कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ताओं में बसते थे इंदिरा जी के प्राण!

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Jayram Shukla
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कांग्रेस के जमीनी कार्यकर्ताओं में बसते थे इंदिरा जी के प्राण!

जयराम शुक्ल. कांग्रेस अपनी जड़ों से कटकर रसातल की ओर क्यों जा रही है ? इसके लिए जिम्मेदार कौन हैं ? क्या इस पार्टी में  फीनिक्स की तरह जीवनशक्ति बची है जो अपनी राख से फिर उठ खड़ा होता है ? कांग्रेस नहीं बची तो देश की राजनीति का परिदृश्य क्या होगा ? अपने स्तर पर विंध्य को संदर्भ मानकर इन सवालों की पड़ताल करें, इससे पहले आज 19 नवंबर इंदिरा जी की जयंती के अवसर पर जानिए इस तस्वीर के बारे में...



कांग्रेस नेता शत्रुघ्न के निधन पर उनके घर पहुंची थी इंदिरा गांधी 



तस्वीर में इंदिरा गांधी एक ग्रामीण महिला और अबोध बच्ची के बीच बैठी हैं। यह तस्वीर 4 अप्रैल 1979 की है, स्थल है बेला (सतना) के समीपस्थ गांव केमार। ये जो ग्रामीण महिला हैं, ये कोई साधारण नहीं, बल्कि विंध्य के सबसे तेजस्वी-ओजस्वी कांग्रेस नेता रहे शत्रुघ्न सिंह तिवारी की धर्मपत्नी हैं, और ये बच्ची तिवारी की बेटी राजकुमारी सिंह दुबे हैं। 



इंदिरा गांधी तब विपक्ष में थीं। वे रीवा आईं थी एक जनसभा में। जनसभा के बाद वे विद्याचरण शुक्ल को लेकर तिवारी जी के गांव केमार पहुंचीं और वहां उनके परिजनों के बीच तीन घंटे रहीं। 



18 जुलाई 1978 को शत्रघ्न सिंह तिवारी का निधन



दरअसल शत्रुघ्न सिंह तिवारी का 56 साल की उम्र में 18 जुलाई 1978 को आकस्मिक निधन हो गया था। इंदिरा गांधी उन दिनों आपातकाल को लेकर जनता पार्टी सरकार के बैठाए गए 'शाह कमीशन' की पेशियों, जेलयात्राओं में फंसी थीं, इसलिए उस शोक पर वे नहीं आ सकीं थीं। जब उनका रीवा आने का कार्यक्रम बना तब उन्होंने तिवारी के परिवार से मिलने व शोक सान्त्वना का समय निकाला। 



इंदिरा गांधी जैसी महान नेता के लिए उनका कार्यकर्ता कितना महत्वपूर्ण रहता था इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि उन्होंने रीवा में राजनीतिक कार्यक्रम के लिए एक घंटे का समय दिया जबकि तिवारी परिवार के बीच उनके गांव में तीन घंटे बिताए।



डॉक्टर लोहिया के वैचारिक उत्तराधिकारी माने जाते थे तिवारी



अब नई पीढ़ी को बताना पड़ेगा कि शत्रुघ्न सिंह तिवारी कौन थे? तिवारी कांग्रेस की राजनीति के अग्निपुंज थे, 1962 में उन्होंने रीवा की विधानसभा सीट से देश के सबसे मेधावी और उन दिनों डॉक्टर लोहिया के वैचारिक उत्तराधिकारी माने जाने वाले नेता जगदीश चंद्र जोशी को चुनाव में परास्त किया। इस घटना से वे पंडित नेहरू की नजर में आए। तिवारी सिर्फ दो चुनाव 62 और 67 जीते थे। इसके अलावा वे संविद सरकार के समय को छोड़कर पूरे समय डीपी मिश्र, भगवंत राव मंडलोई, श्यामाचरण शुक्ल, प्रकाश चंद्र सेठी के मंत्रिमण्डल में मंत्री रहे। 



कार्यकर्ताओं के लिए रखतीं थी एक समान व्यवहार



बहरहाल चित्र में इंदिरा गांधी की सादगी और चेहरे की भावप्रवणता बताती है कि वे अपनों के बीच में किस तरह का समव्यवहार रखती थीं। वे देश की नेता थीं पर गांव-गांव के कार्यकर्ताओं तक उनकी ऐसी ही सहज पहुंच थी। 



चंपा मम्मा इंदिरा गांधी की मानी जाती थी करीबी



1980 में मैंने उन्हें अपने मनगंवा विधानसभा क्षेत्र में सभाएं करते देखा और सुना। यहां से चंपा देवी लड़ती थीं। चंपा जिन्हें सभी सम्मान से मम्मा कहते थे, वे इंदिरा की अत्यंत निकट थीं, वे नैनी जेल में उनके साथ रहीं। जब इंदिरा गांधी की फिरोज से शादी हुई तब विवाह की सभी रस्मों में चंपा मम्मा साथ रहीं।



नर्मदा प्रसाद सिंह के छोटे भाई की बीवी थीं चंपा मम्मा



चंपा मम्मा बैकुंठपुर के हारौल नर्मदा प्रसाद सिंह की अनुजवधू थीं। कांग्रेस के तत्कालीन दिग्गज हारौल साहब का कर्मक्षेत्र प्रयागराज (तब इलाहाबाद) था। कम लोग ही जानते हैं कि हारौल साहब इलाहाबाद नगरनिगम के दस सालों तक महापौर रहे। पंडित नेहरू से उनकी घनिष्ठता की पराकाष्ठा इतनी कि उनके राजनीतिक कामों के लिए धन जुटाने के लिए देश के पहले बीमा घोटाले का लांछन भी अपने सिर लिया। आजादी के बाद जब नेहरू ने जब उनकी अनदेखी की तब हारौल ने नेहरू को चुनौती देते हुए आचार्य कृपलानी के साथ मिलकर किसान मजदूर प्रजा पार्टी (केएमपीपी) बना ली। हारौल 1952 में विंध्यप्रदेश की विधानसभा के सदस्य रहे और देश में पहली बार सदन में 'ऑफिस आफ प्राफिट' का मुद्दा उठाया। 



1957 में चंपा मम्मा को सिरमौर से मिली थी टिकट



1957 में इंदिरा गांधी की पहल पर ही चंपा मम्मा को सिरमौर विधानसभा क्षेत्र से कांग्रेस की टिकट दी गई। इस चुनाव में भी इंदिरा गांधी उनके लिए प्रचार करने आईं थी। इंदिरा गांधी ने पं.नेहरू और हारौल की दुश्मनी को तांक पर रखते हुए अपने रिश्ते की ऊष्मा को बनाए रखा। चंपा मम्मा 1985 में तीसरी बार विधायक बनीं।



समाजवादियों का एक समूह कांग्रेस में शामिल हुआ 



चंदौली सम्मेलन (1972) में समाजवादियों का एक धड़ा जगदीश जोशी के नेतृत्व में कांग्रेस में शामिल हुआ। इस समारोह की अध्यक्षता जोशी ने की। उनके साथ श्रीनिवास तिवारी, अच्युतानंद मिश्र जैसे नेता भी कांग्रेस में गए। बाद में जोशी को वे राज्यसभा ले गईं। उन्हें विदेशी मामलों की संसदीय समिति का अध्यक्ष बनाया।



जगदीश जोशी ने छोड़ दिया था इंदिरा गांधी का साथ



जोशी इंदिरा गांधी के वैसे ही निकट थे जैसे कि राजीव गांधी के मणिशंकर अय्यर, सोनिया गांधी के अहमद पटेल। आपातकाल में समाजवादियों को जेल में ठूंसे जाने की वजह से भ्रमित-द्रवित जगदीश जोशी ने इंदिरा गांधी का साथ छोड़ दिया, वरन् बकौल श्रीनिवास तिवारी 1980 में मध्यप्रदेश के सीएम की शपथ जगदीश जोशी ही लेते। 



श्रीनिवास तिवारी ने जीवन भर इंदिरा गांधी को अपना नेता माना



श्रीनिवास तिवारी जैसे दृढ़ और अपनी शर्तों पर राजनीति करने वाले नेता ने जीवनभर इंदिरा गांधी को ही अपना नेता माना। 85 में टिकट कटने के बाद भी कांग्रेस नहीं छोड़ी। उन्होंने कहा- इंदिरा गांधी को कांग्रेसनिष्ठा का वचन दिया था मरते दम तक निभाउंगा और उन्होंने निभाया भी। लेकिन जिस दिन तिवारी का निधन हुआ उस दिन मध्यप्रदेश के कांग्रेस भवन में एक बैठक चल रही थी। किसी नेता ने दीपक बाबरिया (प्रदेश संगठन प्रभारी) को सूचना दी कि श्रीनिवास जी नहीं रहे! तब बाबरिया ने तपाक से पूछा- हू इज श्रीनिवास? बाबरिया राहुल गांधी की खोज थे।



अर्जुन सिंह के निधन पर सोनिया गांधी और राहुल गांधी नहीं पहुंचे



अर्जुन सिंह विंध्य के ऐसे यशस्वी नेता थे जो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री छोड़ प्रायः सभी पदों में रहे। गांधी परिवार के बाद वे दूसरे क्रम के बड़े नेता थे। जब उनका निधन हुआ तब उम्मीद थी कि सोनिया गांधी या राहुल गांधी चुरहट जरूर आएंगे, पर नहीं आए। प्रणब मुखर्जी और मोहसिना किदवई निजी रिश्तों की निकटतावश यहां आए। देश में तब कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी। बताने की जरूरत नहीं कि ये वही अर्जुन सिंह हैं जिन्होंने सोनिया गांधी की राजनीतिक स्थापना के लिए स्वयं की राजनीति का होम कर दिया था।1994 में नरसिंह राव सरकार से त्यागपत्र दे दिया था।



विंध्य के दौरे पर जमीनी कार्यकर्ताओं से राहुल गांधी की नहीं हुई मुलाकात 



अब हाल की बात- दो साल पहले विधानसभा चुनाव में गांधी साम्राज्य के राजकुंवर राहुल गांधी विंध्य के दौरे पर आए। चित्रकूट से चाकघाट तक रोड़ शो किया। उन्हें चित्रकूट में रामचंद्र वाजपेयी याद नहीं आए। सतना में उन बैरिस्टर गुलशेर अहमद को भी वे भूल गए जिन्हें उनके नाना नेहरू ने 26 साल की उम्र में राज्यसभा भेजा था। रामपुर बाघेलान से निकले लेकिन कप्तान अवधेश प्रताप सिंह के बारे में नहीं जान पाए जिन्हें पं. नेहरू अपनी बराबरी में बैठाते और गप्पें मारते थे। रीवा में शंभूनाथ शुक्ल, शत्रुघ्न सिंह तिवारी, अर्जुन सिंह, श्रीनिवास तिवारी, कृष्णपाल सिंह, मुनिप्रसाद शुक्ल कैसे याद आते। उनके बगलगीर कमलनाथ ने अपने चंपुओं के नामों की सूची थमा रखी थी। राहुल गांधी बिना जाने समझे ऐसे चंपुओं का जिक्र कर हीरो बनाते रहे, उन्हें जो अपने वार्ड से पार्षदी तक न जीतें।



इंदिरा गांधी की जयंती के बहाने कांग्रेस की गति और नियति का स्मरण हो आया और पुरानी बातें चलचित्र की तरह चित्त में उतर आईं। मेरे ख्याल से और ज्यादा कुछ बताने की जरूरत नहीं रही कि कल की वह महान कांग्रेस पार्टी आज दुर्गति को प्राप्त होकर रसातल की ओर क्यों प्रस्थित है?

 


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