वर्षा ऋतु का समय था। हम लोग बैतूल से भौंरा की ओर जीप से शासकीय दौरे पर जा रहे थे। शाहपुर के आगे भौंरा से पहले एक ऐसा नाला रास्ते में स्थित है, जिसका पुल काफी नीचे था। दोनों ओर के किनारे काफी ऊंचाई पर थे। हम लोग जैसे ही नाले के किनारे पहुंचे तो देखा कि नाले में बाढ़ आई हुई है। रुककर हम लोग पानी के स्तर के कम होने का इंतजार करने लगे। इस बीच नाले के दूसरी ओर से एक यात्री बस भौंरा से बैतूल की ओर आती हुई दिखाई दी। हम लोगों के देखते ही देखते बस ड्राइवर ने बाढ़ की चिंता किए बिना बस को आगे बढ़ाते हुए पुल पर उतार दिया। जैसे ही बस पुल के मध्य में पहुंची, बहते हुए पानी की तेज धारा ने बस को अपनी चपेट में ले लिया। पानी के तेज बहाव के कारण ड्राइवर का बस पर नियंत्रण समाप्त हो चुका था और बस लुढ़ककर टेढ़ी होकर पानी में बहती हुई हमें दिखाई दे रही थी। हम लोग असहाय होकर यह दृश्य देख रहे थे और किसी भी प्रकार की सहायता पहुंचाने में असमर्थ थे। धीरे-धीरे बस के ऊपर रखा हुआ यात्रियों का सामान पानी में बहकर तैरते हुए दिखाई दे रहे थे। पानी के तेज बहाव में बस टेढ़ी हो कर बहते हुए एक बड़ी चट्टान से टकरा कर उसी के पास तेज बहते हुए पानी के बीचों बीच अटक कर रुक गई। चट्टान के चारों ओर पानी का तेज बहाव था। चट्टान पर, अटकने के बाद रुकी हुई बस के ऊपरी हिस्से का दरवाजा खोल कर यात्री बाहर निकल कर बस के ऊपर बैठ गए। मैं और जीप का वाहन चालक इस विषम परिस्थिति में भी यात्रियों की मदद करने असमर्थ थे। हम लोग तत्काल वापस शाहपुर इस उद्देश्य से पहुंचे कि इस हादसे की जानकारी देकर फंसे हुए यात्रियों को सकुशल बाहर निकालने में लोगों का सहयोग प्राप्त किया जा सकेगा। शाहपुर के लोगों ने ऐसे हादसों में सहायता के लिए एक टीम पहले से ही तैयार कर रखी हुई थी, ताकि इस तरह की स्थिति उत्पन्न होने पर वे अल्प समय में ही लोगों की मदद कर सकें। हम लोग इस टीम को साथ लेकर वापस घटना स्थल पर पहुंचे। टीम के सदस्यों ने चट्टान के पास अटकी हुई बस के ऊपर बैठे यात्रियों को एक-एक कर सुरक्षित बाहर निकाला। गनीमत यह रही कि इस हादसे में किसी भी यात्री की जान नहीं गई, अलबत्ता बस के ऊपर रखा हुआ यात्रियों का सामान बाढ़ के पानी में अवश्य बह गया।
फॉरेस्ट गार्ड यानी जंगल महकमे की नींव
जंगल महकमे में जंगलों के संरक्षण, कार्य संपादन, देखरेख और सुरक्षा की जिम्मेदारी वाला सबसे निचले पायदान पर शासकीय कर्मचारी फॉरेस्ट गार्ड होता है। एक फॉरेस्ट गार्ड के कार्य क्षेत्र में लगभग 5 से 7 वर्ग किलोमीटर जंगल क्षेत्र हुआ करता है, जिसे बीट कहा जाता है। बीट के जंगलों की देखरेख और सुरक्षा की जिम्मेदारी इंचार्ज बीट फॉरेस्ट गार्ड की होती है। बीट फॉरेस्ट गार्ड के कार्य क्षेत्र में जो भी फॉरेस्ट संबंधी अपराध होते हैं, उनको पकड़कर पंजीबद्ध करने की जिम्मेदारी भी उसी की होती है। ऐसे अपराधों को रजिस्टर करने के लिए उसके पास पीओआर अर्थात प्रिलिमेनरी अफेंस रिपोर्ट बुक और बीट कुल्हाड़ी जंगल महकमे द्वारा प्रदान की जाती है। कुल्हाड़ी के मोटे बाहरी सिरे पर हैमर के गोल निशान की उभरी उठी हुई आकृति बनी होती है। जब्त किए गए लट्ठों पर डामरयुक्त हैमर का गोल निशान लगा कर जब्तीनामा बनाने के बाद पीओआर जारी किया जाता है। पीओआर की एक प्रति रेंज ऑफिसर और दूसरी प्रति सीधे डीएफओ को भेजी जाती है, ताकि कोई अफेंस को दबा ना पाए। जंगल महकमे द्वारा सभी फॉरेस्ट गार्डस को, ड्रेस उपलब्ध कराई जाती है। ड्यूटी और उच्चाधशिकारियों के समक्ष उपस्थित होते वक्त, फॉरेस्ट गार्ड को ड्रेस पहनना अनिवार्य होता है। फॉरेस्ट गार्डस का कार्य दुष्कर, कठिन और खतरों से भरा हुआ होता है। कई बार जंगल के अपराधी उन पर हमले भी कर देते हैं। कई जंगल के कर्मचारियों पर हमले होने के कारण मृत्यु के समाचार भी मिलते रहते हैं। जंगल महकमे द्वारा इन हमलों से जंगल के कर्मचारियों को बचाने के लिए ठोस उपाय किए जाना अत्यंत आवश्यक है। कई बार फॉरेस्ट गार्डस पर जब हमले होते हैं, तो ऐसे समय गवाह मिलने भी मुश्किल हो जाते हैं।
जुग्गा सिंह से अपराध जगत क्यों खाता था खौफ
एक बार जंगल निरीक्षण के लिए बरेठा फॉरेस्ट रेस्ट हाउस में ठहरना हुआ। वहां जुग्गा सिंह नाम के युवा आदिवासी फॉरेस्ट गार्ड से बातचीत करने का अवसर मिला। उससे बातचीत के दौरान जानकारी मिली कि जुग्गा सिंह जिस बीट में फॉरेस्ट गार्ड के पद पर कार्यरत हैं, उनका मूल निवास भी पास के ही गांव में स्थित था। रेंज ऑफिसर ने बताया कि जुग्गा सिंह कम बोलने वाला शांत, शालीन और अनुशासित व्यक्तित्व का धनी सफल बीट गार्ड था। वे जंगलों की सुरक्षा करने और जंगल के कार्य करवाने में अत्यंत निपुण था। जंगल के अपराधी उससे भय खाते थे। जनता से उसने अच्छे संबंध बनाकर रखे थे, जिसके कारण जनता के बीच जंगल महकमे की अच्छी छवि बनी हुई थी। जुग्गा सिंह का गुप्त सूचना तंत्र इतना मजबूत था कि उसे मुखबिरों से जंगल के अपराधियों के कार्यकलापों की जानकारी समय पर मिल जाती थी। उसके ठोस सूचना तंत्र के कारण जंगलों की हानि नहीं हो पाती थी। स्थानीय होने के कारण उसे न केवल क्षेत्र के बारे में बल्कि स्थानीय लोगों के बारे में भी अच्छी खासी जानकारी मिलती रहती थी। जुग्गा सिंह जैसे कई फॉरेस्ट गार्डस जंगल महकमे में कार्यरत रहे हैं। स्थानीय होना ही ऐसे फॉरेस्ट गार्ड्स की विशिष्टता रही है। स्थानीय व्यक्तियों को ही इन निचले पायदान के पदों पर नियुक्ति में प्राथमिकता देना उचित होगा क्योंकि वे जंगल क्षेत्रों में ही रहेंगे और बार-बार शहर की ओर नहीं भागेंगे।
जंगलों में पुनरुत्पादन की क्षमता क्यों हुई कम
बरेठा के आसपास सागौन के बहुमूल्य जंगल स्थित हैं। मैंने पाया कि इन जंगलों में पुनरुत्पादन की क्षमता में कमी आ चुकी थी। इसका मुख्य कारण घनी लैंटाना की झाड़ियों द्वारा जमीन पर कब्जा जमा लेना था। यह देखा गया कि सागौन के बीज जमीन पर गिरते और उनके पौधे वर्षा ऋतु में तैयार होने के बाद भी लैंटाना की घनी झाड़ियों के कारण बाहर आ ही नहीं पाते और नष्ट हो जाते थे। इस तरह से जंगलों में नए सागौन के पौधे तैयार ही नहीं हो पाते। आदर्श जंगल वही होते हैं, जिनमें सभी आयु के पेड़ पौधे उपलब्ध होते हैं। जैसे-जैसे, परिपक्व अवस्था के पेड़ समाप्त होते रहते हैं या उन्हें काटकर निकाल लिया जाता है, तो उनका स्थान नए पेड़ लेते रहते हैं। इस पुनरुत्पादन प्रक्रिया में लैंटाना की झाड़ियों ने बहुत सारे जंगल क्षेत्रों में अवरोध उत्पन्न कर दिया। इससे सागौन और अन्य प्रजातियों की नई पौध तैयार ही नहीं हो पा रही है और जंगल सूने और खाली दिखाई देने लगे हैं। यह समस्या केवल बैतूल-बरेठा के आसपास के जंगलों की नहीं बल्कि पूरे मध्यप्रदेश के विभिन्न जिलों के जंगलों के साथ ही देश के अनेक जंगल क्षेत्रों में निर्मित हो चुकी है।
लैंटाना एक वृहद खरपतवार
लैंटाना एक वृहद खरपतवार का रूप ले चुका है। यह देश के जंगलों में बड़े पेड़ों के नीचे काफी घने रूप में फैल चुका है। यह पौधा आज का नहीं है। वर्ष 1809-1810 में ऑस्ट्रेलिया से आर्नामेंटल पौधे के रूप में भारत में लाया गया था और धीरे-धीरे जंगल क्षेत्रों में खरपतवार के रूप में फैल गया। भारत में पाई जाने वाली इस प्रजाति को लैंटाना कमारा कहते हैं। इसकी ऊंचाई 2 से 8 फीट तक हो सकती है। इसके तने पर छोटे-छोटे कांटे भी पाए जाते हैं। इसकी जड़ें बहुत लंबी और जमीन के भीतर काफी फैली हुई होती हैं, जिसके कारण इन पौधों को उखाड़ना कठिन होने के साथ ही बहुत खर्चीला होता है। ये पौधा पथरीली जमीन से ले कर अत्यंत उपजाऊ भूमि में बहुत आसानी से फलता-फूलता रहता है। सूखा पड़ने के बाद भी ये हरा-भरा बना रहता है, क्योंकि इसकी पानी की आवश्यकता न्यूनतम होती है। यह पौधा बीजों एवं टहनियों के सहारे फैलता रहता है। पशु-पक्षियों द्वारा इसके फल खाने के बाद अन्य स्थानों पर जब मल त्याग किया जाता है, तो उसी के सहारे इसके गिरे हुए बीज अंकुरित होते रहते हैं। अगर टहनियों को तोड़कर अन्य स्थान पर फेंक दिया जाता है, तो उससे भी इसके पौधे आसानी से तैयार होते रहते हैं और यह वृहद रूप से फैलता रहता है।
फॉरेस्ट मुहकमे की सबसे बड़ी चुनौती क्या है
लैंटाना एक अत्यंत जहरीला एवं विषाक्त पौधा है। इसकी पत्तियां और फल खाने से पशुओं विशेषकर गायों में कई प्रकार की बीमारियां होने की संभावना बनी रहती है। इस पौधे की झाड़ियों को काटकर जलाने के बाद भी जड़ों से नए पौधे आसानी से निकलते रहते हैं और पुनः घनी झाड़ियों का रूप लेते रहते हैं। वर्षा ऋतु में नई पौध को उखाड़कर निकाला जा सकता है, परंतु यह एक जटिल प्रक्रिया है। इसमें अथक परिश्रम करने के साथ ही काफी अधिक व्यय करना पड़ता है। इसके उन्मूलन के लिए रासायनिक और जैविक विधियों का भी उपयोग किया गया, परन्तु अभी तक बहुत आशाजनक परिणाम सामने नहीं आ पाए। यह फॉरेस्ट मुहकमे की एक बहुत बड़ी समस्या बन चुका है, जिसका निराकरण वर्तमान में बहुत मुश्किल दिखाई दे रहा है।
( लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं )