इंदिरा गांधी को विरोधी पक्ष भले मीसा लगाने वाली स्वेच्छाचारी व निरंकुश प्रधानमंत्री के रूप में याद करें, पर निजी तौर पर वे बेहद संवेदनशील और करुणामयी थीं। वाइल्डलाइफ से उन्हें खासा लगाव था।
निजी उपक्रमों का राष्ट्रीयकरण, प्रीवीपर्स विलोपन, बांग्ला विजय, आपातकाल, ऑपरेशन स्वर्ण मंदिर के लिए उनका नाम सदियों तक तो लिया जाएगा ही, लेकिन वन्यजीवों के संरक्षण की दिशा में उन्होंने जो कदम उठाए उसकी मिशाल आज दुनिया में दी जाती है।
आज जितने भी नेशनल पार्क, अभयारण्य, टाइगर रिजर्व, रिजर्व फारेस्ट हैं, उनकी सलामती के पीछे इंदिरा गांधी ही हैं, जिन्होंने वन्यजीवों के शिकार पर कड़ा प्रतिबंध लगाया। वन्यजीव संरक्षण कानून उन्हीं की देन हैं।
दो साल पहले इंदिरा गांधी की 101वीं जयंती पर जयराम रमेश की एक पुस्तक 'इंदिरा गांधीः प्रकृति में एक जीवन' प्रकाशित हुई है। उस पुस्तक में इस बात का तफसील से जिक्र है कि वन्यजीवों को लेकर उनके मन में ऐसी करुणा की वजह क्या थी..?
किस्सा रीवा से जुड़ा है। यहां के महाराजा ने एक युवा बाघ की खाल और उसके सिर की माउंटेड ट्राफी पंडित नेहरू को भेंट की थी। इसके बाद आगे क्या हुआ इसका जिक्र उन्होंने पुत्र राजीव गांधी को लिखे एक पत्र में बयान किया।
पत्र का मजमून कुछ यूं है
‘‘हमें तोहफे में एक बड़े बाघ की खाल मिली है। रीवा के महाराजा ने केवल दो महीने पहले इस बाघ का शिकार किया था। खाल, बॉलरूम में पड़ी है। जितनी बार मैं वहां से गुजरती हूं, मुझे गहरी उदासी महसूस होती है। मुझे लगता है कि यहां पड़े होने की जगह यह जंगल में घूम और दहाड़ रहा होता। हमारे बाघ बहुत सुंदर प्राणी हैं और इतने राजसी हैं। उनकी चमड़ी के नीचे उनकी मांसपेशियों की हरकत, बाहर से भी देखी जा सकती है। कितने कम समय पहले ही यह जंगल के जानवरों को डराता, जंगल का राजा रहा होगा। यह कितने शर्म की बात है कि अपनी खुशी के लिए हम किसी से जीने की खुशी छीन लें।"
-इंदिरा गांधी (राजीव गांधी को 7 सितंबर 1956 को लिखे पत्र के अंश)