मध्यप्रदेश के सामने असंख्य चुनौतियां

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Sharad Chandra Behar
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मध्यप्रदेश के सामने असंख्य चुनौतियां

मध्यप्रदेश 1 नवंबर 1956 को राज्य पुनर्गठन आयोग की सिफारिश के अनुसार अस्तित्व में आया। उसमें सम्मिलित हुआ तत्कालीन मध्यप्रदेश का विदर्भ को छोड़कर सारा हिस्सा अर्थात महाकौशल और छत्तीसगढ़, मध्य भारत, विंध्य प्रदेश और भोपाल राज्य का समूचा हिस्सा तथा राजस्थान का एक छोटा सा हिस्सा सिरोंज।



मध्यप्रदेश में क्षेत्रीयता का भावनात्मक संविलियन



मैं जब जनवरी 1965 में भोपाल में सचिवालय (अब उसे मंत्रालय कहते हैं) में पदस्थ हुआ तो सबसे बड़ी चुनौती अलग-अलग राज्यों से आए हुए राजनेताओं और सरकारी अधिकारी एवं कर्मचारियों के मन से क्षेत्रीयता की भावना को हटाना थी। उस समय हर क्षेत्र के लोग अपने स्वार्थ साधन और दूसरे क्षेत्र के प्रति न्याय की अनदेखी करने में लगे रहते थे। आज दूसरी या तीसरी पीढ़ी मुख्य रूप से सत्ता और शासन में सक्रिय है। मैं आज बड़े संतोष से यह कह सकता हूं कि भावनात्मक रूप से मध्यप्रदेश में एक तरह का संविलियन हो गया है। यह मुझे सबसे बड़ी उपलब्धि नजर आ रही है।



मेरे लिए मध्यप्रदेश उतना ही प्रिय है जितना छत्तीसगढ़



एक बड़ी दिलचस्प बात यह भी है इस दौरान राज्य का विघटन भी हुआ है। छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन गया। सच कहा जाए तो अलग से छत्तीसगढ़ राज्य बनाने में किसी की दिलचस्पी नहीं थी। उत्तराखंड और झारखंड के लिए तो सच में गंभीर आंदोलन हो रहे थे। छत्तीसगढ़ बनाने के लिए इस तरह का कोई आंदोलन नहीं हो रहा था। केवल कुछ ऐसे नेता जो राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान नहीं प्राप्त कर पा रहे थे हल्के से इसकी मांग करते रहते थे। वास्तव में विधानसभा में जब छत्तीसगढ़ राज्य बनाने का प्रस्ताव रखा गया तो उसे एकमत से स्वीकार कर लिया गया क्योंकि कोई नहीं समझ पा रहा था कि आगे घटनाओं में ऐसा मोड़ आएगा कि वास्तव में छत्तीसगढ़ अलग राज्य बन जाएगा। वह बन गया। मेरे जैसे कुछ लोगों के लिए इसने बड़ी समस्या पैदा कर दी। एक ओर मैंने लगभग आधी शताब्दी तक मध्यप्रदेश में काम किया परंतु मूलतः छत्तीसगढ़ का रहवासी होने की वजह से मुझे इस बंटवारे ने भोपाल और रायपुर के बीच अपना समय बांटने के लिए बाध्य कर दिया है। मेरे लिए मध्यप्रदेश उतना ही प्रिय है जितना छत्तीसगढ़ क्योंकि मेरे मन में तो अविभाजित मध्यप्रदेश ही मेरा गृह राज्य है। यह बता देना अच्छा रहेगा कि मैं मध्यप्रदेश जो उस समय सेंट्रल प्रोविंस एंड बरार कहलाता था में पैदा हुआ था।



मेरी सारी पढ़ाई वहीं हुई। देश की स्वतंत्रता के बाद वह मध्यप्रदेश कहलाया। महाविद्यालयीन शिक्षा के लिए मैं उसकी राजधानी नागपुर गया जहां मैं  1955 से 1959 तक अध्ययन करता रहा। इसी दौरान नए राज्य का गठन हुआ। 1955 में मध्यप्रदेश सरकार ने मुझे स्कॉलरशिप दी। डेढ़ वर्ष तक अर्थात अक्टूबर 1956 तक मुझे मध्यप्रदेश से और मध्यप्रदेश में स्कॉलरशिप मिलती रही। 1 नवंबर 1956 के बाद अगले ढाई वर्ष तक बम्बई सरकार से जो उस समय बम्बई प्रांत था क्योंकि राज्य पुनर्गठन के बाद भी गुजरात और महाराष्ट्र अलग नहीं हुए और एकीकृत मुंबई प्रदेश जिसे उस समय बम्बई ही कहते थे, स्कॉलरशिप मिलता रहा। 1960 में भारतीय प्रशासनिक सेवा की परीक्षा का कोई केंद्र नए मध्यप्रदेश में नहीं था। इसलिए मुझे नागपुर में ही परीक्षा देनी पड़ी। इसके जरिए यह बताने की कोशिश कर रहा हूं कि पैदाइश से मेरा संबंध मध्यप्रदेश से रहा है यद्यपि उस नाम का क्षेत्र बदलता रहा है और नियति का व्यंग्य है कि आज जो मेरा गृह इलाका है वह मध्यप्रदेश में ना होकर एक अलग नाम के राज्य में है।



मध्यप्रदेश में विकास की दिशा और दशा क्या है ?



मध्यप्रदेश भावनात्मक रूप से क्षेत्रीयता को समाप्त कर एक होने में तो सफल हो गया है परंतु असंख्य चुनौतियां हैं जिन पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। मध्यप्रदेश में विकास की दिशा क्या है तथा दशा क्या है ? इसका उत्तर उन चुनौतियों से निपटने की मेरे तरीके की बातें अब करेंगे।



विकास एक अजीब जीव है। बड़ा रहस्यमय है। इसका रहस्य भेदन करना आवश्यक है। किसी भी राज्य का विकास का मतलब किसका विकास है? क्षेत्र का या वहां की जनता का, समाज, राज्य और देश लोगों से बनता है। मेरा यह दृढ़ सिद्धांत है कि विकास का मतलब समाज के हर व्यक्ति का विकास है। मैं मानकर चलता हूं कि जनता लोगों का विकास सही विकास है। यद्यपि ऐसे बहुत लोग हैं जो अधोसंरचना के विकास को अर्थात सड़क, उद्योगों, रेल, बुलेट ट्रेन, हवाई यात्रा जैसे क्षेत्रों में विकास को विकास मानते हैं फिर भी किसी सीमा तक लोगों के विकास को विकास का मुख्य उद्देश्य मानने के लिए अधिकांश लोग तैयार हो जाएंगे।



गरीब, वंचित और शोषित का विकास ही सही विकास



इनके बीच विवाद का एक बड़ा सैद्धांतिक मुद्दा है जो विश्वव्यापी है। गांधीजी के ताबीज को यदि आप याद रखें तो यह माना जाएगा कि सबसे अंत, सबसे गरीब, वंचित, शोषित का विकास ही सही विकास है। जब तक विकास सबसे गरीब के आंसू को पोंछ ना सके तब तक उसे विकास नहीं कहा जा सकता। इसके ठीक विपरीत कुछ शक्तिशाली और वर्चस्व रखने वाले लोगों का कहना है कि जब तक संपत्ति वाले लोगों को अधिक संपत्ति बनाने का अवसर नहीं दिया जाएगा तब तक भला विकास कैसे हो सकता है। वह मानते हैं कि जब संपत्तिशाली लोगों की संपत्ति का घड़ा पूरी तरह भर जाएगा तो उसमें से बूंद-बूंद टपककर अन्य लोगों की भी प्यास बुझाएगा। इस तरह की सोच में एक बुनियादी खामी है। क्या संपत्तिशाली की संपत्ति की प्यास कभी बुझ सकती है ? क्या किसी भी व्यक्ति की जरूरतों का अंत होता है ? जरूरतों का होता है तो क्या लालच का भी अंत है ?



बुनियादी बातें नजरअंदाज, संपत्तिशाली के हर प्रयास को बढ़ावा



इन बुनियादी बातों को नजरअंदाज कर संपत्तिशाली के हर प्रयास को बढ़ावा दिया जाता है। इसमें उद्योगों के जरिए रोजगार देने के सिद्धांत को ही स्वीकार करते हुए उद्योगों को बढ़ावा दिया जाता है। उद्योगपतियों को आमंत्रित किया जाता है। सरकारी तंत्र में ऐसी व्यवस्था की जाती है कि वे जो चाहते हैं उसके लिए एक ही स्थान में सारी समस्याओं का हल हो जाए। इसके विपरीत एक गरीब किसान को, मजदूर को तथा एक मध्यमवर्गीय सामान्य व्यक्ति को भी सरकार से कुछ भी मदद चाहिए तो दर-दर भटकना पड़ता है, कितनी ठोकरें मिलती हैं, कितने दरवाजे खटखटाने पड़ते हैं। यह सब नजरअंदाज कर दिया जाता है। इज ऑफ डूइंग बिजनेस व्यापार उद्योग लगाना हो सकता है इतनी सरलता से हो सकता है यह बन गया है सरकार की क्षमता का मापदंड। इसके ठीक विपरीत मेरी समझ में सरकारी व्यवस्था बहुत अच्छी, क्षमतावान है यदि वह गरीबों के प्रति संवेदनशील है, वहां ऐसी व्यवस्था है जिसमें अंत में खड़ा व्यक्ति सदैव प्राथमिकता पाता है।



उद्योगों के जरिए विकास की मृग मरीचिका



उद्योगों के जरिए विकास होने का भ्रम और रोजगार देने की मृग मरीचिका के पीछे अभी भी सरकारें भागती हैं। इस बात को बिल्कुल नजरअंदाज किया जाता है। आज के टेक्नोलॉजी के युग में जहां ऑटोमेशन और लगातार रोबोट के उपयोग का सिद्धांत आगे बढ़ता जा रहा है। प्रचलन भी हो रहा है, उस युग में भी उद्योगों द्वारा रोजगार मुहैया कराने की क्षमता लगातार होते हुए क्षरण के बावजूद उद्योगों के लिए सारी सुविधाएं और  रियायतें देना पुरानी मानसिकता को जारी रखने की बड़ी भूल है। उद्योगों को रियायत देने का मापदंड उनकी सीधे रोजगार देने की क्षमता पर आधारित हो तभी उद्योगों को बढ़ावा और रियायतें देने के नीति आज की स्थिति में सफल हो सकेगी। पुरानी नीति और मानसिकता के बचाव में या कहा जाता है कि कहीं भी उद्योग की स्थापना से रोजगार के अनौपचारिक अवसर आस-पास बहुत बढ़ते हैं। इन्हें ही उद्योगों द्वारा दिया गया रोजगार मान लिया जाता है। किसी सीमा तक अनौपचारिक क्षेत्र में स्वरोजगार की गुंजाइश बढ़ती तो है परंतु इतना अधिक नहीं जिस अनुपात में उद्योगों को हर प्रकार के कर, बिजली दर और अन्य सुविधायें दी जाती हैं। यह अधिक अच्छा होगा कि टेक्नोलॉजी के नए युग, प्रकृति और प्रवृत्ति को समझकर औद्योगिक नीति में आवश्यक परिवर्तन लाया जाए।



यह तो स्पष्ट ही है कि विकास की बूंद-बूंद टपककर लाभ फैलाने के सिद्धांत को न केवल अस्वीकार करता हूं परंतु उसका बड़ा आलोचक भी हूं। क्योंकि उससे सबका विकास नहीं होता। संपत्तिशाली अधिक संपत्तिशाली बनते हैं और फलस्वरूप आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक असमानता में भी लगातार वृद्धि  होती जाती है। यह भारतीय संविधान के प्रस्तावना में दिए गए बुनियादी मूल्यों में से एक समानता का लगातार उल्लंघन है। इसके अलावा यह लोकतंत्र के लिए अत्यंत घातक है। लोकतंत्र में हर व्यक्ति को 1 वोट का अधिकार होता है। इसी आधार पर राजनीतिक समानता के भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए। आर्थिक रूप से संपन्न लोगों का शासन में वर्चस्व और हस्तक्षेप इतना अधिक होता है कि मत की बराबरी बेमतलब हो जाती है। भारत जैसे विकासशील देश को छोड़ भी दें तो अमेरिका जैसे देश में भी हार्वर्ड विश्वविद्यालय के एक शोध में पाया गया है कि वहां का पूंजीपति वर्ग 10 साल के अध्ययन के दौरान सभी महत्वपूर्ण आर्थिक नीतियों को प्रभावित करने में सफल रहा है। असमानता वह जहर है जो सैद्धांतिक समानताओं को निरर्थक बना देता है और वास्तविकता में और समानता की इतनी बड़ी खाई पैदा कर देता है जिसमें आम व्यक्ति का शासन और समाज में नगण्य हो जाता है। इसलिए मैं विकास का अपना प्रतिमान प्रस्तुत करूंगा जिसके परिपेक्ष में मध्यप्रदेश में आज की दशा का अनुमान पाठक स्वयं लगा सकेंगे।



सबका विकास के सिद्धांत को यदि मूर्त रूप देना है तो क्या करना होगा ?



विकास का वह तरीका अपनाना जिस पर हर व्यक्ति सशक्त हो। आखिर लोकतंत्र में लगातार यह प्रतियोगिता होती है कि समाज के संसाधनों का अधिकतम लाभ कौन उठा सकता है। जब तक असमानता रहेगी यह स्वाभाविक है कि वही लोग सब संसाधनों का लाभ उठा पाएंगे जो सशक्त हैं। इसलिए विकास का अर्थ होना चाहिए हर व्यक्ति का सशक्तिकरण। हर व्यक्ति को सशक्त बनाने का क्या तरीका है ? शिक्षा ही सशक्तिकरण का बुनियादी माध्यम है, इसलिए सबको समान और अच्छी शिक्षा की व्यवस्था करना किसी भी सरकार का सबसे महत्वपूर्ण एजेंडा होना चाहिए। इसलिए मध्यप्रदेश में सबसे अनिवार्य है, सभी स्तरों की शिक्षा को हर व्यक्ति को मुफ्त मुहैया कराना। इसका दूसरा कदम है शिक्षा में ऐसे सुधार लाना जो शिक्षित को आत्मनिर्भर बनाएं, आज्ञाकारी परजीवी नहीं। तीसरा कदम है सबको समान स्तर की शिक्षा देना। यह दुर्भाग्य है कि आज समाज में संपन्न लोगों के लिए बहुत बेहतर निजी विद्यालय और विश्वविद्यालय हैं परंतु आम आदमी को सरकारी स्कूलों और महाविद्यालयों में पढ़ना पड़ता है। सरकारी शिक्षण संस्थाओं में उच्च स्तर की शिक्षा की व्यवस्था करना सरकार का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य है, इनमें गुणवत्ता निजी संस्थाओं से बेहतर होनी चाहिए। मजे की बात यह है कि सारी सरकारी संस्थाओं को उच्च स्तर का बनाने के बजाय कुछ चुने हुए विद्यालयों को विभिन्न नामों से बेहतर बनाने की कोशिश की जा रही है अर्थात सरकारी विद्यालयों में भी असमानता पैदा की जाती है। संविधान समानता की बात करता है और हम ऐसी नीतियां अपना रहे हैं जिससे असमानता बनी रहे बल्कि बढ़ती जाए। सच कहा जाए तो शिक्षा के क्षेत्र में सबसे अधिक संसाधन देने की जरूरत है ताकि सरकारी शिक्षण संस्थाएं उच्च स्तर की हो जिनका मुकाबला कोई निजी संस्था ना कर सके।



स्वास्थ्य के लिए व्यक्ति को एक पैसा खर्च ना करना पड़े



सब लोगों के विकास के लिए दूसरा क्षेत्र जहां सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत है, वह है स्वास्थ्य। किसी भी व्यक्ति को स्वास्थ्य के लिए एक पैसा स्वयं का खर्च नहीं करना पढ़ना चाहिए। इसमें केवल डॉक्टरों और अस्पताल की संख्या बढ़ाने से काम नहीं चलेगा। एक नई व्यवस्था बनाने की जरूरत है।। इंग्लैंड या यूरोप के कई देशों की तरह राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवाओं की ठोस व्यवस्था करना जरूरी है। इसके अंतर्गत हर परिवार के स्वास्थ्य की जिम्मेदारी एक निर्धारित डॉक्टर पर होती है। उस परिवार में किसी तरह की स्वास्थ्य संबंधी समस्या हो, उसी डॉक्टर की जिम्मेदारी होनी चाहिए। यदि वह जरूरत समझता है तो अन्य विशेषज्ञों की मदद इनको दिलवाना उसका ही दायित्व होना चाहिए। सारी जरूरत की दवाएं, सारे जांच के तरीके मुफ्त मिलना चाहिए। स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार को शिक्षा के बाद सबसे अधिक संसाधन लगाना चाहिए। जब तक व्यक्ति स्वस्थ नहीं होगा तब तक वह उत्पादक नहीं हो सकता, तब तक वह समाज के लिए उपयोगी काम नहीं कर सकेगा। यहां मैं आंकड़े नहीं देना चाहता जो बताते हैं कि अस्वस्थता के कारण इतने अधिक लोग उस दौरान उत्पादक कार्य नहीं कर पाते जो न केवल उनकी आमदनी को कम करती है बल्कि देश में उत्पादन भी कम होता है। यहां एक महत्वपूर्ण बात की ओर मैं ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा। स्वास्थ्य सेवाओं की व्यवस्था बीमा कंपनियों के द्वारा नहीं हो सकती। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में सरकार को स्वयं ठोस व्यवस्था करनी होगी। बीमा कंपनियां तो लाभ के लिए बनती हैं सेवा के लिए नहीं जबकि शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों पर अनिवार्य सेवाएं हैं जिनसे जनता का सही विकास हो सकता है।



निजी क्षेत्र के अस्पतालों और डॉक्टरों की अपनी उपयोगिता है परंतु सरकार की अपनी व्यवस्था इतनी सहज और सुदृढ़ होनी चाहिए कि निजी क्षेत्र की संस्थाओं में केवल वही लोग जाएं जो सच में इतने संपन्न हैं कि उन्हें सरकार की सुविधाओं की आवश्यकता नहीं है। इन संस्थाओं को भी इस तरह विनय मीत करना चाहिए कि वह लाभ और व्यापार के लिए ना होकर ऐसी सेवा देने के लिए हैं जो सरकारी व्यवस्था की पूरक हैं। इस सिलसिले में चिकित्सा शिक्षा के व्यापारी करण की ओर ध्यान देने की जरूरत है। निजी चिकित्सा महाविद्यालयों में जिस तरह की अनाप-शनाप  फीस ली जाती है, वही तो स्वास्थ्य के व्यापारी करण के मूल में है। आखिर जो व्यक्ति इतनी अधिक फीस देकर डॉक्टर बनता है, वह शिक्षा में किए गए व्यय को ब्याज समेत वापस प्राप्त करने के लिए चिकित्सा सेवा के बजाय चिकित्सा के व्यापार में फंस जाता है। मनुष्य की लोग की बुनियादी प्रति की अपनी भूमिका भी है परंतु इस व्यवस्था एवं ढांचागत मूल कारण को हटाए बिना निजी क्षेत्र में स्वास्थ्य सुविधा उचित बिहार में उपलब्ध कराना संभव नहीं होगा। इसका असली तरीका है शिक्षा चिकित्सा का संपूर्ण सरकारीकरण। निजी क्षेत्र में चिकित्सा शिक्षा महाविद्यालय की इजाजत ही नहीं मिलनी चाहिए। जो चिकित्सा महाविद्यालय निजी क्षेत्र में है उन्हें भी सरकार द्वारा उचित मुआवजा देकर अधिग्रहण कर लेना चाहिए।



रोजगार गारंटी योजना में 100 दिन की गारंटी देना अनुपयुक्त



तीसरा क्षेत्र जो सब के विकास के लिए आवश्यक है, वह है हर व्यक्ति को आजीविका का साधन उपलब्ध कराना। रोजगार गारंटी योजना में केवल 100 दिन की गारंटी देना अनुपयुक्त है। यह आवश्यक है कि सरकार काम की मांग करने वाले को प्रतिदिन वर्ष में 365 दिन काम देने की गारंटी दे। यह तो न्यूनतम है। आखिर अधिक शिक्षित लोग अपनी योग्यता के मुताबिक काम मांगे तो उन सब को गारंटी देना अभी अव्यवहारिक होगा परंतु जो श्रम करने को तैयार हैं उसे तो कम से कम जब चाहे काम मिलना चाहिए। केवल 100 दिन गारंटी देने का कोई तर्कपूर्ण आधार नहीं है। कई देशों में बेरोजगार लोगों को बेरोजगारी के दौरान सरकार द्वारा निर्धारित राशि भुगतान करने की व्यवस्था है। यह भी आवश्यक है परंतु यह जानते हुए कि संसाधनों की कमी है, मैं कहूंगा इस तरह की व्यवस्था हमारा लक्ष्य तो रहे परंतु तुरंत नहीं हो सकता तो यह ध्यान रखा जाए कि जब भी संसाधन जुटाए जा सकते हैं इसे लागू किया जाए। विशेष प्रकार के जरूरतमंदों के लिए सरकार की विशेष व्यवस्था। अगला महत्वपूर्ण कदम है। निराश्रित पेंशन या वृद्धावस्था पेंशन जैसी योजनाएं आज केवल प्रतीकात्मक हैं। विकसित देशों में विशेष जरूरतमंदों के लिए जो व्यवस्था है उसे भी हमें धीरे-धीरे लागू करना होगा।



ट्रिकल डाउन सिद्धांत



अंत में मैं संसाधनों के जुटाने के कुछ तरीकों का जिक्र करना चाहूंगा। संपत्तिशाली लोगों पर बहुत कम कर लगाया गया है। प्रगतिशील कराधान के सिद्धांत को ही ईमानदारी से और सही भावना से लागू किया जाए तो बहुत सारे संसाधन उपलब्ध हो जाएंगे। यह तभी हो सकता है जब बूंद-बूंद टपकने के विकास के प्रतिमान को छोड़ा जाए। अंग्रेजी में इसे ट्रिकल डाउन सिद्धांत कहते हैं। यह दुर्भाग्य की बात है कि मानवता के इतिहास में यह सीख स्पष्ट रूप से उपलब्ध है कि इस सिद्धांत से असमानता बढ़ती है और कभी सबका विकास कभी नहीं हो सकता, फिर भी इसकी वकालत  करने वाले बहुत सारे अर्थशास्त्री हैं और उनका साथ देने वाले तो वह सभी संपत्तिशाली हैं जिन्हें इस सिद्धांत को लागू करवाने से लाभ मिलता है। विश्व का अनुभव बताता है अधिकांश देशों में संपत्तिशाली लोग और इस तरह का सिद्धांत देने वाले अर्थशास्त्री शासन की नीतियों को जबरदस्त ढंग से प्रभावित करते हैं। ऐसे देशों में जैसे अमेरिका जहां एक ओर बड़ी संख्या में संपत्तिशाली हैं। वहीं हजारों लाखों ऐसे लोग हैं जो सड़कों में रहते हैं जिनका खुद का घर नहीं है, जहां असमानता पराकाष्ठा में हैं। नैतिकता के पक्षधर अर्थशास्त्रियों को अब बड़े जोरदार शब्दों में कहना पड़ा है कि किसी भी सभ्य समाज में कितनी समानता स्वीकार की जाएगी इसे नैतिक रूप से निर्धारित करना होगा। पिकेटी नाम के सुप्रसिद्ध अर्थशास्त्री इसमें अग्रणी है और इसकी जोरदार वकालत कर रहे हैं। किसी भी समाज में समानता सभ्यता का प्रतीक है। जितनी अधिक असमानता किसी समाज में है उसे उतना ही असभ्य और प्रतिगामी माना जाना चाहिए।



मैंने कोशिश की है विकास का वह प्रतिमान प्रस्तुत करूं जिसमें सच में सबका विकास, सबका सशक्तिकरण करते हुए समतामूलक समाज की स्थापना में आगे बढ़ सके, जहां गांधी जी की ताबीज वास्तव में लगातार लागू किया जाता रहे अर्थात किसी गरीब व्यक्ति के चेहरे में आंसू ना हो और गरीबी का सर्वनाश हो जाए। पाठकों को देखना होगा कि 1956 में गठित मध्यप्रदेश में हम किस सीमा तक इस रास्ते में आगे बढ़ रहे हैं और कहां पहुंच पाए हैं। राजनीतिक दलों के अन्य मतभेदों को बरकरार रखते हुए जरूरी है कि विकास के इस प्रतिमान को सारे निसंकोच और पूरी तरह स्वीकार करें ताकि सत्ता में कोई भी हो यह बुनियादी नीति और दिशा बरकरार रहे। मध्यप्रदेश का भला इसी से संभव है। यदि ऊपर बताई रणनीतियों को लागू किया जाए तथा तदनुसार कदम उठाए जाएं तो हमारा राज्य न केवल पूरे देश में बल्कि सभी विकासशील देशों के लिए अनुकरणीय हो जाएगा।



( लेखक मध्यप्रदेश सरकार के पूर्व मुख्य सचिव और शिक्षाविद हैं )


Madhya Pradesh Foundation Day mp foundation day Sharad Chandra Behar मध्यप्रदेश का स्थापना दिवस मध्यप्रदेश का 67वां स्थापना दिवस शरद चंद्र बेहार