कामयाब न हों तो ढोंग लगती हैं कोशिशें...

क्या यही लोक कल्याणकारी राज पथ है? क्या ये प्रगतिशील समाज है? क्या यही मानव कहलाने लायक गुणों का शेष है? ... ये सवाल उसी अगस्त माह में उपजे हैं जिसने दुनिया को परमाणु धमाके की त्रासदी दी वहीं भारत को स्वतंत्रता भी।

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Dolly patil
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Devesh Kalyani
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लेखक- देवेश कल्याणी

क्या यही लोक कल्याणकारी राज पथ है? क्या ये प्रगतिशील समाज है? क्या यही मानव कहलाने लायक गुणों का शेष है? ... ये सवाल उसी अगस्त माह में उपजे हैं जिसने दुनिया को परमाणु धमाके की त्रासदी दी वहीं भारत को स्वतंत्रता भी। इसी माह मप्र के कटनी में दलित बुजुर्ग और किशोर को बेरहमी से पीटती महिला अफसर और उनके सहकर्मियों का वीडियो वायरल  हुआ। जाति जनगणना पर बनते बिगड़ते सुरों के साथ आरक्षण में आरक्षण जैसे विषय सुप्रीम कोर्ट का फैसला शांत पानी में पत्थर साबित हुआ।

इसी समय में मप्र में रोजगार योजनाओं का कच्चा चिट्ठा स्टेट लेवल बैकिंग कमेटी की रिपोर्ट से हुुआ, जो ऐलान करता है कि रोजगार के नाम पर ऊंट के मुंह में जीरा दिया गया। जिसे देते देते ही लाल फीताशाही की काहिलियत के कीड़े कुतर गए। ऐसे विषयों पर कौन बात करेगा जबकि हम तो उस पीढ़ी को देश हवाले करने जा रहे हैं जो 10 सेंकड में मोबाइल पर सब्जेक्ट स्क्रोल कर आगे बढ़ जाती है। हालांकि बंगाल और पश्चिम बंगाल के छात्र आंदोलन उम्मीद जगाते हैं, लेकिन उनके पीछे की पॉलिटिकल गेम ज्यादा खुश नहीं होने देता।  

खैर... साधुवाद मुख्यमंत्री डॉ मोहन यादव जी... कटनी केस संज्ञान में आते ही तीव्र कार्रवाई पर धन्यवाद। आपने कटनी केस में जीआरपी थाना प्रभारी अरुणा वाहने सहित पांच पुलिसकर्मियों को निलंबित करने और जांच के निर्देश दिए हैं। वहीं पुलिस अफसरों को चेतावनी देते हुए कहा है कि यह सुनिश्चित किया जाए कि भविष्य में इस तरह का कदाचार न हो। ऐसी कार्रवाई नि:संदेह राहत देती है मगर ऐसी घटनाएं क्यों होती है इसकी तह में कौन जाता है? इसके सामाजिक, आर्थिक कारणों की मीमांसा का क्या कोई मैकेनिज्म या पैरामीटर कहीं मौजूद है?  शायद नहीं है...  इस घटना का सच चाहे जो हो लेकिन साउथ की एक फिल्म जय भीम ऐसे ही एक कथानक के आसपास घूमती है जिसमें कुछ जातियों को जरायमपेशा मानकर पुलिस मनमानी और मारपीट से कुबूल करा अपराध नियंत्रण के ग्राफ को बुलंद करती है... कटनी की घटना भी उसी प्रकृति के आसपास घूमती है, जिसमें सरकारी बल वंचितों को रौंदना अपना अधिकार समझता है और उसे झेल जाना गरीब अपनी किस्मत। अमेरिका अफरमेटिव एक्शन से गुलामों को बराबरी पर ले आया लेकिन देश में अब तक ये विषय शापित है...  बात तो बहुत स्तरों पर होती है मगर उतनी ही जितने में उससे  लाभ उठाया जा सके या अपने आप को स्वच्छ, पवित्र या ग्राह्य बनाए रखा जा सके। 

केंद्र में सरकार के सहयोगी दल जेडीयू ने कहा कि अन्य पिछड़ा वर्ग कल्याण संबंधी संसदीय समिति में चर्चा के लिए ‘जाति आधारित जनगणना’ को विषय के रूप में शामिल किया जाए। इसी जेडीयू ने बिहार में जातिवार के बाद आरक्षण को संविधान की मूल भावना से पृथक  75 फीसदी तक पहुंचा दिया। जबकि शेष पार्टियां लाभ हानि गणना से ही बाहर नहीं निकल पाई हैं। इससे पहले सुप्रीम कोर्ट का आर्डर था कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण में उप-वर्गीकरण या सब-क्लासिफिकेशन किया जा सकता है। वहीं अंतिम पंक्ति के लोगों तक हिंदुत्व के परचम को पहुंचाने वाले संघ के गढ़ मध्यप्रदेश में सरकार संचालित रोजगार प्रगति योजनाओं का कच्चा चिट्ठा स्टेट लेवल बैंकिंग कमेटी की रिपोर्ट में खुल गया।

 31 मार्च 2024 तक के आंकड़ों के मुताबिक बतौर मिसाल मुख्यमंत्री उद्यम क्रांति योजना में 16 हजार 243 को ही लाभ मिल सका जबकि इस योजना में लक्ष्य 50 हजार लोगों तक योजना का लाभ पहुंचाने का रखा गया था। संत रविदास स्वरोजगार योजना मेंं सिर्फ 1387 लोगों को मिला योजना का लाभ मिला जबकि 5 हजार युवाओं को जोड़ना था, आवेदन भी 5 हजार से अधिक आए, लेकिन... ऐसे ही टंट्या मामा आर्थिक कल्याण योजना, मुख्यमंत्री पिछड़ा वर्ग व अल्पसंख्यक उद्यम योजना, विमुक्त घुमंतु अर्ध घुमंतु स्वरोजगार योजना, भीमराव अंबेडकर आर्थिक कल्याण योजना सभी एक जैसे हाल में हैं जिनमें कुछ तो 10 फीसदी रिजल्ट नहीं ले पाए। ये आंकड़े, ये खबरें और इन पर सियासी दांवपेंच एक दूसरे से भले बिल्कुल अलग नजर आएं लेकिन जरा ध्यान से देखने से यह न केवल गुत्थमगुत्था बल्कि एक दूसरे का क्रोनिक सपोर्ट करते नजर आते हैं। 

कटनी में पिटने वाले परिवार को इस हालात तक लाने वाली परिस्थितियां कौन सी थी? किसी को यूं पीटा जा सकता है ... पुलिस में यह समझ बनाने वाले तत्व कौन से है? जाति जनगणना और आरक्षण के खेल के दीर्घकालिक और अंतिम विजेता कौन रहने वाले है? वंचितों की कुल आबादी के 1 फीसदी के सौवें हिस्से से भी कम लोगों के लिए सृजित अवसरों के जाया हो जाने के लिए कौन जिम्मेदार है? नीति और शर्तें गढ़ने वाले अफसरान, नेता या लालफीता तंत्र? वो पॉवर ब्रोकर कौन हैं जो प्रेशर रिलीज वॉल्व की तरह कुछ अवसरों की समारोह पूर्वक ब्रांडिंग कर अपने लिए पद और अवार्ड बटोर लेते हैं और अंतिम पंक्ति के व्यक्ति को अंतिम रहने के लिए अभिशप्त छोड़ देते हैं। इनमें भी कुछ समुदाय तमाम सकारात्मक परिस्थितियों के बावजूद पिछड़ेपन की बेड़ियों से आजाद क्यों नहीं हो पा रह हैं? यहीं से हमारी मनुष्यता, सामाजिक प्राणी होना, लोक कल्याणकारी राज्य जैसी उपमाएं सवालों में घिरती हैं लेकिन सिलसिलेवार जवाब खोज निकालने वाला तंत्र कहीं नजर नहीं आता। सारी कोशिशें बिखरी-बिखरी लगती हैं... और जब ये परिणाममूलक नहीं होती तो ढोंग की तरह इच्छाशक्ति रहित नजर आने लगती है। जिसे कोई चैलेंज तो नहीं कर पाता मगर कभी पूरा लाभ नहीं मिलता। 

- लेखक प्रदेश टुडे के संपादक हैं

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