क्षत्रियों के कुलनाशक नहीं समाज संगठक थे परशुराम

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PRAVEEN GUGNANI
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क्षत्रियों के कुलनाशक नहीं समाज संगठक थे परशुराम

वैशाख शुक्ल तृतीया अर्थात अक्षय तृतीया सनातन हिंदू समाज की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण तिथि है। यह दिवस केवल हमारे सकल हिंदू समाज के आराध्य भगवान परशुराम के अवतरण का ही नहीं अपितु इसी दिन परमात्मा के हयग्रीव, नर नारायण और महाविद्या मातंगी अवतार का भी अवतरण दिवस है। वस्तुतः यह दिवस मानव के जैविक विकास के क्रम में आधुनिक मानव के आदि पुरुष का आगमन दिवस है। सृष्टि के विकास क्रम में मनुष्य ने यहां तक की यात्रा में अपना जैविक विकास क्रम पूरा किया था। भारतीय समाज का यही वैज्ञानिक तथ्य और सनातन की यही श्रेष्ठता पश्चिमी सोच वाले और दोहरी मानसिकता वाले वामपंथियों को चुभती है। सनातन हिंदू समाज के ये विद्वान, पराक्रमी, जनरक्षक, वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले नायक वामपंथियों को चुभते हैं। इस चुभन और विद्वेष का ही परिणाम है कि ये कथित कम्युनिष्ट, ये पश्चिमी, ये समाज तोड़क हिंदू समाज के परस्पर तादात्म्य और प्रेम को समाप्त करने हेतु नए-नए वितंडे लेकर आते रहते हैं।





परशुराम ने 21 बार किया क्षत्रियों का नाश





यह भी हिंदू समाज को तोड़ने और हमारी सामाजिक समरसता को भंग करने हेतु का एक वितंडा और भ्रमजाल ही है कि परशुराम ने इस धरा पर 21 बार क्षत्रियों का समूल नाश किया था। वस्तुतः सत्य यह नहीं है। सत्य यह है कि कामधेनु के अपहरण को लेकर उपजे संघर्ष में परशुराम के पिता सहस्त्रार्जुन का हैहयवंशियों ने युद्ध में वध कर दिया था। यह युद्ध 21 बार किया गया था। इस क्रम में भगवान परशुराम जी की शत्रुता सिर्फ महिष्मति के हैहय वंशी सहस्त्र अर्जुन से थी जो एक अहंकारी राजा था जिसके पुत्रों ने परशुराम जी के पिता का वध किया था। किवदंती है कि हैहयवंशियों में परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि को युद्ध में 21 भागों में विभक्त कर मृत्यु दी थी। इसके प्रतिशोध में परशुराम ने हैहय वंश के क्षत्रियों का 21 बार विनाश किया था। परशुराम जी द्वारा यह विनाश केवल अपने शत्रु हैहयवंश का किया गया था न कि सकल क्षत्रिय समाज का। परशुराम जी द्वारा संपूर्ण क्षत्रिय समाज का वध करने की बात हिंदू समाज में विभाजन के विषाक्त बीज बोने की एक कल्पित कथा है। हम सहज बुद्धि या बाल बुद्धि से भी सोचे तो यह विषय समझ में आ जाता है।





परशुराम के बारे में सबसे बड़े मिथक का सत्य





हैहयवंशियों के वध की घटना भगवान श्रीराम से भी पहले की है अगर उससे पहले ही क्षत्रिय खत्म हो गए होते तो अयोध्या का सूर्यवंश जिसमें दशरथ, राम, लक्ष्मण और मिथिला के जनक जैसे अन्य अनेकों क्षत्रिय वंश कैसे बचे रहे? जब भगवान शिव का धनुष भंजन श्रीराम ने किया तो वहां परशुराम जी का आगमन कहां से आता और इतिहास सिद्ध श्रीरामायण जी में वह प्रसिद्द और प्रेरणादायी परशुराम कहां और कैसे घटित होता? तत्पश्चात महाभारत में भी परशुराम जी और भीष्म के मध्य युद्ध का उल्लेख होता है। अगर पूर्व में ही क्षत्रिय समूल समाप्त हो गए होते तो महाभारत काल के अनेक क्षत्रिय वंश थे वो कहां से आते? स्पष्ट है कि यह मिथक कि भगवान परशुराम जी द्वारा क्षत्रियों का 21 बार पूर्ण विनाश किया गया, यह कथा ब्राह्मणों और क्षत्रियो में वैमनस्यता, विद्वेष और विषमता उपजाने हेतु गढ़ी गई है। इस संदर्भ में एक ऐतिहासिक तथ्य और भी है कि परशुराम जी ने हैहयवंश का भी समूल नाश नहीं किया था। सहस्त्रार्जुन के पुत्र का महिष्मति (आज का महेश्वर) में राज्याभिषेक हुआ था और आज भी आज भी हैहय वंश के राजपूत बलिया जिले में मिलते हैं। हैहय वंश की शाखा कलचुरी राजपूत है जो आज भी छतीसगढ़ और मध्य प्रदेश में कलार समाज के नाम से सकल हिंदू समाज में अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।





परशुराम को भगवान विष्णु का आवेशावतार कहना उचित नहीं





परशुराम जी को भगवान विष्णु का आवेशावतार कहा जाना भी उचित नहीं है। वे आवेश, पराक्रम, अस्त्र शस्त्र के साथ ज्ञान, विवेक, बुद्धि और विज्ञान दृष्टि से भी संज्ञ, प्रज्ञ और विज्ञ थे। परशुराम जी ने समूची सामाजिक व्यवस्थाओं की स्थापना आर्यावर्त के कोने-कोने में की थी। उस कालखंड में जब समाज में आर्य एक उपाधि या गुणसूचक विशेषण हुआ करता था। उन्होंने अनार्य, अघोरी, औघड़, अवर्ण, सवर्ण, सभी को आर्यश्रेष्ठ बनाने का ऋषिवत आचरण रखा हुआ था।





भगवान परशुराम का फरसा





आज के गोवा और केरल के भूभाग तो परशुराम जी के फरसे द्वारा प्रकट और पालित भूमि है। वस्तुतः परशुराम जी का फरसा केवल एक शस्त्र नहीं था अपितु यह कृषि एवं जीवन के अन्य क्रिया कलापों में उपयोग होने वाला एक उपकरण था। इस उपकरण से ही उन्होंने मानव जाति को निवास, कृषि और विकास हेतु समुद्र से उपजाऊ भूमि निकालकर मानव विकास में महत्वपूर्ण कारक की भूमिका का निर्वहन किया था। जहां हमारे पूर्वज और आराध्य श्रीराम की यात्रा उत्तर से दक्षिण की थी, श्रीकृष्ण की यात्रा पूर्व से पश्चिम की थी, वहीं परशुराम जी समूचे आर्यावर्त या जम्बुद्वीप में अपने विकास चिन्ह छोड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे। उड़ीसा का महेंद्रगिरि पर्वत उनकी तपोस्थली है। महाराष्ट्र का रत्नागिरी कोंकण, मध्यप्रदेश का महू तो छत्तीसगढ़ का सरगुजा और उत्तरप्रदेश का शाहजहांपुर भी इनसे जुड़े पावन स्थल है। मध्यपूर्व के पुराने तुर्क गाथाओं से लेकर इंडोनेशियाई कावी रामकथा तक में परशुराम का विस्तृत उल्लेख है। अनेक विद्याओं के प्रवर्तक इस योद्धा संन्यासी परशुराम जी के जीवन में प्रेम भी प्रस्फुटित हुआ था। समाज में विकास, परिवर्तन, संस्कार, समरसता और भयहीन राष्ट्र के आग्रही परशुराम जी अपने प्रेम को आगे नहीं बढ़ा पाए। श्रीकृष्ण के हृदय में जो स्थान राधा का था, वैसे ही परशुराम जी के अंतस में देवी लोमहर्षिणी विराजमान थी। ह्रदयंगम लोमहर्षिणी, अनुसिया और लोपमुद्रा जैसी देवियों के संग भगवान परशुराम ने भारत में मातृशक्ति को वैचारिक नेतृत्व भी दिया था।





सनातनियों के समझने योग्य विषय





आज अक्षय तृतीया के दिन भारत भूमि के हम सनातनियों को यह भी समझना चाहिए कि हमारे मान बिन्दुओं, आदर्शों और नायकों के संदर्भ में किस प्रकार के वितंडे, विरूपण कार्य और विषाक्त विषय समय-समय पर प्रचारित किए जाते हैं। इन सबका लक्ष्य केवल एक ही होता है हिंदू समाज में समरसता को भंग करना। आज परशुराम जयंती, अक्षय तृतीया पर शपथ लेनी चाहिए कि सामाजिक समरसता ही युग धर्म है और निज धर्म भी, यही भगवान परशुराम जी द्वारा हमें प्रदत्त धर्म भी है।





( लेखक भारत सरकार के विदेश मंत्रालय में राजभाषा सलाहकार हैं )



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