मध्यप्रदेश बनने के पहले ग्वालियर में सोने की दीवारों वाले शाही महल में लगती थी विधानसभा, पढ़ें भोपाल के राजधानी बनने की कहानी

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Dev Shrimali
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मध्यप्रदेश बनने के पहले ग्वालियर में सोने की दीवारों वाले शाही महल में लगती थी विधानसभा, पढ़ें भोपाल के राजधानी बनने की कहानी

आज 1 नवंबर है और मध्य प्रदेश अपना स्थापना दिवस हर्षोल्लास के साथ मना रहा है। हालांकि मध्यप्रदेश के गठन के बाद प्रदेश ने विस्तार पाया, विकास और संस्कृति का बहुत विस्तार किया  लेकिन ग्वालियर ने इसके गठन के साथ अपना एक गौरव खोया, जिसकी कसक आज भी यहां के लोगों को रहती है।  यहां अनेक ऐसी इमारतें हैं, जो स्वतंत्र भारत के बाद भी मिले अपने रसूख की गवाही देती हैं। देश के स्वतंत्र होने और राज्यों के विलीनीकरण के बाद बनाए गए राज्य मध्य भारत की राजधानी ग्वालियर ही बनाई गई थी और यहां के ऐतिहासिक मोती महल में ही मध्य भारत के पहले मुख्यमंत्री और मंत्रिमंडल ने शपथ ली थी। 





कैसे बना मध्य भारत 





देश आजाद होने के बाद से ही राज्यों के गठन को लेकर चर्चा शुरू हो गई थी लेकिन इसको गति मिली स्वतंत्रता के बाद। इस काम को तब देशी राज लोक परिषद ने अपने हाथ में लिया था। हालांकि पहले एक प्रस्ताव था कि बुंदेलखंड सहित मध्यभारत प्रांत बनाया जाए लेकिन ऐसा हो नहीं सका। 15 फरवरी 1947 को इंदौर में परिषद की बैठक हुई। इसमें मध्य भारत के गठन पर चर्चा हुई। इसमें ग्वालियर के सदस्यों ने एक संघ का प्रस्ताव रखा। बुंदेलखंड और बघेलखंड के पैंतीस राज्यों को मिलाकर विन्ध्य प्रदेश के नाम से संघ बनाने की सहमति तो हो गई लेकिन मध्य भारत में एक या दो संघ बनाने पर भीषण संघर्ष की स्थिति निर्मित हो गई थी। इसमें राजधानी का विवाद भी शुरू हो गया। 





भोपाल हो गया अलग 





इस बीच भोपाल के नवाब ने मध्य भारत में शामिल होने से इनकार कर दिया। इससे राजाओं में खलबली मच गई। इंदौर और ग्वालियर की धारा सभा मध्य भारत के लिए प्रस्ताव पास कर चुकी थीं। अचानक वल्लभ भाई पटेल बीमार पड़ गए तो मामला सीधे प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंचा। लंबी बहस और बातचीत के बाद मामला फिर वल्लभ भाई पटेल के पास पहुंचा और आखिरकार राज्यों ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए, जिसे "कोवनन्ट" नाम दिया गया। इस संघ को अंग्रेजी में यूनाइटेड स्टेट ऑफ ग्वालियर, इंदौर एंड मालवा नाम दिया गया लेकिन कोष्टक में मध्यभारत भी लिखा गया। कालांतर में यही नाम प्रचलित हो गया। 



इस नए राज्य में ग्वालियर, इंदौर, धार, देवास, जावरा, रतलाम, बड़वानी, देवास छोटी पांत, राजगढ़, झाबुआ, नरसिंहगढ़, अलीराजपुर, सैलाना, खिलचीपुर, सीतामऊ, कुरवाई, जोबट, काठियाबाड़ा, पिपलोदा और मथवड़ आदि शामिल थे। विधानसभा का नाम धारा सभा रखा गया और इसके राज प्रमुख ग्वालियर के तत्कालीन महाराजा जीवाजी राव सिंधिया बनाए गए और उप राजप्रमुख इंदौर के महाराजा होल्कर। राजधानी को लेकर भी शक्ति संतुलन स्थापित करते हुए इसे छह-छह माह के लिए मुकर्रर रखा गया। ग्रीष्मकालीन राजधानी ग्वालियर में और शीतकालीन राजधानी इंदौर में रखी गई। 





पंडित नेहरू ने किया था इसका उद्घाटन 





राज्यों के विलीनीकरण और मध्य भारत के गठन के बाद 28 मई 1948 को प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू स्वयं ग्वालियर आए और उन्होंने इस नव गठित मध्य भारत राज्य का उद्घाटन किया। उन्होंने ही जीवाजी राव सिंधिया को राज प्रमुख के तौर पर शपथ दिलाई। इस राज्य में कुल 26 जिले बनाए गए। 





पहले मंत्रिमंडल का गठन 





आखिरकार 28 मई 1948 को वह क्षण आ ही गया जब अंचल से राजशाही का अंत हुआ और पहली लोकतांत्रिक सरकार का गठन हुआ।  मध्य भारत की राजधानी ग्वालियर के ऐतिहासिक मोती महल को विधानसभा का दर्जा दिया गया और इसी के दरबार हॉल में नव गठित राज्य के पहले मुख्यमंत्री शाजापुर निवासी लीलाधर जोशी को पहले मुख्यमंत्री के रूप में और उनके मंत्रिमंडल को शपथ दिलाई गई। हालांकि विलीनीकरण के बाद भी नेताओं में खींचतान चलती रही नतीजतन एक साल में ही यानी मई 1948 में गोपीकृष्ण विजयवर्गीय और 18 अक्टूबर 1949 को गोपीकृष्ण विजयवर्गीय जालोरी को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई। 





पहला आम चुनाव   



  



मध्य भारत राज्य का पहला आम चुनाव 1951 में हुआ था। इसमें कांग्रेस ने रिकॉर्ड जीत हासिल की। उसे 75 सीटों पर जीत मिली जबकि मुख्य विपक्षी दल हिन्दू महासभा महज 11 सीटें ही जीत सका। 3 मार्च 1952 को मिश्रीलाल गंगवाल ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली लेकिन उनके इस्तीफे के बाद फिर बाबू तखतमल जैन को शपथ दिलाई गई। उन्हें 16 अप्रैल 1955 को शपथ दिलाई गई। वे मध्यप्रदेश के गठन से पहले तक सीएम रहे। 





ग्वालियर से राजधानी छीने जाने की अंतर्कथा  





स्वतंत्रता के बाद ग्वालियर राजधानी बन गई थी। मोती महल जिसके दरबार हाल में कभी सिंधिया महाराज का दरबार लगता था, उसमें अब मध्य भारत राज्य के मुख्यमंत्री बैठने लगे थे। यह दरबार हॉल वायसराय के दफ्तर से भी ज्यादा कीमती और खूबसूरत था।  इसमें दीवारों पर सोने से नक्काशी की गई  है। मोतियों और प्राकृतिक कलर से पेंटिंग और डिजाइन बनाई गई है। लेकिन जब राज्य पुनर्गठन आयोग ने काम शुरू किया तो मध्यप्रदेश राज्य के गठन की चर्चा शुरू हुई। राजधानी को लेकर फिर विवाद हो गया। राजधानी ग्वालियर में रहे और इंदौर न जाए, इसको लेकर यहां गौतम जी, बांगड़ जी, कक्का डोंगर सिंह, रूद्र जी के नेतृत्व में एक तदर्थ कमेटी बनाई गई। कुछ लोगों ने कहा कि ग्वालियर में सड़कें राजधानी लायक नहीं है इसलिए इंदौर को राजधानी बनाया जाए। स्वतंत्रता सेनानी कक्का डोंगर सिंह ने अपनी आत्मकथा-महासमर के योद्धा में लिखा है- इस लड़ाई में ग्वालियर पिछड़ न जाए इसलिए हमने फटाफट बिड़ला की हिन्द कंस्ट्रक्शन कंपनी से संपर्क साधा और शहर में पहली बार सीमेंट कॉन्क्रीट की सड़कें बनवाईं। ऑटम जी और यशवंत सिंह कुशवाह हर हाल में राजधानी ग्वालियर में रखने की लड़ाई लड़ रहे थे लेकिन प्रेम सिंह राठौर, मिश्रीलाल गंगवाल, रामेश्वर और टोटाराज इंदौर के लिए लगे थे। 





विवाद बढ़ा तो आया पणनीकर आयोग 





इंदौर बनाम ग्वालियर के बीच राजधानी को लेकर विवाद बढ़ता जा रहा था।  दोनों पक्ष के नेता दिल्ली में भी धामा चौकड़ी मचाए हुए थे। इसमें एक प्रस्ताव झांसी को कमिश्नरी बनवाने का भी आया लेकिन उसको तवज्जो नहीं मिल सकी क्योंकि पंडित गोविन्द बल्लभ पंत ने साफ कह दिया था कि मेरे जिस्म के टुकड़े भले ही हो जाएं लेकिन में उत्तरप्रदेश की धरती के टुकड़े नहीं होने दूंगा। इसके बाद ग्वालियर वालों ने ग्वालियर को बृज मंडल में शामिल करने का नया प्रस्ताव दिया लेकिन यह भी नहीं माना गया। इसके लिए आया पणनीकर आयोग, जो कोई रास्ता नहीं निकाल सका। 





डॉ शंकरदयाल शर्मा का मास्टर स्ट्रोक 





कक्का डोंगर सिंह ने अपनी बायोग्राफी में मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में बनने की अंतर्कथा का खुलासा किया है। वे लिखते हैं कि राजधानी इंदौर रहे या ग्वालियर इस पर हम लड़ रहे थे। इसका फायदा पंडित शंकर दयाल शर्मा ने उठाया। डॉ शर्मा उन दिनों लखनऊ में प्रोफेसर थे। उनके पंडित जवाहर लाल नेहरू और मौलाना आजाद से अच्छे दोस्ताना संबंध थे। उन्होंने इन्हीं संपर्कों का फायदा उठाते हुए दोनों से कहा कि विवाद को खत्म करने के लिए नव गठित राज्य के मध्य में भोपाल में नई राजधानी बना दो। सबको आना जाना भी सुगम रहेगा और यहां खूब जमीन भी है, सो नए निर्माण भी ठीक से हो सकेगा। दोनों को बात जम गई और वे विवाद से परेशान भी हो चुके थे। अंतत: इन नेताओं ने हमें दिल्ली बुलाया और साफ निर्देश दिया- अब तीन-पांच बंद करो। राजधानी भोपाल कर लो। इस तरह इस विवाद का पटाक्षेप हो गया। दो की लड़ाई में तीसरा फायदा उठाता है, यह एक बार फिर सिद्ध हो गया।



 



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