नया साल, नई सरकार और भावी मुख्यमंत्री

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Jayram Shukla
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नया साल, नई सरकार और भावी मुख्यमंत्री

मध्यप्रदेश की दृष्टि से 2023 बहुत ही दिलचस्प होगा। 10 महीने बाद नवंबर में चुनाव हैं। ठीक इसके 6 महीने बाद लोकसभा के लिए वोट पड़ेंगे। इस ठंड में सियासी पैतरों की गर्माहट को आप महसूस कर सकते हैं। एक ओर बयानयुद्ध और आरोप-प्रत्यारोप शुरू हुए हैं तो दूसरी ओर मतदाताओं को दिवास्वप्न दिखाने का काम शुरू हो रहा है। कल तक जो सीधे मुंह बात नहीं करते थे, वही अब जनता के लिए चांद-सितारे तोड़कर उनकी झोली में धर देने की बात कर रहे हैं। नौकरियों का इंतजार करते उम्र की सीमा पर बैठे युवाओं के लिए भर्तियां खोल दी गई हैं। प्रदेश के लिए यह पहला ऐसा दिलचस्प चुनाव होगा जब पर्दे के पीछे से निजी प्रोपेगंडा एजेंसियां चुनाव का संचालन करेंगी। संगठन और पदाधिकारी उनके पपेट होंगे। जो शब्द ये पेशेवर रणनीतिकार नेताओं के मुंह में ठूंसेंगे वे वही उगलेंगे। सोशल मीडिया में ट्रोलरों की आर्मी तैयार बैठी है। एक तरह से इस चुनाव में नेतागीरी पर डाटागीरी हावी रहेगी।





कांग्रेस ने की शुरुआत





शुरुआत कांग्रेस ने की है, नया साल-नई सरकार और भावी मुख्यमंत्री कमलनाथ के नारे के साथ। प्रदेशभर में लगे होर्डिंग्स से बीजेपी की तिलमिलाहट स्वाभाविक है। हफ्ते भर पहले राहुल गांधी ने किसी प्रेस कान्फ्रेंस में कह दिया था- 'मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनेगी लिखकर ले लीजिएगा'। दरअसल यह वही माइन्डगेम है जिसे बीजेपी आजमाती रही है। प्रोपेगंडा एजेंसियों की यह रणनीतिक शुरुआत है। कांग्रेस की सरकार क्यों बनेगी और राहुल गांधी इतने आत्मविश्वास से ऐसा क्यों कह रहे हैं ? इसका आधार क्या है ?





कहां खड़ी है कांग्रेस





आइए जमीनी हकीकत की पड़ताल करें कि कांग्रेस आज कहां पर खड़ी है। नगरीय और जिला पंचायत के चुनावों में कांग्रेस ने अच्छा प्रदर्शन किया इसमें कोई शक नहीं। आमतौर पर जो पार्टी सत्ता पर रहती है उसका पलड़ा ऐसे चुनावों में भारी रहता है लेकिन विंध्य- महाकौशल और ग्वालियर चंबल के बरक्स देखें तो कांग्रेस को जो सफलता मिली यह उसे ऊर्जा देने वाली है। मालवखंड में कांग्रेस बुरहानपुर और उज्जैन में जीतते-जीतते हारी। पंचायतों में भी कमोबेश अच्छा प्रदर्शन रहा। नगर निगमों के व जिला पंचायतों के अध्यक्षों के निर्वाचन में अवश्य बीजेपी का सत्ता का रसूख काम आया। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा मालवा-निमाड़ को छूते हुई निकली। वहां पब्लिक का अच्छा रिस्पॉन्स मिला। शायद इसी आंकलन के आधार पर राहुल गांधी मध्यप्रदेश में कांग्रेस की गारंटी दे रहे हैं और वह कमलनाथ के पोस्टर्स के जरिए व्यक्त की जा रही है।





क्या कांग्रेस जो चाहती है वैसा ही होगा





लेकिन क्या वाकई ऐसा होने जा रहा है ऐसा कहना मुश्किल है। पहली वजह यह कि कांग्रेस के पास संगठन जैसी कोई बात नहीं। प्रदेश कांग्रेस के भीतर कमलनाथ एक अधिनायक की भांति स्थापित हो गए हैं। पहले प्रदेश के शीर्ष नेतृत्व में कम से कम पांच से सात ऐसे नेता होते थे जो बराबरी के होते थे। मध्यप्रदेश में अब कमलनाथ की जोड़ के नेता दिग्विजय सिंह हैं। कांग्रेस व शीर्ष नेतृत्व में उनकी पकड़ कमलनाथ से कमतर नहीं। मध्यप्रदेश के नेता प्रतिपक्ष गोविंद सिंह उन्हीं के पाले के हैं। यह दिग्विजय सिंह खेमा ही था जिसने कमलनाथ को दो में से एक पद छोड़ने के लिए विवश कर दिया वरना कमलनाथ नेता प्रतिपक्ष के साथ अध्यक्ष बने रहना चाहते। इस तथ्य को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता कि यदि कांग्रेस विधायक दल में कमलनाथ समर्थक विधायकों की निर्णायक संख्या होती तो व अपने स्वभावनुसार अपने ही पट्ठे को नेता प्रतिपक्ष पद पर देखना चाहते।





मध्यप्रदेश विधानसभा में अविश्वास प्रस्ताव





कांग्रेस में सबकुछ ठीक नहीं चल रहा है। यह हाल ही सरकार के खिलाफ अविश्वास मत के दौरान देखने को मिला। अविश्वास प्रस्ताव पेश करने वाला विपक्ष भली-भांति यह जानता है कि इससे सरकार गिरने वाली नहीं लेकिन यह ऐसा मौका होता है जिससे सरकार की बखिया उखेड़ी जा सकती हैं, उसे कठघरे पर खड़ा किया जा सकता है। कांग्रेस यह करने से विफल रही और इस विफलता के पीछे गोविंद सिंह नहीं कमलनाथ हैं। कायदे से इस मौके पर कमलनाथ को गोविंद सिंह से ज्यादा हमलावर होना चाहिए क्योंकि 18 महीने वे मुख्यमंत्री थे। बहस में सत्तापक्ष की ओर से 18 महीनों के कार्यकलापों पर छिद्रान्वेषण था। इसका बेहतर जवाब कमलनाथ से ज्यादा कौन दे सकता था। गोविंद सिंह अलग-थलग से पड़ गए। सत्तापक्ष हावी हो गया। अविश्वास प्रस्ताव बिना कोई असर छोड़े फुस्स हो गया।





कमलनाथ सदन और सड़क दोनों जगह कमजोर





कमलनाथ के कार्यकाल में नेता प्रतिपक्ष गोपाल भार्गव थे लेकिन हमले की कमान शिवराज सिंह चौहान के हाथों रहती थी। शिवराज के मुकाबले कमलनाथ सदन में और सड़क में दोनों जगह कमजोर साबित हुए हैं। जबकि दिग्विजय सिंह विधानसभा से बाहर रहते हुए कमलनाथ से ज्यादा असरकारक और सरकार के खिलाफ हमलावर हैं। हाल ही में व्यापमं घोटाले की एफआईआर दर्ज कराकर सरकार को असहज किया है। गोविन्द सिंह पूरी शिद्दत से उनका साथ दे रहे हैं। राजा पटेरिया और सुनील सराफ के प्रकरण में अपने नेताओं के बचाव में गोविंद सिंह ही आए जबकि कमलनाथ ने दोनों प्रकरणों से कन्नी काट रखी है। प्रदेश अध्यक्ष के नाते उन्हें अपने लोगों के साथ दमदारी साथ खड़े दिखना था। कांग्रेस नेता इससे पहले भी मोदी पर इसी तरह या इससे भी गंभीर टिप्पणी करते आए हैं। राजा पटेरिया का मामला तो 'स्लिप ऑफ टंग' का था जिसकी कैफियत भी उन्होंने दे दी। सोनिया गांधी ने तो मोदी को 'मैनईटर' (नरभक्षी) तक कहा था। कांग्रेस के ही एक बड़े नेता ने कामना की थी कि 'काश ये कोरोना मोदी को हो जाता लेकिन पटेरिया के मामले में कमलनाथ के महासचिव ने सीधे 6 साल के लिए बर्खास्त कर दिया। विधायकों और कांग्रेस नेताओं के बीच यह स्पष्ट संदेश है कि गाढ़े वक्त में कमलनाथ उनके साथ नहीं खड़े होंगे, आखिरकार वे 'प्रबंधन गुरु' जो हैं।





कांग्रेस के भीतर असहिष्णुता कभी नहीं रही





कांग्रेस के भीतर ऐसी असहिष्णुता कभी नहीं रही। ज्योतिरादित्य सिंधिया को सड़क पर उतर जाने की नसीहत और सरकार गंवा देने के बाद भी कमलनाथ के तेवर वही हैं। वे कह चुके हैं कि उनके निर्णयों पर किन्तु-परन्तु लगाने वाले या पार्टी की आलोचना करने वालों को अपनी कार पर बैठाकर दूसरी पार्टी के दफ्तर पहुंचा आएंगे। कांग्रेस ने अर्जुन सिंह बनाम श्यामाचरण युग भी देखा है जिसमें कितने भी मतभेद रहे कोई पार्टी से बाहर जाने या निकालने के बारे में सोच भी नहीं सकता। मध्यप्रदेश के कांग्रेस भवन में दिग्विजय सिंह और अजीत जोगी के समर्थकों के बीच उस खूनी भिड़ंत को हमारी पीढ़ी के पत्रकारों ने देखा है। बाद में दोनों मुख्यमंत्री हुए।





कांग्रेस में नहीं बचे कार्यकर्ता





कांग्रेस में अब कार्यकर्ता रह नहीं गए। सिर्फ नेता बचे हैं जो पार्षदी से लेकर लोकसभा तक की टिकट की अर्जी लगाते हैं। जिलों में अब तक जो अध्यक्ष बैठे हैं उनमें से ज्यादातर कमलनाथ के पट्ठे है और अठारह महीनों की सत्ता में उन्हें 'कलेक्शन एजेन्ट' के तौर पर जाना गया। बुजुर्ग व अनुभवी नेता कार्यकर्ता हाशिए पर हैं। संगठन में युवा और बुजुर्गों का समन्वय ही ठीक होता है। टिकटार्थी अभी से पर्यवेक्षकों से झगड़ने लगे हैं। जब यह धारणा बलवती होगी कि इस बार अपनी सरकार बननी है तो टिकटार्थी 'करो या मरो' के अंदाज में भिड़ेंगे। पिछली बार ही केन्द्र के पर्यवेक्षक बाबरिया जी के साथ प्रदेश के कई जिलों में झड़पें हुईं। रीवा में तो उनके साथ हाथापाई तक हुई। यह स्थिति सुधरेगी संभावना नहीं दिखती।





टिकट वितरण पर रहेगा दारोमदार





सारा दारोमदार रहेगा टिकट वितरण पर। कमलनाथ एकतरफा अपने मनपसंद या कथित सर्वे के अनुसार टिकटें बांट पाएंगे, इस पर संशय है। दिग्विजय सिंह की तीक्ष्ण नजर रहेगी और वे आलाकमान को प्रभावित करने की स्थिति में हैं। जमीनी तौर पर अभी भी वे कार्यकर्ताओं के ज्यादा करीब हैं। 10 महीने पहले व्यापमं का मुद्दा छेड़कर वे चर्चाओं के केन्द्र में आ गए हैं। उनके तरकश में अभी कई विषबुझे तीर हैं। जो सत्ता पक्ष और पार्टी के भीतर अपने प्रतिद्वंद्वियों के लिए सहेज कर रखे हैं। कांग्रेस के भीतर जल्दी ही एक मुद्दा उम्र का भी उठने वाला है। जब राजनीतिक दल जनरेशन नेक्स्ट की बात कर रहे हों ऐसे में पुरानी पीढ़ी के हाथों बागडोर सौंपने पर भी विमर्श चलेगा। जाहिर है अस्सी की उम्र के करीब बैठे कमलनाथ के लिए यह असहज स्थिति होगी।





नजर आ रहा इन्कंबेंसी फैक्टर





लेकिन ऐसा नहीं है कि बीजेपी के सामने फिर से सत्ता धरी रखी है। स्थितियां अभी भी अनुकूल नहीं हैं। इन्कंबेंसी फैक्टर साफ दिख रहा है। पार्टी के भीतर सरकार व संगठन का नेतृत्व बदलने की बात उठ रही है। कशमकश यहां भी है, पार्टी और सरकार के भीतर भी लेकिन बीजेपी में मोदी-शाह सर्कस के रिंगमास्टर की हैसियत में बने हुए हैं। दुर्भाग्य से कांग्रेस में 10 जनपथ अब यह हैसियत व भूमिका गंवा चुका है।



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