रायपुर. छत्तीसगढ़ के करीब एक हजार लोगों को फर्जी ग्राम प्रस्ताव पर कार्रवाई का इंतज़ार है। ग्रामीणों का आरोप है कि कोयला उत्खनन के लिए अडाणी कंपनी के प्रभाव के आगे सारे नीति नियम-कानून, संवैधानिक अधिकार शून्य हो गए हैं। सरगुजा के परसा इलाके के ग्रामीण अपने क्षेत्र में प्रस्तावित खनन के विरोध में है और लगातार आंदोलन कर रहे हैं। आंदोलन का सफर सरगुजा से रायपुर और फिर रायपुर से दिल्ली तक पहुंचा, लेकिन इन ग्रामीणों को राहत नहीं मिली।
ग्रामीणों का आरोप है कि फर्जी ग्राम सभा कागजों में आयोजित हो गई। इस आधार पर यह बता दिया गया कि ग्रामीण, उत्खनन और भूमि अधिग्रहण के लिए तैयार हैं। जबकि लोग 2014 से इस इलाके में कोयला खनन के खिलाफ लगातार प्रस्ताव पारित करते आ रहे हैं।
ऐसे हुआ खेल
विरोध का मसला आंदोलन में तब्दील होने की आधारशिला 13 फरवरी 2018 को हुई। प्रशासन ने साल्ही हरिहरपुर और फतेहपुर में ग्रामसभा के होने और उनके सहमति होने का उल्लेख करते हुए NOC जारी कर दी। ग्रामीणों को इसकी जानकारी तब हुई, जब इस कथित ग्रामसभा के सहमति प्रस्ताव के आधार पर उत्खनन की अनुमति केंद्र सरकार से जारी हो गई।
ग्रामीणों ने मामले की शिकायत थाने में कर दी, जिसमें तत्कालीन कलेक्टर समेत खनन कंपनी समेत कईयों के खिलाफ केस दर्ज करने की बात कही गई थी। शिकायत में साल्ही ग्राम की सरपंच कनियां बाई का पत्र भी सौंपा, जिसमें उन्होंने लिखा था कि उनके दस्तखत फर्जी हैं। ग्रामीणों ने ग्रामसभा का प्रस्ताव भी सौंपा, जिसमें खनन परियोजना को लेकर कोई चर्चा ही नहीं हुई थी। ग्रामीणों ने अपनी शिकायत में यह आरोप लगाया कि 24 और 27 जनवरी को उदयपुर रेस्ट हाउस में एसडीएम द्वारा बलपूर्वक प्रस्ताव जोड़ा गया और अलग बिंदु बनाकर सहमति दर्ज की गई।
आंदोलन शुरू
जब कहीं कुछ हुआ नहीं तो ग्रामीणों ने आंदोलन शुरू किया। 2019 में 75 दिनों तक धरने के बाद ग्रामीणों ने 2-14 अक्टूबर के बीच फतेहपुर से रायपुर पदयात्रा निकाली। राज्यपाल से मुलाकात कर मामले की जांच का निवेदन किया। इन्हीं ग्रामीणों का प्रतिनिधिमंडल 27 से 29 अक्टूबर को दिल्ली में रहा और प्रेस वार्ता के साथ प्रतिनिधिमंडल की मुलाकात राहुल गांधी से भी हुई।
राज्यपाल अनुसूइया उईके ने 23 अक्टूबर को इस मामले को लेकर मुख्य सचिव अमिताभ जैन को पत्र लिखकर निर्देशित किया कि जब तक जांच नहीं होती, तब तक के लिए कार्रवाई स्थगित रखी जाए। साथ ही जो भी कार्रवाई हो, उससे 15 दिन के भीतर अवगत कराएं।
क्षेत्र में पहुंचे थे राहुल
दिल्ली में राहुल गांधी ने इन ग्रामीणों को मदद के लिए आश्वस्त किया था। राज्य में 15 साल से जमीन तलाश रही कांग्रेस को 2018 में भूपेश बघेल (तब पीसीसी चीफ) और टीएस सिंहदेव (नेता प्रतिपक्ष) की अगुआई में सत्ता मिली थी। जिस इलाके में आंदोलन चल रहा था, इसे हसदेव जंगल कहा जाता है। ये तब भी सुलगा हुआ था।
जिस कांग्रेस ने वादा किया, उसी ने वादाखिलाफी भी की
तब राहुल गांधी इस इलाके के मदनपुर पहुंचे थे और उन्होंने ग्रामीणों से वादा किया था कि यदि कांग्रेस की सरकार आई तो उन्हें जल, जंगल, जमीन से कोई बेदखल नहीं करेगा। तब भूपेश बघेल ने पूरे तेवर के साथ तत्कालीन सरकार पर जमकर हमले किए थे। लेकिन तेवर दिखाने वाली कांग्रेस जब सत्ता में आई तो उसी मदनपुर में ग्रामीणों को बेदखली का नोटिस पहुंच गया।
मामले को छजका के विधायक धर्मजीत सिंह ने विधानसभा में उठाया। विधानसभा में करीब डेढ़ घंटे की चर्चा में धर्मजीत ने सदन में सरकार को घेरते हुए सवाल किया था कि जिस गांव में आप और आपके शीर्षस्थ नेता राहुल गांधी ने पहुंचकर वादा किया था, वहीं बेदखली का नोटिस पहुंच गया है। धर्मजीत ने पूरे ब्योरे के साथ सदन को बताया था कि यदि इस इलाके में उत्खनन हो गया तो उत्तर छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े बांध हसदेव को खतरा होगा। कई नदियां और जलस्रोत हमेशा के लिए विलुप्त हो जाएंगे।
हाथी अभयारण्य का भी मसला
विधानसभा बहस की पृष्ठभूमि में हाथी अभयारण्य का मसला भी था, जिसका क्षेत्रफल घटने-बढ़ने को लेकर कांग्रेस सरकार में हुई सियासत चर्चाओं में रही थी। इस बहस के बाद भूपेश सरकार ने लेमरू हाथी अभयारण्य को लेकर क्षेत्रफल समेत नक्शे का ऐलान कर दिया, उससे मदनपुर समेत बहुतेरे इलाके सुरक्षित मान लिए गए, लेकिन परसा कोल ब्लॉक के ग्रामीणों को न्याय के लिए इंतजार ही रहा।
इस इलाके में जो संघर्ष चल रहा है और इस संघर्ष के साथ जिस तरह से सत्ता ने भूमिका अपनाई, वह तथ्य स्थापित होता है कि सत्ता का केवल एक चरित्र होता है और वह यह है कि उसका कोई चरित्र नहीं होता। इस मसले पर ग्रामीणों के आंदोलन से जुड़े छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन के आलोक शुक्ला की इस पूरे मामले में सरकार की भूमिका पर टिप्पणी की- “कार्पोरेट षड़यंत्रकारी होता ही है, लेकिन षड्यंत्र जब सरकारें करें तो जनता कहाँ जाएगी। ”
कई नियमों-दस्तावेजों की अनदेखी
दरअसल परसा कोल ब्लॉक, बल्कि समूचे हसदेव जंगल को लेकर वन-पर्यावरण विभाग की रिसर्च यह बताती है कि ये जंगल मध्य भारत के सबसे समृद्ध वन क्षेत्र में से एक है। इस वजह से 2010 में केंद्र सरकार इसे नो गो एरिया घोषित कर चुकी है। 2012 में माइनिंग लीज दे दी गई। 2014 में ग्रीन ट्रिब्यूनल ने लीज स्वीकृति के सारे आधार खारिज कर दिए और वन स्वीकृति को निरस्त कर दिया।
ग्रीन ट्रिबूयुनल ने अध्ययन का आदेश भी दिया था, लेकिन कोई अध्ययन नहीं किया गया। इसके उलट 2019 में राज्य सरकार ने ICRF और भारतीय वन्य जीव संस्थान से हसदेव वन क्षेत्र की जैव विविधता का अध्ययन कराया। इस रिपोर्ट में संपूर्ण हसदेव जंगल को खनन से मुक्त रखने की सलाह के साथ यह चेतावनी दर्ज है कि यदि खनन हुआ तो इंसान-हाथी द्वंद्व उस स्तर पर चला जाएगा कि उसे नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा। लेकिन इन रिपोर्ट का क्रियान्वयन नदारद है।
परसा ईस्ट केते बासेन कोल ब्लॉक में उत्खनन लगातार जारी है। आरोप ये भी है कि जिस कोयले को 15 साल में निकालना था, उसे 7 साल में खत्म कर दिया गया। पर्यावरण पर लगातार काम करने वाले कार्यकर्ता ये दावा भी करते हैं कि राजस्थान सरकार अडाणी से जिस दर पर कोयला ले रही है, उससे भी कम दर पर कोयला, कोल इंडिया उपलब्ध करा सकती है।
ग्रामीणों के पास सिर्फ इंतजार
इन सबके बीच परसा कोल ब्लॉक के ग्रामीण फर्जी ग्रामसभा को लेकर कार्रवाई की मांग पर आर-पार की लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें अब तक सिवा इंतजार के कुछ हासिल नहीं है। परसा कोल ब्लॉक को लेकर जारी NOC के साथ सरकार की एक दलील यह भी दी जाती है कि इस इलाके में कोल बेयरिंग एक्ट के तहत कार्यवाही की गई है। लेकिन इस कार्यवाही पर जब यह प्रश्न होता है कि अनुसूचित क्षेत्र में पेसा और ग्रामसभा सर्वोच्च है तो कोल बेयरिंग एक्ट कैसे प्रभावी होगा तो तंत्र मौन हो जाता है।
एक मुख्यमंत्री की अपील दूसरे ने मानी
हाल ही में राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत छत्तीसगढ़ आए और भूपेश बघेल से मिले। गहलोत ने बघेल को राजस्थान में गहराते बिजली संकट का हवाला दिया। इससे बचने के लिए गहलोत ने तुरंत परसा इस्ट केते बासेन कोल उत्खनन के दूसरे चरण को मंजूरी देने की बात कही। इस दौरे के बाद अशोक गहलोत ने ट्वीट कर दावा किया कि छत्तीसगढ़ सरकार ने द्वितीय चरण में 1136 हेक्टेयर क्षेत्र में उत्खनन के लिए वन भूमि देने की अनुमति दे दी है।
इस पर भूपेश बघेल की ओर से कहा गया- “अंतिम अनुमति नहीं है, जो प्रक्रिया है उसके नियमों का पालन होगा। पर्यावरण के प्रति और वहां जो लोग रह रहे हैं, आदिवासियों के हितों से कोई समझौता नहीं होगा। परमीशन नियम के तहत ही दी जाएगी।” इस बयान के कुछ ही दिन बाद सरगुजा जिला मुख्यालय अंबिकापुर कलेक्ट्रेट में बसों कारों से कई लोग कलेक्ट्रेट पहुंचे। इसमें दावा किया गया कि ये ग्रामीण हैं जो खदान शुरू करने के हिमायती हैं। इनकी पहचान को लेकर सवाल किए गए।
उधर, खदान का विरोध कर रहे लोगों का दावा है कि यह (कलेक्ट्रेट पहुंचे) वे ग्रामीण थे, जिनका खनन क्षेत्र से कोई रिश्ता नहीं था। इस भीड़ के पीछे अडाणी की कंपनी है, जो इस भीड़ को ग्रामीणों की असली आवाज बताकर प्रचारित कराएगी, ताकि सरकार को असुविधाजनक स्थिति का सामना ना करना पड़े। इस भीड़ को खदान प्रभावित क्षेत्रों का बाशिंदा बताकर (क्योंकि पहचान का कोई मापदंड नहीं था ) साबित किया जा सके कि आदिवासी चाहते हैं कि खदान खुले, क्योंकि इसी में उनका हित है।