रायपुर. छत्तीसगढ़ में कांग्रेस हिमालयीन बहुमत के साथ कांग्रेस सत्ता में हैं। लोकसभा को छोड़ दें तो नगरीय निकाय और उपचुनाव में लगातार जीत दर्ज करती जा रही है। अब सरकार खैरागढ़ में 12 अप्रैल को होने वाले के उपचुनाव में पूरी ताकत झोंके हुए हैं। ये सीट छजका विधायक देवव्रत सिंह के निधन की वजह से ख़ाली हुई है।
इसलिए दमखम लगा रही सरकार
यह मान्य और प्रमाणित धारणा है कि उपचुनाव सरकार लड़ती है, दल नहीं। इसलिए सत्ता में काबिज दल चुनाव अमूमन नहीं हारते। अगर सत्ता में काबिज पार्टी उपचुनाव हार गई तो इसे उस दल के प्रति सीधा अविश्वास मान लिया जाता है। जाहिर है कि यह जोखिम कोई सत्ता नहीं लेती। पर खैरागढ़ को लेकर मसला यहीं नहीं टिका है।
खैरागढ़ चुनाव के बाद सीधे विधानसभा चुनाव हैं। इस खैरागढ़ चुनाव के पहले यूपी समेत 5 राज्यों में कांग्रेस बुरी तरह खारिज हुई है। इसमें से यूपी के प्रभारी खुद सीएम भूपेश बघेल थे। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के पहले कांग्रेस के 7 विधायक थे, जो इस चुनाव में केवल दो की संख्या पर सिमट गए। मुख्यमंत्री भूपेश बघेल का प्रचार तंत्र जिस किसान और पिछड़े वर्ग का सरकार और खुद को सबसे लोकप्रिय चेहरा बताता है, खैरागढ़ वह विधानसभा है, जहां यही वर्ग निर्णायक मतदाता है।
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— Bhupesh Baghel (@bhupeshbaghel) April 2, 2022
राज्यसभा के समीकरणों पर पड़ेगा असर
यूपी नतीजों के बाद छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर चर्चाओं में फिर तेजी आई है। इसके साथ-साथ राज्यसभा के लिए प्रदेश से दो सीटों पर कांग्रेस को अपने प्रतिनिधि भेजने हैं। यदि खैरागढ़ में कांग्रेस का समीकरण गड़बड़ाया तो अब तक कांग्रेस के भीतर और बाहर अपराजेय से दिखते मुख्यमंत्री बघेल के लिए दबाव चौतरफा होगा।
गृह मंत्री को बनाया चुनाव प्रभारी
कांग्रेस संगठन में मौजूद सीएम बघेल के कट्टर समर्थक, सरकारी तंत्र में उनके भरोसेमंद और खुद मुख्यमंत्री बघेल इस सारे ताने-बाने को समझ रहे हैं। इसलिए ही कई सारे प्रयोग उपचुनाव में नजर आ रहे हैं। साढ़े तीन साल के भूपेश सरकार के कार्यकाल में यह पहला मौका है, जब राज्य के गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू को चुनाव प्रभारी बनाया गया है। इसकी मुख्य वजह इलाके में निर्णायक साहू वोटरों का होना है।
ये वही ताम्रध्वज साहू हैं, जिन्हें लेकर यह चर्चाएं रही हैं कि सत्ता आने के बाद राहुल गांधी ने अपने निवास में उन्हें मुख्यमंत्री करीब-करीब घोषित ही कर दिया था, लेकिन इस नाम पर सिंहदेव और बघेल का पेंच फंसा और ताम्रध्वज साहू के सामने से थाली खींच ली गई और भूपेश की ताजपोशी हुई।
खैरागढ़ को जिला बनाने की घोषणा
राजनैतिक समीक्षक मानते हैं कि ताम्रध्वज साहू जितने सरल सहज दिखते हैं, वे उतने ही सहज सरल भारसाधक मंत्री भी हैं। इसलिए किसी सामान्य स्थानांतरण के लिए नजरें सिविल साइंस के बंगला नंबर 1 यानी मुख्यमंत्री निवास पर टिकती हैं, ना कि गृहमंत्री ताम्रध्वज साहू पर। और यही ताम्रध्वज साहू खैरागढ़ के चुनाव प्रभारी बनाए गए हैं। हालांकि, साथ में मुख्यमंत्री के बेहद करीबी रविंद्र चौबे भी हैं, पर वे सामने होते हुए सामने नहीं हैं। इसके साथ ही आबकारी मंत्री कवासी लखमा भी अनवरत मौजूद हैं।
हर उपचुनाव “रंग रंगीला परजातंत्र” गीत को बेहतर समझ देता है, लेकिन खैरागढ़ में इस बार यह गीत कुछ नए लय ताल के साथ बज रहा है। यह संगीत कांग्रेस के घोषणा पत्र में गूंज रहा है। मुख्यमंत्री बघेल ने घोषणा पत्र जारी किया और उसमें खैरागढ़ को जिला बनाने का वादा किया, पर बेहद सटीक शब्दों के साथ। घोषणा पत्र के पहले नंबर पर लिखा गया -
‘चुनाव जीतने के 24 घंटो के भीतर खैरागढ़-छुईखदान-गंडई जिला बनाया जाएगा।’ खैरागढ़ को जिला बनाने की मांग पुरानी है, लेकिन बीते साल 15 अगस्त को मुख्यमंत्री बघेल ने चार नए जिले घोषित किए, उसमें यह नाम शामिल नहीं था। यह भी तथ्य है कि बघेल के घोषित चार जिलों मनेंद्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर, मानपुर-मोहला, सारंगढ-बिलाईगढ़ में सिवाय घोषणा के अब तक कुछ हो नहीं पाया। 2 जिलों का मसला हाईकोर्ट की चौखट चढ़ चुका है।
कांग्रेस हारी तो खैरागढ़ का क्या?
नए जिलों को लेकर तब बघेल ने कहा था, ‘प्रशासनिक इकाइयां छोटी करने से प्रशासन की आम जनता तक पहुंच बेहतर होगी। जनता और प्रशासन के बीच दूरी कम होगी, काम-काज में कसावट आएगी और आम जनता को योजनाओं का लाभ तेजी से मिलेगा। इन इलाकों में जिले की मांग पुरानी थी और जरूरत भी।’ छत्तीसगढ़ के इतिहास में पहला मौका है, जब घोषणा पत्र में लिखा गया कि चुनाव जीतने के 24 घंटो के भीतर किसी को जिला बनाया जाएगा। जाहिर है जिले के लिए चुनाव जीतना जरुरी है। यह कहीं नहीं लिखा गया कि यदि कांग्रेस हार गई तो जिला नहीं बनेगा, लेकिन इसके मायने यही निकलते हैं।
खैरागढ़ नई परिभाषा गढ़ पाएगा?
संविधान की शक्ति से संचालित सरकार के फैसले जनता की मांग पर और आवश्यकतानुसार होते हैं, अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति तक योजनाओं की पहुंच और संवैधानिक अधिकारों की उपलब्धता सुनिश्चित कराना सरकार की जवाबदेही है, यही सरकार का काम है। लोकतंत्र की अब तक की सर्वाधिक स्वीकार परिभाषा जो अब्राहम लिंकन ने दी थी, वह जनता का जनता के लिए और जनता द्वारा शासन है। कालांतर में इसके विस्तार में लोकतंत्र में जनता के ही सत्ताधारी होने, उसकी अनुमति से शासन होने और उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य बताया गया। लेकिन खैरागढ़ लोकतंत्र प्रजातंत्र की नई व्याख्या गढ़ गया है। मांग या आवश्यकता का निर्धारण जीत या हार के मापदंड से तय होगा, ऐसे स्पष्ट ध्वनि पैदा करने वाले शब्द हों तो जाहिर है यह लोकतंत्र की नई व्याख्या परिभाषा ही तो है।
इस परिभाषा को मुहर लगती है या यह खारिज होती है, यह 16 अप्रैल को पता लगेगा। EVM से निकला फैसला केवल इस नई व्याख्या तक ही सीमित नहीं रहेगा, कांग्रेस के भीतरखाने भी पाठ्यक्रम और मजबूती से तय होगा।