बस्तर में चुनाव प्रचार से पूरे प्रदेश में आदिवासी सीटों के लिए तैयार होता है एक जबरदस्त माहौल 

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Sushil Trivedi
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बस्तर में चुनाव प्रचार से पूरे प्रदेश में आदिवासी सीटों के लिए तैयार होता है एक जबरदस्त माहौल 

BASTAR. छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव को लेकर एक सामान्य धारणा यह है कि जो राजनीतिक दल बस्तर संभाग की अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर विजय प्राप्त करता है वह दल राज्य में सरकार बनाता है। इस धारणा का चुनाव परिणामों के आधार पर विश्लेषण करने पर स्थिति इस प्रकार उभरती है।



 2018 में कांग्रेस को बस्तर संभाग की 12 सीटों में से 11 सीटें मिली थीं



पिछले 2018 के विधानसभा चुनाव में राज्य की 90 सीटों में से कांग्रेस ने 68 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी। उस चुनाव में भाजपा को 15 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को बस्तर संभाग की 12 सीटों में से 11 सीटें मिली थीं। यहां भाजपा को मात्र एक सीट मिली थी किन्तु उपचुनाव में भाजपा ने इस सीट को भी खो दिया था। वर्तमान में बस्तर संभाग की 12 में से 12 सीटें कांग्रेस के पास हैं। अब पीछे चलें तो पाते हैं कि 2013 के आम चुनाव में भाजपा ने 49 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी जबकि कांग्रेस को 39 सीटें मिली थीं। उस चुनाव में बस्तर में भाजपा को 12 में से 4 सीटें और कांग्रेस को 8 सीटें मिली थीं। 



2008 के चुनाव में बस्तर में भाजपा को मात्र 4 सीट मिली थीं  



विधानसभा के 2008 के चुनाव में भाजपा ने 50 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी, जबकि कांग्रेस को 38 सीटें मिली थीं। उस चुनाव में बस्तर में भाजपा को 12 में से 11 सीटें मिली थीं। 2003 में भाजपा को राज्य में 50 सीटें मिली थी और कांग्रेस को 37 सीटें मिली थीं। इस चुनाव में बस्तर में भाजपा को मात्र 4 सीट मिली थीं और कांग्रेस को 7 सीट मिली थीं जबकि सीपीआई ने 1 सीट पर कब्जा किया था। 



बस्तर संभाग में विजय राजनितिक दल के लिए सत्ता का द्वार खोलती हैं



यह स्पष्ट है कि इस धारणा का गणितीय आधार नहीं है कि बस्तर संभाग में किसी राजनीतिक दल की विजय, उसके लिए राज्य में सत्ता का द्वार खोलती हैं। गणितीय आधार पर खरा न उतरने के बावजूद यह धारणा राजनीतिक रसायन के आधार पर प्रासंगिक है। इसका कारण यह है कि बस्तर में चुनाव प्रचार से पूरे प्रदेश में आदिवासी सीटों के लिए एक जबरदस्त माहौल तैयार होता है। इसीलिए हर चुनाव में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही राजनीतिक दल बस्तर में की सीटों को जीतने के लिए पूरी ताकत लगाते हैं।



बस्तर का सामाजिक-सांस्कृतिक-परिदृश्य पहले की तुलना में बदला है



 इस बार भी यही हो रहा है, लेकिन इस समय बस्तर का सामाजिक-सांस्कृतिक-परिदृश्य पिछले समय की तुलना में बेहद बदला हुआ है। वहां धर्मांतरण और आरक्षण को लेकर आदिवासी, ईसाई बने आदिवासी और अन्य समुदायों के बीच संबंध तनावपूर्ण नजर आ रहे हैं। इससे वहां कानून व्यवस्था बनाए रखने की स्थिति निर्मित हुई है। यह गौर करने की बात है कि नक्सलवादी घटनाओं में कमी आने के कारण आंतरिक सुरक्षा की स्थिति बेहतर हुई हैं और वहां विकास और कल्याण की गतिविधियां तेज हुई हैं। इसीलिए इस बार भाजपा और कांग्रेस दोनों ने ही सर्वाधिक ध्यान बस्तर संभाग पर लगा दिया हैं। भाजपा के शीर्ष नेता यहां लगातार आ रहे हैं तो कांग्रेस के नेता भी निरंतर सक्रिय हैं। भाजपा की सामाजिक-सांस्कृतिक-रणनीति और चुनावी सक्रियता के कारण बस्तर में कांग्रेस के लिए अपनी 12 सीटों पर फिर से विजय पाना कठिन नजर आता है। और इसका असर राज्य की अन्य आदिवासी आरक्षित सीटों पर भी पड़ने की संभावना बनी हैं। 



सरगुजा संभाग में पिछली बार 14 की 14 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं



छत्तीसगढ़ में सरगुजा संभाग में भी आदिवासी सीटों की बहुलता है इसलिए उस संभाग पर भी दोनों राजनीतिक दल बहुत ध्यान देते हैं। पिछली बार यहां की 14 की 14 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। पर इस बार यहां कांग्रेस का आंतरिक विवाद और सत्ता का संघर्ष स्पष्ट रूप में दिखाई दे रहा है। इस स्थिति में भाजपा को राज्य में सबसे ज्यादा संभावना सरगुजा में नजर आ रही है। इसलिए भाजपा बस्तर के बाद सबसे ज्यादा तेज राजनीतिक अभियान सरगुजा में चला रही है। यह दिखाई दे रहा है कि कांग्रेस यहां अपने 2018 के प्रदर्शन को दोहराने की स्थिति में नहीं है। 



भूपेश सरकार की योजनाओं बीजेपी के पास कोई उपाय नहीं है



आज की स्थिति में बस्तर और सरगुजा में कांग्रेस को सीटों का नुकसान होता दिखाई दे रहा है, लेकिन कांग्रेस को यह विश्वास है कि सरगुजा और बस्तर संभागों में होने वाली संभावित हानि की पूर्ति वह बिलासपुर, रायपुर और दुर्ग के मैदानी इलाकों में कर सकती है। उसके इस विश्वास का आधार मजबूत नजर आता है। इसका कारण यह है कि मैदानी इलाकों में भूपेश सरकार की किसानों और मजदूरों को अधिकतम लाभ देने वाली न्याय योजनाओं को मुकाबला करने के लिए भाजपा के पास कोई उपाय नहीं है। भूपेश सरकार ने विधानसभा में बजट पेश करते हुए धान खरीदी का मूल्य 2800 रू. प्रति क्विंटल करने की घोषणा की थी जिससे भाजपा की परेशानी बढ़ गई थीं। इस परेशानी को और कठिन बनाते हुए विनियोग विधेयक पेश करते हुए पर सरकार ने एक और तुरूप का पत्ता फेंका कि आगामी खरीफ मौसम में किसानों से समर्थन मूल्य पर प्रति एकड़ 20 क्विंटल धान खरीदा जाएगा। ध्यान देने की बात है कि इस वर्ष प्रति एकड़ 15 क्विंटल धान 2640 रू. प्रति क्विंटल की दर से खरीदा गया है। इसके अलावा, राज्य सरकार ने भूमिहीन कृषि मजदूरों की आर्थिक सहायता राशि भी 6000 रू. बढ़ाकर 7000 रू. कर दी है और उसका लाभ शहरी क्षेत्रों में भी देने की घोषणा की है। छत्तीसगढ़ के मैदानी इलाकों में कांग्रेस पिछले चुनाव के मुकाबले ज्यादा मजबूत नजर आ रही है।



दोनों दल तेज जुबानी मुठभेड़ के साथ तोड़-फोड़ में संलग्न हैं

 

दिलचस्प बात यह है कि भाजपा के नेता तब और परेशान नजर आते हैं जब केंद्र सरकार छत्तीसगढ़ सरकार की इन योजनाओं की प्रशंसा करते हुए उन्हें पुरस्कृत करती है। भाजपा के नेता यह आशा कर रहे हैं कि केंद्र सरकार राज्य सरकार की न्याय योजनाओं का कोई-न-कोई तोड़ अवश्य निकालेगी जिससे भाजपा को चुनावी लाभ मिल सके।

इधर कांग्रेस नेता राहुल गांधी को मानहानि के मामले में दो साल की सजा के आधार पर संसद से उनकी सदस्यता समाप्त करने का मुद्दा भाजपा और कांग्रेस के बीच सड़क की लड़ाई का सबब बन गया है। दोनों ही दल तेज जुबानी मुठभेड़ करने के साथ तोड़-फोड़ की गतिविधियों में संलग्न हैं। भाजपा राहुल गांधी को ओबीसी का विरोधी निरूपित कर रही है। छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री स्वयं ओबीसी से हैं और वे कांग्रेस को ओबीसी हितैषी होने का प्रमाण दे रहे हैं। छत्तीसगढ़ में भाजपा का यह प्रचार चुनावी समीकरण को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं है।



दस बिन्दुओं में से 6.5 बिन्दु और 3.5 बिन्दु क्रमशः बनी हुई हैं



राजीव गांधी प्रकरण से राष्ट्रीय स्तर पर अगर विरोधी दलों के बीच कोई समझ बनती भी हैं तो उसका प्रभाव छत्तीसगढ़ के चुनाव पर नहीं पड़ेगा क्योंकि यहां कांग्रेस और भाजपा के अलावा अन्य सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दल और क्षेत्रीय दल हाशिये पर ही हैं। अंक गणित की दृष्टि से छत्तीसगढ़ में कांग्रेस और भाजपा की स्थिति दस बिन्दुओं में यथावत 6.5 बिन्दु और 3.5 बिन्दु क्रमशः बनी हुई हैं।


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