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याज्ञवल्क्य मिश्रा, RAIPUR. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15.4 और 16.4 राज्य को अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ गए, नागरिक समूहों के लिए विशेष कानून बनाने की छूट देता है। यही संविधान में आरक्षण का मूल आधार है। इसी के आधार पर अब तक केंद्र और राज्य सरकारें अनुसूचित जाति, जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्गों को आरक्षण देती आई हैं, लेकिन करीब 22 वर्ष पुराने छत्तीसगढ़ राज्य में 10 सालों से चल रही एक कानूनी लड़ाई ने आरक्षण को पूरी तरह खत्म कर दिया है। अब सरकार फिर से आरक्षण देने के लिए कानून में संशोधन कर रही है। इसमें विभिन्न वर्गों को जिस अनुपात में आरक्षण दिया गया है वह उच्चतम न्यायालय के आदेशों से बनी 50 प्रतिशत की लक्ष्मण रेखा को पार कर गये हैं। यानी यह भी अंतिम राहत नहीं है। इस पर भी कानूनी समीक्षा की तलवार लटक रही है।
आंदोलनों के बाद बीजेपी सरकार ने संशोधन विधेयक पारित किया
बात शुरू होती है राज्य गठन के तुरंत बाद से। सरकारी नौकरियों में आरक्षण लागू करने के लिए मध्यप्रदेश सरकार ने एक कानून बनाया था। राज्य का विभाजन हुआ तो वही कानून बदले रूप में छत्तीसगढ़ में भी लागू हो गया। इसमें आरक्षण का अनुपात था अनुसूचित जाति के लिए 16 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति के लिए 20 प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्गों के लिए 16 प्रतिशत। 2001 की जनगणना में आदिवासी समाज की आबादी 32 प्रतिशत के आसपास बताई गई। उसके बाद जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की मांग उठने लगी। तमाम आंदोलनों के बाद तत्कालीन बीजेपी सरकार ने वर्ष 2011 में लोक सेवाओं में आरक्षण संशोधन विधेयक पारित किया। इसके साथ ही स्कूल-कॉलेजों में दाखिले में आरक्षण का प्रावधान करने वाला नया अधिनियम भी पारित हुआ। इन दोनों कानूनों से प्रदेश की अनुसूचित जाति को उनकी आबादी के अनुपात में 12 प्रतिशत, अनुसूचित जनजाति को 32 प्रतिशत और अन्य पिछड़ा वर्ग को 14 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। 18 जनवरी 2012 को राज्यपाल के हस्ताक्षर के बाद यह कानून राजपत्र में प्रकाशित होकर कानून बना।
16 मार्च 2012 को आरक्षण अधिनियम के नियम 1998 में संशोधन कर नया रोस्टर लागू कर प्रभावी कर दिया गया। 29 मार्च 2012 को रायपुर के गुरु घासीदास साहित्य और संस्कृति अकादमी ने इस कानून के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल किया। 13 अप्रैल 2012 को अदालत ने राज्य सरकार को नोटिस जारी किया। 9 जुलाई 2012 को इस मामले की सुनवाई करते हुए हाईकोर्ट ने कोई स्थगन तो नहीं दिया, लेकिन सभी भावी भर्तियों को मामले के आखिरी फ़ैसले के अधीन कर दिया। बाद में इस कानून के खिलाफ 100 से अधिक याचिकाएं उच्च न्यायालय पहुंची और सभी को एक साथ सुना गया। 10 सालों में 70 से अधिक तारीखों पर सुनवाई के बाद अदालत ने 6 जुलाई 2022 को अपना फैसला सुरक्षित कर लिया। 19 सितम्बर को इसमें उच्च न्यायालय का फैसला आया। लंबे फैसले में न्यायालय ने 58 प्रतिशत से आरक्षण देने के राज्य सरकार के फैसले को असंवैधानिक बताते हुए दोनों आरक्षण कानूनों के उन प्रावधानों को रद्द कर दिया, जिसमें विभिन्न वर्गों के लिए आरक्षण का अनुपात तय किया गया था। अदालत ने सरगुजा संभाग के जिलों में तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के पदों पर दिए जा रहे 80 प्रतिशत तक के आरक्षण का प्रावधान भी खत्म कर दिया। इस पूरे मामले में सरकार ने ऐसा दिखाने की कोशिश की कि इस फैसले का परिणाम से आदिवासी समाज का आरक्षण 32 प्रतिशत से घटकर 20 प्रतिशत हो गया है। वहीं अनुसूचित जाति का आरक्षण बढ़कर 16 प्रतिशत हो गया है। बाद में सामान्य प्रशासन विभाग ने सूचना का अधिकार कानून के तहत पूछने पर लिखित में बताया कि उच्च न्यायालय के फैसले के बाद प्रदेश में कोई आरक्षण रोस्टर प्रभावी नहीं है।
जून-जुलाई में ही तय हो गया था कि नहीं बचेगा आरक्षण
पूरे मामले में उच्च न्यायालय ने बार-बार यह पूछा कि आरक्षण की सीमा रेखा पार करने की जरूरत सिद्ध करने के लिए सरकार के पास कोई ठोस कारण हो तो वह उसे पेश करे, लेकिन यह भाजपा सरकार में भी नहीं हुआ और 2018 के बाद आई कांग्रेस सरकार में भी नहीं हुआ। कानूनी मामलों के जानकार जून-जुलाई में ही जान गए थे कि छत्तीसगढ़ में आरक्षण नहीं बचेगा। सर्वोच्च न्यायालय के मराठा आरक्षण फैसले और उसके बाद की कई नजीरों ने सबकी समझ साफ कर दी। सरकार के रणनीतिकारों को भी इसका अंदाजा था। इसलिए अंतिम सुनवाई से ठीक पहले सरकार की ओर से 2011 में बनी सरजियस मिंज समिति और ननकीराम कंवर समिति की रिपोर्ट पेश करने की इजाजत मांगी। अदालती प्रक्रिया के तहत एकदम अंत में कोई नया तथ्य नहीं लिया जा सकता था और अदालत ने ऐसा कोई नया तथ्य स्वीकार करने से मना कर दिया।
यह मिंज और कंवर समिति क्या थी- इससे क्या फर्क पड़ता
भाजपा की पूर्ववर्ती सरकार ने 2011 में आरक्षण का अनुपात बदलने के लिए तत्कालीन अतिरिक्त मुख्य सचिव सरजियस मिंज की अध्यक्षता में एक समिति बनाई थी। इस कमेटी के फैसले पर विचार करने के लिए तत्कालीन गृह मंत्री ननकीराम कंवर की अध्यक्षता में मंत्रियों की समिति बनी। इस समिति की केवल एक बैठक हुई। उनकी रिपोर्ट एक नोटशीट के रूप में कैबिनेट में पेश की गई, जिसके आधार पर सरकार ने आरक्षण कानून में संशोधन विधेयक की प्रस्तावना बनाई और विधेयक का प्रारूप मंजूर कर लिया गया। पूर्ववर्ती सरकार इस कथित रिपोर्ट को अदालत में पेश करने से इसलिए बचती रही कि इससे मुकदमें में उनका पक्ष कमजोर होता। विशेषज्ञों का कहना है कि अगर यह रिपोर्ट अदालत के रिकॉर्ड में आती तो यह साबित होता कि सरकार शुरू से ही 50ः की सीमा लांघने वाली परिस्थित बताने के दायित्व के प्रति अगंभीर रही है।
क्या सरकार ने कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई
इस मामले में राज्य सरकार ने आरक्षण मामले की पैरवी में कोई सक्रिय भूमिका नहीं निभाई। वह केवल सुविधा प्रदाता की भूमिका में आ गई थी। इस केस में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे छत्तीसगढ़ सर्व आदिवासी समाज के नेता। उन्हीं के दबाव में आदिवासी समाज के विधायकों ने कानूनी लड़ाई में प्रशासनिक और कानूनी विशेषज्ञों को किनारे कर दिया। समाज जो रणनीति लेकर आता सरकार उसे आगे बढ़ाती रही। उन्हीं की सलाह पर वकील नियुक्त किया गया। उसको लंबा खींचने की कोशिश हुई। मुकदमा हार जाने के बाद भी सरकार की यह भूमिका नहीं बदली है।
आदिवासी समाज के दबाव में ही अब विधेयक
आरक्षण खत्म होने के फैसले के खिलाफ सरकार ने उच्चतम न्यायालय में अपील दाखिल करने की बात कही, लेकिन आदिवासी समाज की ओर से हरी झंडी मिलने का इंतजार किया जाता रहा। इधर आदिवासी समाज ने बैठकों पर बैठक कर यह रास्ता बताया कि इसका समाधान अध्यादेश अथवा विधेयक लाकर ही किया जा सकता है। इसका आधार बनाने के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण लागू करने वाले प्रदेशों में अध्ययन दल भेजने की बात हुई। सरकार ने यही किया। अपील दाखिल करने में देरी की गई। 19 सितम्बर के फैसले को 21 अक्टूबर को चुनौती दी गई। उसकी सुनवाई पर जोर नहीं दिया गया। इस बीच विधानसभा का विशेष सत्र बुलाने की अधिसूचना जारी हुई। जहां इन विधेयकों को पारित कराया जाना है। इस मामले में प्रमुख भूमिका निभा रहे आबकारी मंत्री कवासी लखमा ने गुरुवार को कहा कि मैं, मेरी सरकार, मेरे मुख्यमंत्री आदिवासी भाई लोग से लगातार बैठकर सुझाव ले रहे हैं। उन्हीं के सुझाव पर कर्नाटक, तमिलनाडु गए। उन्हीं के सुझाव और मांग पर विधानसभा का विशेष सत्र बुलाया गया है। हम दो तारीख को इसे आरक्षण विधेयक को पास कराएंगे।
कैबिनेट ने नया कोटा मंजूर कर लिया है लेकिन राह कठिन क्यों कही जा रही है घ्
मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की अध्यक्षता में गुरुवार को हुई कैबिनेट की बैठक में आरक्षण का प्रावधान करने वाले दोनों अधिनियमों में संशोधन विधेयक का प्रारूप मंजूर किया गया। इसमें आरक्षण का नया अनुपात तय हुआ है। सरकार अब आदिवासी वर्ग. को उनकी जनसंख्या के अनुपात में 32 प्रतिशत आरक्षण देगी, अनुसूचित जाति को 13 प्रतिशत और सबसे बड़े जातीय समूह अन्य पिछड़ा वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण मिलेगा। वहीं सामान्य वर्ग के गरीबों को 4 प्रतिशत आरक्षण दिया जाएगा। मुख्यमंत्री बार-बार जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देने की बात करते रहे हैं। यह विधेयक उसी सोशल इंजीनियरिंग फॉर्मुले को लागू करने की कोशिश है।
क्या इस विधेयक से आरक्षण बहाल होगा
सरल ढंग से कहें तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल इन विधेयकों को विधानसभा में आसानी से पारित करा लेंगे। अगर राज्यपाल अनुसूईया उइके भी इसपर हस्ताक्षर कर दें तो राजपत्र में प्रकाशित कर नया आरक्षण रोस्टर लागू कर दिया जाएगा। लेकिन कानूनन इसको लागू करा पाना इतना आसान नहीं होने वाला। संविधानिक विशेषज्ञों का कहना है, अपने फ़ैसले के पैराग्राफ़ 81 में उच्च न्यायालय ने एससी.एसटी को 12.32 प्रतिशत आरक्षण इस आधार पर अवैध कहा है कि जनसंख्या अनुपात में आरक्षण नहीं दिया जा सकता। यह भी कहा है कि मात्र प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता से, बिना किसी अन्य विशिष्ट परिस्थिति के 50 प्रतिशत आरक्षण की सीमा नहीं लांघ सकते। पैराग्राफ़ 84 में उच्च न्यायालय ने कह दिया है कि सामान्य वर्ग की तुलना में नौकरी या शिक्षा की प्रतियोगिता में जगह हासिल न कर पाना वह विशिष्ट परिस्थिति नहीं है। इसका मतलब है कि जब तक उच्चतम न्यायालय 19 सितंबर के फ़ैसले की यह टिप्पणियां हटा नहीं देता है तब तक प्रदेश में किसी को आरक्षण देने का रास्ता ही बंद है। विशेषज्ञों का कहना है, विधायिका, अदालत के किसी फ़ैसले को सिर्फ़ उसका आधार हटाकर ही बदल सकती, दूसरे किसी तरह से नहीं। स्वाभाविक है इस कानून के लागू होते ही अदालत इस पर स्थगन आदेश दे देगा। इसकी वजह से आरक्षण का पूरा मामला अनिश्चितकाल के लिए लटक जाएगा।