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चुनावी व्यवस्था पर अविश्वास से लोकतंत्र की शक्ति को आघात

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Alok Mehta
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चुनावी व्यवस्था पर अविश्वास से लोकतंत्र की शक्ति को आघात

गुजरात-हिमाचल विधानसभा चुनाव की घोषणा के तत्काल बाद कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ने चुनाव आयोग और उसकी व्यवस्था पर पक्षपात का आरोप लगाया। कुछ नेता और प्रवक्ता नए अनाड़ी खिलाड़ी हो सकते हैं, लेकिन पुराने अनुभवी कांग्रेसी या प्रतिपक्ष के कई लोगों को स्मरण होगा कि किसी समय एक प्रधानमंत्री के परिवार के सदस्यों के विवाह की कानूनी प्रक्रिया पूरी करने के लिए उनके निवास पर जाने से लेकर सेवा काल में भी निजी संबंध वाले अधिकारी देश के प्रमुख निर्वाचन आयुक्त रहे हैं। किसी प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के साथ वरिष्ठ सचिव रहे अधिकारी भी निर्वाचन आयुक्त बने। लेकिन इन चुनाव आयुक्तों की निष्पक्षता पर सवाल नहीं उठाए गए। अब कांग्रेस के नेता चुनावी पराजय की संभावना देखकर 'जंगल में शेर आया' के अनावश्यक हल्ले की तरह चुनाव आयोग पर ही कालिख पोतने का प्रयास कर रहे हैं। कभी देश में अपनी ही सरकार द्वारा शुरू की गई इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर सवाल उठाते हैं, तो कभी चुनाव अधिकारी पर। जिस चुनाव में अपना उम्मीदवार विजयी होता है, तब चुनावी व्यवस्था ठीक और निष्पक्ष लगती है। चुनावी हार होने पर जनता के फैसले को स्वीकारने की बजाय चुनाव, मतदान और अधिकारी पर बेईमानी के आरोप लगा देते हैं।



 



इस आलोचना को गैर जिम्मेदाराना काम नहीं तो क्या कहा जाएगा? चुनाव की तारीखों का ऐलान एक साथ क्यों नहीं हुआ? मोरवी की भयावह दुर्घटना के बावजूद उसी या अगले दिन क्यों नहीं? प्रधानमंत्री के प्रदेश के कार्यक्रम के लिए क्या देरी हुई? इस तरह के सवालों पर मुख्य चुनाव आयुक्त ने बहुत संयम और शालीनता से उत्तर दिया कि तारीखों की घोषणा नियमानुसार वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल खत्म होने से 110 दिन पहले हुई है और दोनों राज्यों के परिणाम तो एक साथ 8 दिसंबर को घोषित हो रहे हैं। लेकिन विरोधी नेता तो चुनाव आयोग, सर्वोच्च अदालत, सीबीआई , भारतीय सेना तक के निर्णयों और कार्यों पर प्रश्न चिन्ह लगाने, उनकी निष्पक्षता पर गंदगी डालने में तनिक भी संकोच नहीं कर रहे हैं। संवैधानिक और लोकतांत्रिक संस्थाओं और उनके शीर्ष व्यक्तियों की ईमानदार छवि पर दाग लगाना भारतीय लोकतंत्र की छवि बिगाड़ना ही है।





देश और लोकतंत्र की  छवि बिगड़ने से भारत में भारी पूंजी लगाने के लिए उत्सुक विदेशी कंपनियां और प्रवासी भारतीय भी दुविधा में फंस रहे हैं। लोकतंत्र में मभेद, असंतोष, राजनीतिक विरोध, आरोप-प्रत्यारोप, कानूनी कार्रवाई के साथ सामाजिक-आर्थिक विकास स्वाभाविक है। लेकिन क्या कोई सीमा रेखा नहीं होनी चाहिए।





राहुल गांधी और उनके अज्ञानी सहयोगी कम से कम अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के पचास सालों के भाषण, सम्मेलनों में कही गई बातों और संसद में अथवा बाहर भी विरोधी नेताओं के तीखे भाषणों का अध्ययन कर सकते हैं। आपातकाल के अपवाद को छोड़कर लगभग सभी प्रमुख दलों, विचारों के नेता सत्ता और प्रतिपक्ष में रह चुके हैं। इंदिरा गांधी को सत्ता से हटने के बाद कुछ दिन जेल भी जाना पड़ा, कितने छापे पड़े लेकिन उन्होंने या उनके सहयोगियों ने लोकतंत्र खत्म होने का आरोप नहीं लगाया। बाद में वह और पार्टी सत्ता में आई तो आंदोलनों से विरोध हुआ लेकिन यह किसी ने नहीं कहा कि लोकतंत्र ही खत्म हो गया। पूर्वाग्रह और राजनीतिक बदले के आरोप लगते हैं लेकिन महीनों से जेल में बंद लालू यादव भी अदालत से न्याय की बात कहकर नितीश या प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर गुस्सा निकालते हैं। लेकिन लोकतंत्र नहीं रहने का तर्क नहीं देते हैं। जय प्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई, चौधरी चरण सिंह, अटल बिहारी वाजपेयी, मधु लिमये, जॉर्ज फर्नांडिस जैसे नेता जेल में रहे। लेकिन बाद में सम्पूर्ण व्यवस्था पर अनर्गल और अशोभनीय वक्तव्य नहीं देते रहे। किसानों और मजदूरों के लिए आज से कई गुना अधिक लाखों लोगों के प्रदर्शन दिल्ली में हुए हैं। लेकिन पिछले साल अराजकता के साथ सीमाओं पर, सड़कों की हफ्तों की घेराबंदी, राजनीतिक अथवा परदेसी समर्थन से पांच सितारा सुविधाओं वाला आंदोलन दुनिया में देखने को नहीं मिल सकता है। 





याद करें, बीस वर्ष पहले बिहार, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब जैसे कई राज्यों में मतदान केंद्रों पर फर्जी मतदान, मत पेटियों की लूट और हिंसक संघर्ष की घटनाएं होती थीं और प्रशासन बेबस हो जाता था। कुछ गांवों में बाहुबलियों और उनके समर्थकों द्वारा चुनाव जीतने के लिए दी गईं धमकियों के डर से कई गांव खाली हो जाते थे। हाल के वर्षों में ईमानदार और समर्पित अधिकारियों ने ही चुनावी व्यवस्था को अधिकाधिक निष्पक्ष, आधुनिक और भयमुक्त बनाया है। अब हिंसा और लूटपाट की खबरें बहुत कम देखने को मिलती हैं। चुनावी प्रचार, खर्च पर निगरानी, गैर कानूनी तरीकों पर अंकुश, उम्मीदवारों की योग्यता, पृष्ठभूमि और आमदनी इत्यादि की सार्वजनिक घोषणा जैसी पारदर्शिता का लाभ हो रहा है। राजनीतिक पार्टियों को मान्यता, विजय पराजय के बाद की जाने वाली शिकायतों पर सुनवाई ने व्यवस्था की साख बढ़ाई है। देश में पहले एक चुनाव आयुक्त होते थे, फिर दो हुए। तब अदालत के एक निर्णय के बाद चुनाव आयोग के सदस्य तीन हो गए। एक उच्च स्तरीय समिति लंबे प्रशासनिक अनुभव वाले व्यक्ति को चुनाव आयुक्त बनाए जाने की सिफारिश सरकार को करती है। चुनाव आयुक्त किसी राजनीतिक दल अथवा सरकार की बजाय केवल राष्ट्रपति और शीर्ष न्यायालयों के लिए जवाबदेह होते हैं। चुनाव प्रक्रिया के दौरान प्रदेशों की प्रशासन व्यवस्था चुनाव आयोग के पास आ जाती है। 

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किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में प्रशानिक अधिकारी या न्यायाधीश उसी समाज और क्षेत्र विशेष के ज्ञान अनुभव के आधार पर आते हैं। सीबीआई में अधिकांश अधिकारी राज्यों से प्रतिनियुक्ति पर रखे जाते हैं। उन्हें कोई एक पार्टी या देवदूत नहीं लाते हैं। वकील, जज बन सकते हैं या नेता और मंत्री भी। संसद या विधानसभा में कितने ही वकील आते हैं। उनमें से कोई मंत्री भी बनते हैं और पद से हटने के बाद फिर वकालत करने लगते हैं। क्या मंत्री रहते उनके निर्णयों से कंपनियां प्रभावित होती हैं। लेकिन अपेक्षा यह होती है कि उनके काम में निष्पक्षता रहेगी। आख़िरकार कोई भी पद जिम्मेदार व्यक्ति को अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन की अपेक्षा बढ़ाता है। कुछ लोग अपवाद हो सकते हैं। लेकिन 75 वर्षों में कर्तव्यनिष्ठ लोगों से ही लोकतंत्र की जड़ें मजबूत हुई हैं और होती रहेंगी। 





( लेखक आईटीवी नेटवर्क इंडिया न्यूज और दैनिक आज समाज के संपादकीय निदेशक हैं। )



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