बचपन में लादा जा रहा सयानापन, मीडियावी दुनिया में हमारे बच्चों के लिए क्या!

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Jayram Shukla
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बचपन में लादा जा रहा सयानापन, मीडियावी दुनिया में हमारे बच्चों के लिए क्या!

मां-बाप खुश, बेबी मॉडर्न हो रहा है। हम अखबार वाले ब्रेकिंग की तोप चला रहे हैं। मंचीय कवियों को पाकिस्तान से फुर्सत नहीं या उनके गीत अभी भी हरसिंगार में अटके हैं। आज बाल दिवस पर हम सचमुच कितने बड़े अपराधी हैं कि बच्चों को देने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं। अभी कुछ दिन पहले एक कवि सम्मेलन में जाना हुआ। कभी कविताई भी कर लेता था, सो पुराना कवि मानते हुए आयोजकों ने अध्यक्ष बना दिया। संगोष्ठी और कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करना बड़ा दुश्कर काम है। सबकी सुनो, आखिरी तक बैठो और सुनाओ तब जब दरी-जाजम समेटने वाले भर बचें। 





किसी की सुनने में भी अब धैर्य धकधकाने लगता है। लोग सिर्फ अपनी-अपनी सुनाना चाहते हैं, दूसरे की सुनना नहीं। परिणाम यह निकला कि आज की तारीख में श्रोता से ज्यादा कवि हैं। मंचों में भी वे कवि ज्यादा सुने जाते हैं जो अभिनय के साथ अच्छा गा लेते हैं। उनकी रचना की पंक्तियों पर जाएंगे तो अपना सिर पीट लेंगे, लेकिन सुनाने का हुनर वो कि आप रात भर ताली पीटते हुए भी न थकें। वीर रस के कवियों का कहना ही क्या ? इनकी तो एक अलग बटालियन बनाकर सरहद में तैनात कर देनी चाहिए।





बच्चों के लिए किसी के पास दो लाइनें नहीं





बहरहाल उस कवि सम्मेलन में सामने की जाजम में बच्चे बैठे थे, शायद यह मानकर आए होंगे कि कोई तमाशा या जादू देखने को मिलेगा। मंचीय कवि बच्चों से बहुत छड़कते हैं, क्योंकि उनकी चहचहाट कविजी का सुर- लय-ताल बिगाड़ देती है। आयोजक ने मेरे पूरे समय मौजूद न रह पाने की मजबूरी पर कृपा करते हुए शुरू में ही दो शब्द बोलने का मौका दे दिया। मैं बोलने को खड़ा हुआ तो बच्चों ने जमकर तालियां बजाईं शायद यह जानकर कि मैं पहला तमाशाई हूं जो मजा लगाऊंगा।





लेख लिखते-लिखते और खबरें बनाते हुए जिंदगी के तीस साल घिस गए पर मेरे पास बच्चों के लिए कुछ नहीं था। जिंदगी में पहली बार अपराध बोध हुआ अपनी लिक्खाड़ी और अखबारनवीसी पर। हां, मैंने कवियों से यह जरूर विनती की कि दो लाइनें ही सही बच्चों के लिए कोई कविता जरूर सुनाएं। मंच में कुछ नामी-गिरामी समेत स्थानीय कवि थे। सबके सब अच्छे पारिश्रमिक अनुबंध में आए थे, लेकिन सबके सब बाल साहित्य, कविताओं की दृष्टि से कंगाल। 





बच्चे क्या सुने, क्या समझें, क्या गाएं। वो सीधे सयानी में प्रवेश कर रहे हैं। टीवी शो देखिए, 5-6 साल के बच्चे नन्हा मुन्ना राही हूं गाने की बजाय फिल्मों के क्लासिकल गाते हैं। कल ही सुन रहा था- मन तड़पत हरि दर्शन को आज, उसका प्रतिद्वंद्वी जवाब में मधुबन में राधिका नाचे रे का आलाप ले रहा था। बचपन पर लादा जा रहा है सयानापन। 





बचपना छीनने के लिए माता-पिता भी जिम्मेदार





छोटा बच्चा रोता है तो मम्मी-डैडी उसे फोन में गेम चालू करके दे देते हैं। उसे अब काठी का घोड़ा नहीं मिलता। ज्यादा समझने लायक हुआ तो टीवी में पोगो या कार्टूनी चैनल शुरू करके बैठा दिया। पंद्रह-सोलह साल पहले एक नेत्रहीन कवियत्री आरिफा शबनम से सुने एक गीत की पंक्तियां बच्चों की त्रासदी को लेकर अक्सर गूंजा करती हैं-





विदेशी चैनलों में खो गया है आज का बचपन,



न गुड़िया की कहीं शादी न नानी की कहानी है।





बच्चों के खेल बदले, आदतें भी





संयुक्त परिवार के बिखरने के साथ सबकुछ बिखर गया। किस्सागोई भी, लोरी भी और टीपरेस, लुकाछिपी का खेल भी। मेरी दादी ने सैकड़ों कहानियां सुनाई होंगी। अइसे...अइसे एक राजा रहा..से शुरू होनेवाली किस्सागोई बालमन में ऐसा तिलस्म रचती थी जिससे कच्ची उम्र में ही कल्पनाओं का विस्तृत वितान मिल जाता था। यह एक मानसिक अभ्यास भी होता था, जो बालपन के मष्तिष्क के कोरे स्लेट में लिखा जाता था। फिर घुटनों में झुलाझुलाने वाला गीत- खंती खोरिया खनत मनैय्या, खनत खनत एक कौड़ी पाएन..आदि आदि सैकड़ों बालगीत जो सदियों से परंपरा के प्रवाह के साथ चलते चले आ रहे थे। संयुक्त परिवार एक पाठशाला होते थे। सहकार और नेतृत्व की सीख यहीं से शुरू होती है। ये कालगति के नियम हैं चलते चलेंगे महीना, साल, वर्ष, सदी गुजरती जाएंगी। यहां कोई रिवर्स गियर नहीं लगता। सिर्फ गाकर स्मृतियों में लौट सकते हैं- कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन।





गुड्डा गुडिया के खेल और लोरियां गुजरे जमाने की बात है। नागपंचमी के दिन हम बच्चे नदी तालाब में पुतरी पीटने जाते थे। गर्मी की छुट्टियों में दो महीने जिज्जी लोग पुतरा-पुतरी बनाती थीं। उनकी शादी भी होती थी। नागपंचमी के आसपास स्कूल शुरू होती थी तो पुतरी-पुतरे समारोह पूर्वक विसर्जित किए जाते थे। हम लोग बेशरम के डंडों से उन पुतरों को पीटपीट कर लड़कियों को चिढ़ाते थे। 





बदलना प्रकृति का नियम, लेकिन इतना भी ना बदले





समय के साथ सब बदलता है। बदलना भी चाहिए, पर यह बदलाव की दिशा और दशा क्या हो यह विमर्श का विषय है। आज इस बदलाव ने ही गुड्डे-गुड़ियों की जगह फुल्ली लोडेड एँड्रायड थमा दिया है। मोबाइल अब बच्चों के लिए एडिक्शन है। रेयान इंटरनेशनल की प्रदुम्न हत्याकांड की घटना बताती है कि बच्चे सैडिस्ट होते जा रहे हैं और अपनी लालसा पूरी करने के लिए कत्ल तक पहुंचने लगे हैं।





बचपन में पहली कविता जो मुझे याद हुई वो थी रामनरेश त्रिपाठीजी की रचित प्रार्थना- हे प्रभो, आनंददाता ज्ञान हमको दीजिए, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए। ये पूरी प्रार्थना आज भी वैसी ही याद है, जैसी कि 6 साल की उम्र में थी। इसके बाद जो याद हुआ वो तुलसी कृत हनुमान चालीसा था। 





हिंदी के धुरंधरों ने बच्चों के लिए खूब लिखा





हमारे समय में ही ट्विंकल-ट्विंकल लिटिल स्टार ने भी दस्तक दे दी थी। पर हिंदी में बाल साहित्य इतना सम्पन्न था कि कोर्स के अलावा अंग्रेजी पढने का कभी मन नहीं हुआ।  रामायण, महाभारत, पंचतंत्र, हितोपदेश की चित्रकथाएं पढ़ने को मिलती थी। आज भी कई प्रसंग उनसे ही लेते हैं जो स्मृति में दर्ज है। जितने भी महान लेखक हुए हैं, उन्होंने बच्चों का पूरा ध्यान रखा। रवीन्द्र नाथ टैगोर की काबुलीवाला कितनी मर्मस्पर्शी कहानी है। हरिऔध जैसे धुरंधर कवि ने बच्चों के लिए लिखा। प्रेमचंद की ईदगाह किसे याद नहीं।





बाद के दिनों के ऐसे साहित्यकार, जो पत्रिकाओं के संपादक हुए वे भी बच्चों के लिए लिखते रहे। रघुवीर सहाय ने तो लिखा ही..सर्वेश्वरदयाल सक्सेना ने इब्नबतूता पहन के जूता वाली कविता उस दिन लिखी जब उनकी बेटी पहली बार स्कूल गई। गुलजार साहब को तो मैं उनके अनूठी और अद्भूत बाल रचनाओं के लिए नमन करता हूं- जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है, फूल खिला है..। यह एक दो बरस के बच्चों की मानसिकता को ध्यान में रखकर लिखा गया। मोगली की प्रसिद्ध कहानी इससे जुड़ी है। किताबी साहित्य के समानांतर फिल्मों में भी बालगीत, लोरियां खूब लिखी गईं,लोकप्रिय हुईं। शैलेन्द्र जैसे महान गीतकार ने बच्चों के लिए गीत, लोरियां लिखीं। शकील बदायूंनी, जावेद अख्तर, भरत व्यास, शेवान रिजवी, बशर नवाज जैसे गीतकारों ने फिल्मों के लिए कालजयी गीत लिखे। इनके दौर को हटा दें तो बच्चों के गीत की दृष्टि से फिल्मीदुनिया भी कंगाल हो जाए।





बच्चों के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं





मुद्दतों बाद आमिर खान की फिल्म तारे जमीं पर आई। फिल्मों से बच्चे खारिज। टीवी चैनलों में जो हैं सो उन पर सयानापन लाद दिया गया। अखबार, पत्रिकाओं में भी बचपन के लिए स्पेस लगभग गायब सा। बाल पत्रिकाओं का समापन सा हो गया है। कॉमिक्स के नाम पर बंदूक थामें फैंटम। और अब तो आत्महंती ब्लू ह्वेल। पश्चिम की खिड़की खुली तो वहां की समूची सांस्कृतिक सड़ांध यहां गमगमाने लगी। बच्चे वहीं बिंधे हैं।





मां-बाप खुश हैं, बेबी मॉडर्न हो रहा है। हम अखबार वाले ब्रेकिंग की तोप चला रहे हैं। मंचीय कवियों को पाकिस्तान से फुर्सत नहीं या उनके गीत अभी भी हरसिंगार में अटके हैं। आज बालदिवस पर हम सचमुच कितने बड़े अपराधी हैं कि बच्चों को देने के लिए हमारे पास कुछ भी नहीं।



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