जयराम शुक्ल। इंदौर के भंवरकुआं को अब ट्ंट्या मामा भील के नाम से जाना जाएगा। ट्ंट्या मामा स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, उनके गांव पातालपानी रेलवे स्टेशन को भी उन्हीं के नाम से लिख दिया जाएगा। किसी को सम्मान देने के लिए नाम बदल देना 'हर्र लगे न फिटकरी' वाला यह तरीका कांग्रेस को भी बहुत सुहाता था। फर्क यह कि तब हर जगह या संस्थान के नाम नेहरू, गांधी उपनाम वाले होते थे आज गोंड़, बैगा, भील समाज के गुमनाम महापुरुषों के नाम भी हो रहे हैं या ऐसे लोगों के नाम जिन्होंने जनसंघ के दीये को भाजपा की मशाल में बदलकर सत्ता के साकेत तक पहुंचाया...
कभी संघर्ष और सपनें जगाता था भंवरकुआं
बहरहाल हम इतिहास के कूड़ेदान में डाल दिए गए उस भंवरकुआं की बात कर रहे हैं, जो मध्यप्रदेश और पड़ोस के राज्यों के युवाओं के सपनों में पंख लगाने का काम करता रहा है। इस इलाके में इन दिनों भुतहा सन्नाटा तो नहीं पर वह चहल-पहल भी गायब है जो चार साल पहले रहा करती थी। यह चहल— पहल उन मेधावी छात्रों की होती थी जो यूपीएससी, पीएससी में अपना भविष्य तजबीजते थे। चार साल होने जा रहे कोई नौकरी ही नहीं निकल रही और फिलहाल कोरोना एक मुकम्मिल बहाना तो है ही। जिनकी परीक्षाएं ली गईं उनके परिणाम राजनीति के चक्रव्यूह में फंसे हैं। कोई एक से डेढ़ लाख बच्चे यहां विभिन्न कोचिंग संस्थानों मे पढ़ा करते हैं, विषय विशेषज्ञों से मार्गदर्शन लेते हैं। इंदौर की इकानामी में इन बच्चों का वैसा ही योगदान रहता था, जैसा कि राजस्थान के कोटा में। ऐसे करियरिस्ट छात्रों के चलते इंदौर मध्यभारत का सबसे बड़ा शैक्षणिक केंद्र बनकर उभरा है। यहां वे मध्यवर्गीय, निम्न मध्यवर्गीय छात्र आते हैं जिनकी हैसियत दिल्ली के मुखर्जी नगर में रहकर बाजीराम जैसे बड़े संस्थानों में पढ़ने की नहीं रहती।इंदौर के भंवरकुआँ क्षेत्र में सबसे बड़ी हिस्सेदारी हमारे विंध्यक्षेत्र के बच्चों की होती है। बहुधा रेवांचल एक्सप्रेस में ऐसे प्रायः कई बच्चे मिल जाते थे, जिनके पिट्ठूबैग में किताबें और सिर पर सीधा-पिसान की बोरियां लदी रहती थीं। वह दृश्य मुझे भूला नहीं जिसमें एक बच्ची सिर पर पच्चीस किलो की बोरी और पीठ पर किताबों से भरा बैग लिए हबीबगंज स्टेशन (अब रानी कमलापत) की सीढ़ियां चढ़ते हुए डगमगा गई थी। मैंने उसका बोझ हल्का करने में सहारा दिया था। उसका पता और नंबर अभी भी मेरे पास है..फिलहाल वह बिटिया एक शहर में दबंग वाणिज्य कर अधिकारी है। ऐसे बच्चे ही भँवरकुँआ में भविष्य के भँवर से पार पाने का संघर्ष करते हैं।
तीन साल में सपने ही नहीं जेब भी लुटी
अब ज्यादातर अपना- अपना डेरा-डकूला समेटकर घर लौट चुके हैं। इन तीन साल में उनके अभिभावकों ने पाँच से दस लाख खर्च किए। कइयों ने जमीन गिरवी की, तो कई एजुकेशन लोन लेकर बैठे हैं। नौकरियां हैं कि दूर-दूर तक नजर नहीं आतीं। कोरोना ने प्रायवेट सेक्टर की आधे से ज्यादा नौकरियाँ छीन लीं। जो हैं उनमें से अधिसंख्य पचास परसेंट की पगार पर वर्क-फ्राम होम कर रहे हैं। युवाओं और छात्रों को लेकर हर सरकारें एक सी दगाबाज हैं। उनके चुनावी वायदों में रोजगारी की बरसात रहती है पर सत्ता में आने के बाद युवा फिर उसी रेगिस्तान के बियावान टीले पर खड़ा मिलता है। 2018 में कमलनाथ की सरकार आई तो लगा कि युवाओं को लेकर यह गंभीर होगी.. क्योंकि भाजपा के सत्ता पलट में युवाओं की बड़ी भागीदारी थी। लेकिन कमलनाथ भी कमाल के निकले उनकी सरकार और उसके ज्यादातर मंत्री गजनवी अंदाज में कूटने और तबादलों के एवज में उगाही करने में लग गए। पीएससी की जो रिक्तियाँ थीं भी, उसे भी टालते गए। और अंततः पिछड़ों के सत्ताइस परसेंट आरक्षण का वह सियासी पैंतरा भाँजा कि सभी नौकरियां वहीं फँस गईं। कमलनाथ को यह मालूम था कि यह आरक्षण संविधान सम्मत नहीं है और कोर्ट से स्थगन मिल जाएगा। कमलनाथ सरकार को युवाओं की हाय लगी और वह कोरोना काल में ही भस्ममीभूत हो गई। अब आई शिवराज सरकार, तो उपचुनावों के चक्कर में वह भी हाईकोर्ट में तारीख पर तारीख लेते हुए चलती रही। अब सामने पंचायत के चुनाव हैं, फिर नगरीय निकायों के और तब तक विधानसभा फिर लोकसभा के चुनाव आ जाएंगे। तब तक हम उम्मीद कर सकते है कि इसी तरह तारीख पर तारीख मिलती रहेगी।
अफसर बनने के सपने थे जोमेटो, स्वीगी में लगे हैं
नवंबर 2018 से अब तक व्यापमं और पीएससी के जरिए एक को भी नौकरी नहीं मिली। प्रायवेट सेक्टर में कोरोना इफेक्ट और सरकारी सेक्टर में रिजर्वेशन का पेंच। जो नौकरी में हैं वे बिना प्रमोशन के रिटायर्ड हो रहे हैं। और बच्चे इन्हीं दो पहलुओं में फँसकर अवसाद की स्थिति में पहुंच रहे हैं। वास्तव इन युवाओं का कोई घनी-घोरी नहीं जो इनकी चिंता करे। मध्यप्रदेश में आखिरी बार पटवारियों की भर्ती हुई थी तब से भरतीतंत्र ठहरा हुआ है। वह पटवारी की नौकरी ही इतने महत्व की थी कि तब यूपीएससी, पीएससी की तैयारी करवाने वाले कोचिंग संस्थान, पटवारी कोचिंग में बदल गए थे। नौ हजार पदों के लिए 13 लाख अर्जियां पड़ी थीं। उस भर्ती में नब्बे फीसद वही बच्चे थे जो कलेक्टर, डिप्टी कलेक्टर का ख्वाब पाले मेहनत कर रहे थे। अब वे बच्चे पछता रहे हैं जो कलेक्टरी के फेर में पटवारी परीक्षा को नहीं चुना। उन्हीं में से बड़ी संख्या में ऐसे बच्चे हैं जो मजबूरी में स्वीगी, जमैटो, अमेजॉन जैसी आनलाइन कंपनियों के डिलीवरी ब्याय बनकर अपना खर्चा निकाल रहे हैं। पीएससी, पुलिस व कुछ नौकरियों को अलग कर दें तो पिछले बीस साल से यहां संविदा कर्मी संस्कृति चल रही है। यानी कि सबसे बडे़ नियोक्ता शिक्षा विभाग समेत सेवा प्रदाता व प्रशासन के क्षेत्र में कोई पाँच लाख के आसपास ऐसी संख्या है जो रोजनदारी, संविदा और टोकन मानदेय पर चल रही है। सरकारी क्षेत्र की उच्चशिक्षा तो लगभग पूरी तरह अतिथि विद्वानों पर निर्भर है। बड़ी संख्या में ऐसे महाविद्यालय हैं जिनके विभागाध्यक्ष संविदा कर्मी या अतिथि विद्वान हैं। विश्विविद्यालयों की स्थिति तो ऐसी है कि जितने विभाग उतने नियमित प्राध्यापक और वे भी मूलविभाग का काम छोड़कर पैसा कमाने और अधकचरे स्किल के बेरोजगार तैयार करने वाले विभाग संचालित कर रहे हैं। स्वास्थ्य, पंचायत और भी कई ऐसे सेवाप्रदाता विभाग हैं जिन्हें दिहाड़ी के नौकर चला रहे हैं और जो नियमित हैं वे उनकी नौकरी खा जाने का भय दिखाकर हुक्म चलाते हैं।
भीषण शोषण से जूझ रहा युवा
दिहाड़ी, संविदा कर्मी, अतिथि विद्वान या जो अन्यनाम वाले अनियमित पद हैं, जो काम करते हैं व उसकी एवज में जो नियमित हैं उनकी वेतन का फासला 15 बनाम 100 का है। जो अतिथि विद्वान कालेज में 15 हजार रुपये महीने में पढ़ाता है वही काम करने वाले नियमित प्राध्यापक को लगभग 1लाख रुपए महीने और फोकट की कई और सुविधाएं मिल जाती हैं। कई ऐसे हैं जो दिहाड़ी करते हुए ओवरएज हो गए, कहीं लायक नहीं बचे। अब तो इनकी शादी में भी मुश्किल होने लगी है। जबकि इनमें नब्बे प्रतिशत ऐसे हैं जो पीएचडी या एमफिल तो किए ही है। यही फ्रस्टेट पीढ़ी कालेज के बच्चों को पढ़ा रही है।
सरकार नियमित भर्तियां इसलिए नहीं करती कि जब 15 हजार के गुलामों से काम चलता है तो 1 लाख वाले क्यों भरें। संविदा व्यवस्था में नधे हुए लड़कों को तो स्किल्ड लेबर जितना भी मेहनताना नहीं मिलता। हम सरकार पर भरोसा करते हैं कि वह अन्याय रोकेगी। यहां तो उल्टा वही दमन और शोषण कर रही है। कमाल की बात ये कि कोई इन अभागे लोगों के बारे में बोलने को तैय्यार भी नहीं। मीडिया भी इन्हें हाशिये पर रखता है। यह हाल उन युवाओं का है जो पढ़— लिखकर दिहाड़ी-संविदा ही सही नौकरी पाए हुए हैं। जो बेरोजगार हैं उनकी संख्या इनसे दस बीस गुना ज्यादा ही होगी। जब सरकार ही शोषण में जुटी है तो निजी क्षेत्र में कितना भीषण शोषण चल रहा है मत पूछिये। अब तो क्लर्की तक की नौकरी के लिए ख्वाहिश रखने वालों में एनआईटी से निकले इंजीनियर व एमबीए के लड़के भी होते हैं। कभी इन्होंने उत्साह से पैकज पकड़ा था। पैकेज वाली कंपनियां छंटनी कर रही हैं व कम वेतन पर काम करने को मजबूर कर रही हैं। जो काम कर रहे हैं उनकी जवानी और प्रतिभा ऐसे निचुड़ रही है जैसे चरखी में गन्ना टटेर बनके निकलता है।
अब ये हाल, 12 घंटे नौकरी, 8 हजार तन्ख्वाह
जहाँ तक याद है 2006 से प्रदेश में ग्लोबल इनवेस्टर्स मीट हर अँतरे साल हो रही हैं। मुझे लगता है कि पूँजीपतियों को लुभाने में अब तक जितने अरब खर्च हुए उतने का पूँजीनिवेश नहीं आया। सरकार से पूछा जाना चाहिए कि कितने युवाओं को पूँजीनिवेश से खड़े उद्योगों में रोजगार मिला। सरकार ने युवाओं के शोषण का एक और रास्ता खोल दिया है। यह आउटसोर्सिंग का मकड़जाल. है। सेवाक्षेत्र में यह अमरबेल की तरह फैल रहा है। एक दिन एक चैनल की डिबेट में आपातकालीन. स्वास्थ्य सेवा डायल 108 के ड्रायवरों का मुद्दा आया। मैं भी था उस बहस में। ड्रायवरों का प्रतिनिधि अपनी बात रखते हुए रो पड़ा। बारह घंटे की नौकरी, तनख्वाह 8 हजार महीना, वह भी हर महीने नहीं। न पीएफ न अन्य सुविधाएं। नौकरी से निकालने की धमकी। कहाँ चले जाएं बीबी बच्चों के साथ प्राणांत करने। कोई सुनने वाला नहीं। मध्यप्रदेश में डायल 108 जो कंपनी चलाती है वह इतनी अमीर है कि विदेशी बैंकों में बड़ा धन जमा कर रखा है। पैराडाइज लीक्स में इसका नाम है और यह भी सन्दर्भित है कि इस कंपनी में बड़े नेता की भागीदारी है। जितनी भी आउटसोर्सिंग की एजेंसियां हैं आप पता लगा लीजिए उसके पीछे कोई न कोई नेता या नौकरशाह खड़ा मिलेगा। ये अकूत धन कमाके विदेशों में गाड़ रहे हैं पर जिनको काम पर रखा है उनका खून पीने और माँस भूनकर खाने के अलावा जितना शोषित कर सकते हैं कर रहे हैं।
श्रम विभाग की उपयोगिता भी सवालों में
श्रम विभाग को नखदंत विहीन कर दिया गया है। और ये गरीब उच्चन्यायालयों में जाने का सामर्थ्य नहीं रखते इसलिए पिस रहे हैं। निजी सुरक्षा एजेंंसियों का गोरखधंधा और भीषण है। 6 हजार महीने की पगार पर बारह घंटे की ड्यूटी। जिन सरकारी गैर सरकारी विभागों से अनुबंध होता है उससे 15 से 20 हजार महीने में तय होता है लेकिन सुरक्षा गार्ड के हिस्से आता है महज छः हजार। बाँकी मिलबँट के हजम। गैरबराबरी, शोषण के चक्रव्यूह में हमारी युवाशक्ति फँसी है। राजनीतिक दलों के पास इन्हें छोड़कर दुनिया भर के मुद्दे हैं। मैं अब इस मामले में ..कबिरा हाय गरीब की..पर विश्वास नहीं करता। मरने के पहले जीते जी विप्लव की उम्मीद करता हूँ। एक तूफान उठना चाहिए युवाओं की ओर से। यह काम नेता-मथानियों की जयजयकार करने वाले नहीं कर सकते। ये चिंगारी युवाशक्ति के घर्षण से उठनी चाहिए। बिना रोये बच्चे को भी दूध नहीं मिलता, ये तो हमारे हिस्से का छीन और छान के पी रहे हैं। मैं उम्मीद करता हूँ कि मेरी बात भले ही चंद युवाओं तक पहुंचे लेकिन इसे बड़े दायरे तक फैलानी होगी। एक समझ बने तो सामूहिकता भी आएगी, संगठन भी होगा और प्रतिरोध का उद्घोष भी। मैं अपनी उम्मीद पर कायम हूँ। आगे आओं मेरे प्यारो।