देश एक तरह का ऐसा पात्र है जिसमें सब घुल मिल जाता है तो मप्र उस भाव की सबसे अच्छी अभिव्यक्ति बना। यदि यह हृदय प्रदेश है तो देश के बीचोंबीच होने के रूखे भौतिक तथ्य के कारण नहीं है बल्कि उस हार्दिकता के कारण है जो यहां के लोगों में दीख पड़ती है। बीच में होना वैसे भी होता है जैसे दरिया साहिलों के बीच होता है। जैसे पलकों के बीच पुतली होती है। यह सरसता, यह दृष्टि ही मप्र को मप्र बनाती है। यही मप्र की मध्य-स्थता है।इसी मध्यस्थता को जीएसटी के युग में इस भूमि पर लॉजिस्टिक हब बनाने की ज़बर्दस्त संभावना है। बेटमा में मल्टीमॉडल लाजिस्टिक हब या पवरखेड़ा या रतलाम में ऐसी लोकेशन के चिन्हांकन होना वही दिशा है, सही दिशा है। हरिवंशराय बच्चन जी की एक कविता में थोड़ी ग़फलत करके कहूं तो ‘ मध्य दिशा में पंछी बोला।’
मप्र को परिभाषित करने वाली कोई उपराष्ट्रीयता नहीं
इसलिए मध्यप्रदेश को एक शेष-प्रदेश मान भी लें तो भी इसे एक व्यक्तित्वहीन प्रदेश न मानें। ठीक है कि जैसा कुछ लोगों ने कहा कि मध्यप्रदेश को परिभाषित करने वाली कोई ताकतवर उपराष्ट्रीयता यहां नहीं है जैसे पंजाब में पंजाबियत है, कश्मीर में कश्मीरियत है, महाराष्ट्र में मराठी है, तमिलनाडु में तमिल है, बंगाल में बांग्ला है, कर्नाटक में कन्नड़ है। हमारे यहां इन सभी धाराओं का मिलना इसे संगम-प्रदेश बनाता है। मप्र में वह सिन्थेसिस, वह संश्लेषण है। फ्रेडरिक हीगेल ने कहा था कि सत्य न तो प्रमेय में है, न उसके प्रति-प्रमेय में। वह संश्लेषण में है।Truth is found neither in the thesis nor in the anti-thesis but in an emergent synthesis which reconciles the two. मप्र ऐसे ही समन्वय और संश्लेषण का प्रदेश है। उस हार्मनी का। यह अपने आप में कम बड़ा चमत्कार नहीं है। कभी सोचें कि 1956 में मप्र के पांच घटक राज्यों में राजस्व की, भूप्रशासन की पांच अलग अलग प्रणालियां चलती थीं। 1959 में भूराजस्व संहिता आई और उसने इन पांचों का ऐसा इंटीग्रेशन किया कि सब समरस हो गया। यह योजकता, यह कांबिनेटरी पावर मप्र की सफलता का राज है।
1956 में एक कृत्रिम तरह से अस्तित्व में आया
यह वह प्रदेश नहीं है जो 1956 में एक कृत्रिम तरह से अस्तित्व में आया या जिसका आगे चलकर विभाजन हो गया। मप्र को एक स्मृतिहीन तरह से जीने वाला राज्य नहीं बनाना चाहेंगे। 1956 कोई हमारा वैसा इयर ज़ीरो या ड्रॉप इयर नहीं है जैसा पोलपोट के कम्युनिस्ट शासन के दौरान कंपूचिया में घोषित कर दिया गया था। कि इसके पूर्व कुछ नहीं था, कि अब सब स्कूल बंद, धर्म बैन, पूर्व मुद्रा का मूल्य शून्य, पूर्व इतिहास सभ्यता सब शून्य। अतिहीनता की यह सनक कंपूचिया की एक चौथाई जनसंख्या के नरसंहार का सबब बनी थी। मप्र उस तरह की अतीत-मुक्ति के साथ 1956 में नहीं प्रकट हुआ। हो भी नहीं सकता था। यह सबसे पुराना प्रदेश रहा है। मनुस्मृति में इसका उल्लेख “मध्यदेश प्रकीर्तित:” में हुआ है लेकिन क्या हम इसके अतीत को जानते हैं या हम प्रदेशवासियों का इतिहास से विच्युत होना कैसे हुआ है? कि हम एक क़िस्म के सामूहिक अल्झाइमर के साथ जी रहे लोग हैं? एक प्रदेश ही नहीं, एक राज्य के रूप में भी हमारा स्टैंडर्ड सिलेबस यह रहा कि हमारे इतिहास का आरंभ-बिंदु सिंधु घाटी सभ्यता है लेकिन हमारा प्रदेश तो नर्मदा घाटी सभ्यता का प्रदेश है। नर्मदा तो कल्पांतों से चली आई है। इंदौर की न्यूमिसमैटिक्स सोसायटी ने नर्मदा घाटी सभ्यता पर 72 शोधपत्र प्रकाशित किये हैं। क्या हमें प्रदेश के विकास में इसके पर्यटन-पोटेन्शियल का महत्त्व समझ में आता है? क्या इसके ज़रिए पर्यटन को एक बहुप्रतीक्षित डेप्थ उपलब्ध कराई नहीं जा सकती?
मप्र में दुनिया का सबसे पुराना इतिहास
मैं आइसलैंड गया था। वहां लोगों ने एक म्यूज़ियम उस नाव का बना रखा है जिसके ज़रिए वहां का एक बंदा अमेरिकाज़ पहुंचा था। वे अपने अतीत का नाट्य बनाना जानते हैं। उन्हें अपनी पुरातात्विक संपदाएं शुद्ध वाणिज्यशास्त्रीय अर्थों में परिसंपत्ति लगती हैं। स्वयं ब्रिटेन को देख लें। उनके पास न कोई गोल्डन बीच हैं, न आल्प्स के पर्वत शिखर हैं। उनके पास उनका अतीत भर है जिसके लिये वे दुनिया भर के हेरिटेज पर्यटकों को आकर्षित करते हैं। मप्र में हम दुनिया का सबसे पुराना इतिहास लिये चलते हैं। जब टेथिस महासागर यहां लहराता था, जब यहां डायनासोर और दरियाई घोड़ा हुआ करता था। आज भी मंडला में सामुद्रिक सीपियां और शंख मिलते हैं। यह वह प्रदेश है जिसने हर युग में अपना महत्त्व स्वीकार होते हुए देखा। सतयुग में बरमान घाट पर ब्रह्मा की तपस्या जिसका मेला आज भी भरता है, त्रेता में राम का चित्रकूट प्रवास, द्वापर में कृष्ण का सांदीपनी आश्रम में शिक्षार्थ आना और कलयुग में शिवावतार आदि शंकराचार्य का ओंकारेश्वर आना। क्या यह फेबल( कथा) हैं? मान भी लें लेकिन हेरिटेज व्यवसाय कथा का भी कारोबार करता है। सिंगापुर में तट पर एक लेज़र शो देखने के लिये पर्यटकों की भीड़ रात नौ बजे इकट्ठा होती है। वह एक किंवदंती का ही तो शो है। आज मध्यप्रदेश में मध्यप्रदेश के क्रोनोलाजिकल फ़्रेमवर्क का क्षरण(erosion) हुआ देखा जा सकता है। हमारे पास अपने स्थान के प्रति अपनेपन का बोध इतना कमतर कैसे है? We have an increasingly diminished sense of place and belonging. हमारा इतिहास एक तरह के टाईम-टूरिज़्म को बढ़ावा दे सकता है।
दुनिया की दूसरी सबसे लंबी श्रृंखला हमारे यहां
पैट्रिक राइट ने अपनी पुस्तक ऑन लिविंग इन एन ओल्ड कंट्री में कहा कि ब्रिटेन अपने विगत की पूजा करता है। राबर्ट हेविसन ने ब्रिटेन का नज़रिया यह बताया कि हम सामानों को मैन्युफ़ैक्चर करने की जगह विरासत को मैन्युफ़ैक्चर कर रहे हैं Instead of manufacturing goods, we are manufacturing heritage। यह वह देश कर रहा है जिसका विगत हमारे मुक़ाबले में कहीं नहीं है। पर कितने लोग जानते हैं कि शैल चित्रों की एंडीज़ के बाद दुनिया की दूसरी सबसे लंबी श्रृंखला हमारे यहां है। मैं मंदसौर कलेक्टर रहा। वहां के हिंगलाजगढ़, इंदरगढ़ से लेकर रीवा में सवाया, केवटी तक फैली हुई यह श्रृंखला 34 जिलों से होकर गुज़रती है। अमरकंटक में छह करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्म मिले थे। यह इतिहास है, पर हम इसे जितना विरासत बना पाएंगे, उतना अपना विकास कर पाएंगे। विरासत इतिहास का वर्तमान में इस्तेमाल है। मार्गरेट थैचर ने जब ब्रिटेन का वि-औद्योगीकरण होते देखा तो उन्होंने हेरिटेज को ही उद्योग बना दिया। उसे एक बहुत क़ीमती आर्थिक संसाधन माना। अब जब कोरोना ने हमारे यहां भी ऐसा वि-औद्योगीकरण किया है तब हम भी उन उद्योगों का पुनर्जीवन पैकेज तैयार करने के साथ इतिहास को अकादमिक की जेल से निकालकर अपने आर्थिक प्रयोजनों में बरतें।
ऐतिहासिक धरोहरों के नायाब नगीने
ठीक है कि इसमें इतिहास का पैकेज बनाने वाला कमोडिफिकेशन होगा लेकिन उससे प्रदेश के वाणिज्य-विभव का बढ़ना उस हालत से तो बेहतर है जहां यह विरासत उपेक्षा के एकांत में पड़े पड़े टूट फूट का शिकार हो रही है। क्या यह हमें एक तरह का प्रतिगामी काम लगता है। पर मैं नहीं कह रहा कि आप अपनी ऐतिहासिक जड़ों को ढूंढें। या इस बहाने अपनी अस्मिता की खोज करें, छोड़िये ये बाबा आदम के ज़माने की बातें। मैं तो एक उत्तर आधुनिक सोच के तहत आपको यह करने की कह रहा हूँ। आज आप ब्रिटेन के “विरासत-अभिभावकों” को एक बिंदु पर एकत्र करने वाले नेशनल ट्रस्ट को देखें। 2005 में ही उनकी वार्षिक आय तीन सौ मिलियन यूरो थी। फ्रेडरिक जेमसन कहते हैं कि विरासत पर्यटन तत्वत: उत्तर आधुनिकता है जिसमें हम इतिहास को सतही पॉप-छवियों के ज़रिये देखने के लिए अभिशप्त हैं।Heritage tourism is quintessential post-modernism in which we are condemned to seek history through superficial pop images. उनकी आलोचना होती है कि वे व्यतीत की एक mimesis, एक नक़ल, एक फैक्स तैयार कर रहे हैं पर उनका कहना है कि हम इतिहास को एक अनुभव तो बना रहे हैं, उसे अकेले में एड़ियां रगड़ने के लिए नहीं छोड़ रहे। जिसे अनदेखा किया गया हो, उसे सुदृश्य बनाने से आर्थिक पुनर्जागरण हो रहा हो तो उसमें हर्ज क्या है! ये हमारा बांधवगढ़ का या चंदेरी का क़िला हो, राजगढ़ या ओरछा का क़िला हो, रायसेन का या असीरगढ़ का क़िला हो, गोहद का क़िला हो या ग्वालियर का क़िला हो- जब तक ये इतिहास थे,इनकी दुर्गमता ही इनकी विशेषता थी। अब जब यह विरासत हुए हैं तो जहां पहुंचना मुश्किल था, उसे आम लोगों की चीज़ बनाना होगा।
उन्नत आत्म-जागृत भविष्य की ओर ले जाने की क्षमता
वह आधुनिकता अनुत्पादक है जो राम-कृष्ण को कवि-कल्पना कहने के हलफ़नामे दायर करती है। उत्तर-आधुनिकता चित्रकूट से अमरकंटक तक के रामवनगमनपथ में विंध्य अंचल की इकॉनॉमिक रिकवरी की संभावना ढूंढती है। लोवेन्थेल कहते हैं: विरासत इतिहास नहीं है तब भी जब यह इतिहास की नक़ल करती हो।Heritage is not history even when it mimics history. यह तो सिंगापुर की तरह लोककथाओं के उपयोग से भी नहीं हिचकती। मध्यप्रदेश में तो ऐसी कथाएं बिखरी पड़ी हैं। यह तो जमदग्नि और परशुराम का, जाबालि और गालव का, कपिल और मार्कंडेय का, नारद और पतंजलि का प्रदेश है। हम डिज्नीलैंड जाएं या यूनिवर्सल स्टूडियो- वहाँ वे टेक्नोलॉजी के ज़रिये आधुनिक फ़िल्मों -जैसे ट्रांसफ़ॉर्मर्स -को एक आनुभविक रोमांच में बदल रहे हैं। हमारे यहाँ इतनी बड़ी पौराणिक और महाकाव्यात्मक संपदा के ही नहीं बल्कि आल्हाऊदल से लेकर लक्ष्मीबाई, दुर्गावती, झलकारीबाई, तात्या टोपे की ऐतिहासिक सच्चाइयों के ईस्थेटिक और उपभोक्तावादी पैकेज तैयार करने के अवसर हैं। एक आनुभविक अति-यथार्थ की रचना (experiential hyper-reality) तैयार करने का। पहले जब मध्य प्रदेश अविभाजित था इसके दो कोनों में दो बड़े वनवासी अंचल थे। उधर बस्तर इधर झाबुआ। मैं दोनों जगह घूमा। बस्तर में जगह जगह राम कथा की स्मृतियों वाले गांव हैं । शबरी से लेकर शूर्पणखा तक। यहां चंद्रशेखर आजाद नगर जाते हुए रास्ते में कुंती का शहर धार, कीचक का नगर कुक्षी, राजा विराट का नगर बाग पड़ा। यहां पांडव गुफाएं भी हैं।भीलन लूटी गोपिका वाले भील इसी तरफ के थे क्या? द्वारका जाने वाला रास्ता यहीं से ही जाता था। इन रास्तों से गुजरना भूगोल से नहीं इतिहास से गुजरना है। पर क्या ये रास्ते मध्यप्रदेश को एक उन्नत आत्म-जागृत भविष्य की ओर ले जाने की क्षमता से भी सम्पन्न नहीं हैं?
(लेखक मनोज श्रीवास्तव मप्र सरकार में अतिरिक्त मुख्य सचिव रहे हैं।)