भोपाल फॉरेस्ट वेस्ट डिवीजन से एसके वशिष्ठ के ट्रांसफर होने के बाद पीएन मुले डीएफओ के रूप में पदस्थ हुए। डीएफओ मुले की विशेषता थी कि वे दिन भर दफ्तर में बहुत ऊंची आवाज़ में डांटते व चिल्लाते रहते थे। कभी उनका गुस्सा किसी चपरासी या कभी किसी बाबू पर फूटता था। उनके गुस्से के कारण आगंतुक और दफ्तर के अधिकारी व कर्मचारी उनसे दूरी बना कर रखते थे। ये लोग ज़रूरी काम होने पर ही उनसे मिलने जाते थे। बताया जाता है कि पत्नी के निधन के बाद उनका ऐसा व्यवहार हो गया था। डीएफओ मुले जब भी सीहोर आते तो वे मेरे साथ उस समय के कलेक्टर ब्रम्हस्वरूप से मिलने जाते थे। उस समय भोपाल शहर सीहोर के अंतर्गत आता था। भोपाल सीहोर जिले की एक तहसील ही थी। मुझे याद है कि जब ब्रम्हस्वरूप चीफ सेक्रेटरी के पद से रिटायर हुएए तब उनसे मिलने कोई भी जाता था तो वे मुश्किल से एक दो शब्द ही बोलते थे। मैं उनसे क्लब में प्रतिदिन शाम को मिलता रहता था, इसलिए मेरे साथ जाने से डीएफओ मुले को सहजता महसूस होती थी। मुलाकात के दौरान मैं ही चीफ सेक्रेटरी से वार्तालाप करता रहता था। यह संयोग ही है कि रिटायरमेंट के बाद अरेरा कॉलोनी में ब्रम्हस्वरूप मेरे पड़ोसी बने।
सीहोर के पटवारियों को भोपाल में ढूंढा जाता था
सीहोर दफ्तर में दो सर्वेयर वर्गीस व अग्रवाल पदस्थ थे। दोनों सर्वेयर को काम सौंपा गया था कि जितना जंगल क्षेत्र फॉरेस्ट महकमे को ट्रांसफर किया गया है, उसका सर्वे कर यथासंभव सीधी बाउंड्रीलाइन डालकर फॉरेस्ट ब्लॉक्स का निर्माण कर नक्शे बनाएं। इस काम के लिए पटवारियों का सहयोग लिया जाता था। अधिकांश पटवारी अपने हल्के में न रहकर भोपाल में ही जमे रहते थे, इसलिए सर्वे करने के लिए जाने के पूर्व हम लोग भोपाल में पटवारियों से सम्पर्क कर सहायता देने के लिए उपलब्ध रहने का अनुरोध करते थे। फॉरेस्ट ब्लॉक की बाउंड्री रखने के लिए विभिन्न खसरा नंबरों में दर्शाए गए क्षेत्र में से कुछ क्षेत्र फॉरेस्ट ब्लॉक में शामिल किए जाते और बाहर छोड़े गए क्षेत्रों की पूर्ण जानकारी ग्रामवार व खसरावार तैयार की जाती थी।
मुंडियों को आधार मान कर होता है सर्वे
पटवारी नक्शे में दर्शाए गए खसरा नंबरों को मौके पर ढूंढकर सर्वे करने के लिए राजस्व विभाग के पूरे क्षेत्र में मुंडियां यानी कि सात-आठ फुट लंबे-मोटे पत्थर गाड़कर लगभग नौ इंच से लेकर एक फुट तक का हिस्सा ज़मीन के ऊपर रखा जाता था। इन्हीं मुंडियों का लोकेशन पटवारी नक्शे में दर्शाया जाता था। इन मुंडियों के क्षेत्र में ढूंढकर उन्हें बेस मानकर सर्वे किया जाता था। जमीन के ऊपर एक फीट ऊंचे मोटे पत्थर दूर से ही दिखाई देते थे। हमारी टीम में फॉरेस्ट रेंजर पाल थे। जिन्हें सर्वे की निगरानी करने का कार्य सौंपा गया था। वे मुंडियों को दूंढ़ते वक्त हमेशा हल्के फुल्के मजाक करते रहते थे। फील्ड में सर्वेयर्स की सहायता करते हुए उनका कहना था कि बचपन में जब भी इन मुंडियों को देखते तो वे यही समझते थे कि ये जगह-जगह लगी हुई भगवान की मूर्तियां हैं और वे हमेशा उनका नमन कर आगे बढते थे।
सर्वेयर की जरीब का खेत मालिकों को डर
सर्वेयर अग्रवाल मनी माइंडेड व्यक्ति थे। वे हमेशा प्लॉट, जमीन या मकान खरीदने की बात किया करते थे। संभवतः उनको यह गुण विरासत में मिला था। मुझे मौखिक शिकायत मिली कि सर्वेयर अग्रवाल सर्वे में उपयोग होने वाली 100 फुट लंबी लोहे की लिंक युक्त जरीब कभी.कभी बाजू में लगे हुए खेत में डाल देते थे, जिसके कारण खेत मालिक को डर सताने लगता था कि शायद उसके खेत का कुछ हिस्सा फॉरेस्ट ब्लॉक में शामिल किया जा रहा है। इस तरह सर्वेयर अग्रवाल खेत मालिक को भयभीत कर कभी-कभी कुछ पैसे.रुपए का जुगाड़ कर लेते थे। हालांकि, इस संबंध में उनके विरूद्ध कभी कोई लिखित शिकायत नहीं मिली।
सर्वेयर वर्गीस और बंदूक
दूसरे सर्वेयर वर्गीस शांत, व्यवहार कुशल व मेहनती थे। हंसमुख होने के कारण उनसे बातचीत करने में आनंद का अनुभव होता था। मेरे पास एक बारह बोर की डबल बैरल बीएसए मेक की बंदूक थी। इस बंदूक को मेरे ससुर आईपीएस अधिकारी बीएल पाराशर ने गिफ्ट में दी थी। कभी-कभी इस बंदूक को दौरे पर साथ में ले जाता था। जैसे ही वर्गीस बंदूक को देखते वैसे ही वे आग्रह करते कि वे बंदूक अपने साथ रखकर चलना चाहेंगे। उन्हें बंदूक रखने का विशेष शौक था। एक बार वे पहाड़ी ढलान पर बंदूक लेकर आगे बढ़ रहे थे तभी उनका पैर फिसला और वे हाथ में पकड़ी हुई बंदूक सहित नीचे गिर पड़े। इससे उनको तो चोट लगी ही और बंदूक जमीन पर पड़े पत्थर पर जोर से गिरने के कारण उसकी बैरल में एक गहरा डेंट पड़ गया, जिसे बाद में ठीक करवाया गया।
हंसमुख जैकब का जिम्मेदारी भरा काम
मेरे ऑफिस में लिपिक के पद पर हंसमुख व मिलनसार दक्षिण भारतीय पीजे जैकब कार्यरत थे। हम लोग वन फॉरेस्ट एरिया के प्रत्येक कंपार्टमेंट की मैपिंग कर कंपार्टमेंट हिस्ट्री हाथ से लिख कर तैयार कर लाते और उन्हें सौंप देते थे। वे कंपार्टमेंट हिस्ट्री टाइप कर प्रत्येक कंपार्टमेंट की अलग-अलग फाइल तैयार कर उसे सुरक्षित रखते थे। इस काम को जैकब पूरी जिम्मेदारी के साथ करते थे। कंपार्टमेंट हिस्ट्री एक स्थायी रिकार्ड होता था, जिसमें भविष्य में उस कंपार्टमेंट में किए जाने वाले समस्त कार्यों व व्यय का विवरण डीएफओ ऑफिस में रखा जाता था, जिसका उपयोग वर्किंग प्लान रिवीजन के समय अत्यंत उपयोगी सिद्ध होता था।
फॉरेस्ट महकमे में कंपार्टमेंट हिस्ट्री
वर्किंग स्कीम बनाने के लिए फॉरेस्ट महकमे को ट्रांसफर प्रोटेक्टेड फॉरेस्ट एरिया का सर्वे कर उनके नक्शे बनाए गए। प्रत्येक ब्लॉक में ग्रामवार व खसरावार शामिल किए गए क्षेत्रों की सूची तैयार की गई। अगर किसी खसरे को पूरी तरह ब्लॉक में शामिल नहीं किया तो ऐसी स्थिति में शामिल किए गए क्षेत्र व बाहर छोड़े गए क्षेत्र की अलग-अलग सूचियां तैयार की गई। भोपाल फॉरेस्ट डिवीजन वेस्ट के सभी ब्लॉक्स को कंपार्टमेंट में डिवाइड कर कंपार्टमेंट नंबर दिए गए। प्रत्येक कंपार्टमेंट का नक्शा तैयार कर उस में पाए जाने फॉरेस्ट की क्वालिटी आयु व वृक्षों की प्रजाति मिट्टी का प्रकार और जियोलॉजी आदि की जानकारी एकत्र कर कंपार्टमेंट हिस्ट्री लिखी जाती थी। प्रत्येक कंपार्टमेंट की अलग फाइल तैयार कर मैपिंग कर कंपार्टमेंट हिस्ट्री की फाइल में स्टाक मैप संलग्न किया जाता था। प्रत्येक हाथ से लिखी गई कंपार्टमेंट हिस्ट्री को ऑफिस में टाइप कर और फील्ड में बनाए गए मैप को
ड्राफ्ट्समेन द्वारा निर्णायक रूप से तैयार कर फाइल में लगाया जाता था।
सर्वे ऑफ इंडिया की शीट्स और फोटो कॉपी मशीन न होने पर कैसे किया जाता था काम
उस समय हमारे ऑफिस में सर्वे ऑफ इंडिया की 4 इंच=1 मील की कंटूरयुक्त शीट्स उपलब्ध नहीं थी और न ही नक्शों को इनलॉर्ज करने के लिए फोटो कॉपी मशीन, इसलिए ड्राफ्ट्समेन द्वारा ऑफिस में सर्वे ऑफ इंडिया की 1 इंच बराबर 1 मील की उपलब्ध शीट का उपयोग किया। इसमें नदी, नाले व कंटूर आदि दर्शाए होते थे। इनको 4 इंच पर इनलॉर्ज कर बनाए गए ब्लॉक्स के 4 इंच बराबर 1 मील के नक्शे में चढ़ाया जाता था। इस तरह पूरे फॉरेस्ट महकमे की 4 इंच की शीट्स तैयार हो जाती थी। इन्हीं शीट्स पर फील्ड में तैयार किए गए स्टॉक्स मैप्स का पूरा विवरण ड्राफ्ट्समेन द्वारा चढ़ाया जाता था। शीट्स में कूप भी दर्शाए जाते थे जिन्हें वर्ष वार फील्ड में डिमार्केट कर वर्किंग स्कीम में दर्शाए अनुसार कार्य किए जाते थे। वर्तमान में यह सब सुविधाएं होने से पूर्व समय की तुलना में काम सरलता व शीघ्रता से करना आसान हो गया। 4 इंच शीट्स को अगले 10 वर्षों तक फील्ड में ले जाना ज़रूरी होता था। यदि इन्हें मोड़ कर रख दिया जाता तो मोड़ पर से फटने का डर बना रहता था इसलिए शीट्स की क्लॉथ माउंटिंग करना जरूरी था। इस काम के लिए भोपाल की सरकारी प्रिंटिंग प्रेस से सम्पर्क कर किया जाता था। शीट्स को मोड़े जाने वाले हिस्से से काटकर क्लाथ पर माउंटिंग कर उनको फोल्ड कर काफ़ी छोटा बनाया गया ताकि फील्ड में इन्हें आराम से ले जाया जा सके और उनका उपयोग बार-बार करने के बाद भी उनके फटने की कोई आशंका न रहे।
फॉरेस्ट की वर्किंग स्कीम बनाना कितना कठिन और कितना महत्वपूर्ण
मुझे याद है कि वर्किंग स्कीम में करीब दस.बारह चेप्टर लिखे जाने थे। इसके लिए हर चेप्टर की एक अलग फाइल बनाई गई। इसमें समय-समय पर प्राप्त विवरण समाहित किया जाता रहाए तब जाकर वर्किंग स्कीम लिखी जा जा सकी। वर्किंग स्कीम के दौ वॉल्यूम तैयार किए गए थे। दूसरे वॉल्यूम में अपेंडिक्स शामिल कर एरिया आदि का पूर्ण विवरण दर्शाया गया। वर्किंग प्लान के दोनों वॉल्यूम प्रिंट करवाए गए। वर्किंग स्कीम अगले दस वर्षों के लिए फॉरेस्ट के रखरखाव पर विशेष ध्यान दे कर तैयार की गई थी। इसमें स्पष्ट रूप से दर्शाया गया था कि किस फॉरेस्ट एरिए में क्या काम किए जाएंगे। जो कूप प्रत्येक वर्ष डिमार्केट कर निकाले जाएंगे। उनमें स्कीम में दर्शाए गए नियम के अनुसार ही कटाई आदि कार्य किए जाएंगे।
वर्किंग स्कीम के कठिन दो वर्ष
मुझे अब आभास होता है कि वर्किंग स्कीम बनाने का यह लगभग दो वर्ष का समय मेरी शासकीय सेवा का काफ़ी कठिन समय रहा। साधन सुविधाओं का अभाव था। इस तरह के काम के लिए कोई शासकीय वाहन भी उपलब्ध नहीं था। पूरी अवधि में बस व साइकिल से यात्राएं करनी पड़ी। जंगलों में कई सौ किलोमीटर पैदल चलना पड़ा। लंबी अवधि के शासकीय दौरे के कारण परिवार से दूर रहना पड़ा। पत्नी ने साहस व धैर्य का परिचय दिया। मुझे याद है कि एक बार जब हम लोग दौरे पर थेए तब साम्प्रदायिक दंगे के कारण कर्फ्यू लग गया। पत्नी बच्चों के साथ घर में अकेले थी। फिर भी किसी तरह उन्होंने व्यवस्थाएं बनाई। जब हम दौरे से वापस आए तब जानकारी मिली कि इस अवधि में कर्फ्यू भी लग चुका था। वह ऐसा समय था जब कोई मोबाइल फोन आदि प्रचलन में आए ही नहीं थे और हेड क्वार्टर से हम लोगों पूरी तरह सम्पर्क टूट जाता था।
(लेखक मध्यप्रदेश के प्रधान मुख्य वन संरक्षक रहे हैं)