सरयूसुत मिश्र. कांग्रेस सुधार के लिए अभी चिंतन में ही लगी हुई है। एक चिंतन शिविर के बाद कांग्रेस लंबा आराम करती है। इसके उलट बीजेपी 24x7 नजर, नजरिया और नयापन लाने में विरोधियों को पीछे छोड़ देती है। बीजेपी ने त्रिपुरा में चुनाव के 8 महीने पहले मुख्यमंत्री को बदल दिया है। विप्लब देव की जगह कांग्रेसी पृष्ठभूमि के माणिक साहा मुख्यमंत्री बनाए गए। पिछले चुनाव में कम्युनिस्टों के गढ़ को ध्वस्त करते हुए भाजपा ने अपना परचम फहराया था। चुनाव के ऐन मौके पर चेहरा क्यों बदलना पड़ा? इस बदलाव का वहां विरोध भी किया जा रहा है।
बीजेपी में सीएम बदलने की परंपरा
चुनाव की आहट और चेहरों को लेकर एंटी इनकंबेंसी को देखते हुए चुनाव में जीत के लिए बीजेपी में सीएम बदलना एक परंपरा जैसी बन गई है। त्रिपुरा के पहले कर्नाटक, गुजरात और उत्तराखंड के सीएम चुनाव के दृष्टिगत बदले गए हैं। एक साल में भाजपा ने चार मुख्यमंत्री बदले हैं। जबकि कांग्रेस पार्टी ने एक मुख्यमंत्री बदला है और उसी में उसे मुंह की खानी पड़ी है।
उत्तराखंड में 5 साल के तीसरे मुख्यमंत्री के रूप में पुष्कर सिंह धामी को शपथ दिलाई गई थी। यद्यपि चुनाव में धामी खुद हार गए, लेकिन राज्य में मिथक तोड़ते हुए बीजेपी ने दोबारा स्पष्ट बहुमत के साथ सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की। हार के बावजूद धामी को दूसरी बार मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी ने अच्छे काम का इनाम देने की परंपरा कायम रखी। यही प्रयोग भाजपा ने त्रिपुरा में दोहराया है। यह राज्य बीजेपी के नेशनल एजेंडे के लिए काफी महत्वपूर्ण है। यहां अगले साल फरवरी में चुनाव की संभावना है। बीजेपी केंद्रीय नेतृत्व द्वारा मुख्यमंत्री बदलने के बाद जीत का रिकॉर्ड बनाया गया है। इसलिए ताकत के साथ ऐसे बदलाव करने में पार्टी सक्षमता से कार्रवाई करती है। इसके विपरीत कांग्रेस ने पंजाब चुनाव के पहले वहां नेतृत्व परिवर्तन कर दलित चेहरे को मुख्यमंत्री बनाया था।
पार्टी का प्रयोग पूरी तरह से फ्लॉप
त्रिपुरा में बीजेपी में आंतरिक असंतोष देखा जा रहा है, लेकिन पिछले साल अर्बन बॉडी चुनाव में बीजेपी ने शानदार सफलता हासिल की थी। गुजरात में केवल मुख्यमंत्री ही नहीं, पूरा कैबिनेट बदल दिया गया। गवर्नेंस का पूरा नया चेहरा जनता के सामने लाया गया है। कर्नाटक में भी अगले साल मई में चुनाव होना है, वहां भी नेतृत्व बदलकर बसवराज बोम्बई मुख्यमंत्री बनाए गए। उनकी सरकार का परफॉर्मेंस काबिले तारीफ नहीं माना जा रहा है। कर्नाटक में तो नेतृत्व परिवर्तन की सुगबुगाहट होती रहती है।
मध्यप्रदेश पर सबकी नजर
लोकसभा चुनाव के पहले जिन राज्यों में चुनाव होना हैं उनमें छत्तीसगढ़, राजस्थान में बीजेपी विपक्ष में है। हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर पर पार्टी ने भरोसा जताया है। इस राज्य में इसी साल नवंबर में चुनाव संभावित हैं। इसलिए क्लियर है विधानसभा चुनाव का नेतृत्व जयराम ठाकुर ही करेंगे। मध्यप्रदेश में नवंबर 23 में चुनाव होना है। अभी लगभग डेढ़ साल का समय बचा है। यद्यपि गाहे-बगाहे मध्य प्रदेश में नेतृत्व परिवर्तन की अफवाहें चलती रहती हैं। बीजेपी द्वारा चुनाव के 8 माह पहले मुख्यमंत्री बदलने की शैली को देखते हुए प्रदेश में अभी भी अटकलों का दौर चलने के लिए समय है।
शिवराज अभी भी सबसे फिट
साल 2018 में शिवराज सिंह के नेतृत्व में पार्टी मध्य प्रदेश में बहुत कम अंतर से सरकार नहीं बना सकी थी। कांग्रेस की टूट-फूट के बाद शिवराज सिंह के नेतृत्व में बीजेपी की सरकार दोबारा बनी। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह निर्विवाद रूप से सबसे सफल और पॉपुलर नेता हैं। देश की चुनावी राजनीति में सफलता में प्रभावी भूमिका निभा रही ओबीसी पॉलिटिक्स में भी शिवराज सिंह फिटेस्ट नेता हैं। नएपन की नेचुरल डिमांड पर ही उन पर सवाल उठाये जा सकते हैं। मध्य प्रदेश के राजनीतिक हालात को देखते हुए यह स्पष्ट रूप से दिखता है कि मिशन 23 के चुनाव की फतह की जिम्मेदारी शिवराज सिंह चौहान के ही कंधों पर होगी।
चार राज्यों में हिंदुत्व ही बनेगा मुद्दा
बीजेपी ने अपनी चुनावी रणनीति में भी बदलाव किया है। विकास के साथ-साथ कट्टर हिंदुत्व के सहारे यूपी सहित चार राज्यों में सरकार बनाने के बाद आने वाले अगले चुनाव में आक्रामक हिंदुत्व भी एक प्रमुख मुद्दा रहने की संभावना है। 4 राज्यों में चुनाव परिणाम के बाद कर्नाटक और मध्य प्रदेश में हिंदुत्व की राजनीति को बढ़ावा मिला है। दंगाइयों और अपराधियों पर मध्यप्रदेश में चलता बुलडोजर यूपी की 80/20 की राजनीति की याद दिलाता है।
क्या आक्रामक हिंदुत्व ही है जीत का फंडा
लोकसभा चुनाव के पहले जिन भी राज्य में चुनाव होना हैं, सब जगह बीजेपी विकास के साथ-साथ आक्रामक हिंदुत्व के एजेंडे पर चुनाव में उतरेगी। भाजपा जानती है केवल विकास के एजेंडे पर चुनाव जीतना कठिन होगा। चार राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद पूरे देश में हिंदुत्व का जो माहौल बन रहा है क्या वह अनायास है? अयोध्या के बाद काशी और मथुरा को हिंदुओं के भावनात्मक मुद्दे के रूप में उभारने के पीछे क्या राजनीति नहीं है? ताजमहल, कुतुब मीनार पर हिंदुओं द्वारा विवाद हिंदुत्व की राजनीति का क्या हिस्सा नहीं है? सांप्रदायिक दंगों में “बुलडोजर यूपी” जीत का टेस्टेड फार्मूला बन गया है। राजस्थान में आक्रामक हिंदुत्व बीजेपी के लिए फायदेमंद और कांग्रेस के लिए हानिकारक साबित हो सकता है।
बीजेपी ताकत के साथ बदलाव करने में समर्थ
किसी भी पार्टी की राजनीतिक छवि हिंदुत्व अथवा तुष्टीकरण हो सकती है, लेकिन पार्टियों की सरकारों के परफॉर्मेंस का भी चुनावी जीत में इंपॉर्टेंट रोल होता है। पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व पर यह जिम्मेदारी होती है कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों और सरकारों पर कड़ी नजर रखी जाए। बीजेपी ताकत के साथ अपना नेतृत्व बदलने में इसलिए समर्थ होती है, क्योंकि उनका फीडबैक सिस्टम बहुत सटीक और पुख्ता है। पार्टी के साथ साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की खुफिया नजर से भी राज्यों की लीडरशिप नहीं बच पाती। इसी कारण मुख्यमंत्रियों को चुनावों से आठ-दस माह पहले बदलकर भी पार्टी चुनाव जीतने में सफल हो जाती है। सरकारों के परफॉर्मेंस के साथ चेहरों की भी anti-incumbency मायने रखती है। आने वाले चुनाव में नेतृत्व बदलने की भाजपा की रणनीति के नतीजे नए प्रयोग की जमीन तैयार कर सकते हैं।