2 अक्टूबर विशेष: गांधी 1915 में द.अफ्रीका से सत्याग्रह लेकर लौटे, 32 साल में देश आजाद करा दिया

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2 अक्टूबर विशेष: गांधी 1915 में द.अफ्रीका से सत्याग्रह लेकर लौटे, 32 साल में देश आजाद करा दिया

भोपाल. 2 अक्टूबर को राष्ट्रपति महात्मा गांधी (जन्म- 2 अक्टूबर 1869) और लाल बहादुर शास्त्री (जन्म 2 अक्टूबर 1904) की जयंती है। महात्मा गांधी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे थे। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ उनके तीन प्रमुख आंदोलन थे- असहयोग आंदोलन (1920), सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930) और भारत छोड़ो आंदोलन (1942)। इतिहासकारों की मानें तो ये तीनों आंदोलन सफल नहीं रहे या यूं कहें कि उस मुकाम तक नहीं पहुंचे, जहां तक उन्हें पहुंचना चाहिए था। असहयोग आंदोलन 1922 में गोरखपुर में चोरी-चौरा में हिंसा भड़कने के चलते खत्म कर दिया गया। सविनय अवज्ञा में गांधीजी ने नमक कानून तोड़ा था, पर एक समझौते के तहत खत्म कर दिया। भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान भी सभी बड़े नेताओं को हिरासत में ले लिया गया था। इन तीनों बड़े आंदोलनों के असफल रहने के बावजूद गांधीजी का कद बढ़ता चला गया। 1942 के बाद जो परिस्थितियां बदलीं, उसके बाद 47 में अंग्रेजों को भारत छोड़कर जाना पड़ा।लाल बहादुर शास्त्री, जवाहर लाल नेहरू के बाद 9 जून 1964 को देश के दूसरे प्रधानमंत्री बने। उन्हें सादगी की प्रतिमूर्ति कहा जाता था। 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला कर दिया था। शास्त्री जी रणनीति से भारत ने पाकिस्तान को मुंहतोड़ जवाब दिया।

गांधीजी के 3 फैसलों पर विवाद1. 1931 में भगत सिंह को फांसी

8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह ने अपने साथी बटुकेश्वर दत्त के साथ दिल्ली में केंद्रीय असेंबली में दो बम फेंके और मौके से ही गिफ्तारी भी दी। भगत सिंह का मकसद किसी को मारना नहीं था। पब्लिक सेफ्टी बिल और ट्रेड डिस्प्यूट एक्ट के विरोध के साथ आजादी की आवाज दुनिया तक पहुंचाना था। भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को 7 अक्टूबर 1930 को फांसी की सजा सुनाई और तय तारीख (24 मार्च) से एक दिन पहले ही 23 मार्च 1931 को लाहौर जेल में फांसी दी गई।

फांसी से 17 दिन पहले यानी 5 मार्च 1931 को वायसराय लॉर्ड इरविन और महात्मा गांधी के बीच एक समझौता हुआ, जिसे गांधी इरविन पैक्ट के नाम से जानते हैं।

समझौते की प्रमुख शर्तों में हिंसा के आरोपियों को छोड़कर बाकी सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा किया जाना शामिल था। इसके अलावा भारतीय को समुद्र किनारे नमक बनाने का अधिकार, आंदोलन के दौरान इस्तीफा देने वालों की बहाली, आंदोलन के दौरान जब्त संपत्ति वापस किए जाने जैसी बातें शामिल थीं। इसके बदले में कांग्रेस ने सविनय अवज्ञा आंदोलन स्थगित कर दिया और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में जाने को राजी हो गई।

इतिहासकार एजी नूरानी अपनी किताब The Trial of Bhagat Singh के 14वें चैप्टर Gandhi's Truth में कहते हैं कि भगत सिंह का जीवन बचाने में गांधी ने आधे-अधूरे प्रयास किए। भगत सिंह की मौत की सजा को कम करके उम्र कैद में बदलने के लिए उन्होंने वायसराय से जोरदार अपील नहीं की थी। इतिहासकार और गांधी पर कई किताबें लिखने वाले अनिल नौरिया का कहना है कि गांधी ने भगत सिंह की फांसी को कम कराने के लिए तेज बहादुर सप्रू, एमआर जयकर औऱ श्रीनिवास शास्त्री को वायसराय के पास भेजा था। अप्रैल 1930 से अप्रैल 1933 के बीच ब्रिटिश सरकार में गृह सचिव रहे हर्बर्ट विलियम इमर्सन ने अपने संस्मरण में लिखा है कि भगत सिंह और उनके साथियों को बचाने के लिए गांधी के प्रयास ईमानदार थे और उन्हें कामचलाऊ कहना शांति के दूत का अपमान है। 

2. बोस की जगह पट्टाभि को समर्थन देना

1938 में हुए कांग्रेस के हरिपुरा अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस को अध्यक्ष चुना गया। हालांकि तब तक गांधी के साथ उनके मतभेद सामने आने लगे थे। बोस ने पत्नी एमिली शेंकल को चिट्ठी लिखी (नेताजी संपूर्ण वांग्मय खंड 7, 04 अप्रैल 1939), ‘इसमें संदेह है कि मैं अगले साल फिर से पार्टी का अध्यक्ष बन पाऊं। कुछ लोग गांधी जी पर दबाव डाल रहे हैं कि इस बार कोई मुसलमान अध्यक्ष बनना चाहिए, यही गांधी जी भी चाहते हैं। मेरी अभी तक उनसे कोई बात नहीं हुई। 

इन्हीं हालात में 29 जनवरी 1939 को त्रिपुरी में कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव हुए। गांधी की पहली पसंद अबुल कलाम आजाद माने जा रहे थे। कलाम के मना करने के बाद गांधी ने पट्टाभि सीतारमैया को उम्मीदवार बनाया। सुभाष को 1580 और सीतारमैया को 1377 वोट मिले। गांधी और पटेल के पूरा जोर लगाने के बाद भी पट्टाभि जीत नहीं सके। गांधीजी ने कहा कि पट्टाभि की हार मेरी हार है। गांधीजी कांग्रेस वर्किंग कमेटी से अलग हो गए। इसके बाद पटेल और अन्य कई सदस्यों ने भी कार्य समिति से इस्तीफा दे दिया। अप्रैल 1939 में अखिल भारतीय कांग्रेस कार्यसमिति की कलकत्ता बैठक में बोस ने इस्तीफा दे दिया। उनकी जगह राजेंद्र प्रसाद ने ले ली। बोस ने कांग्रेस के अंदर ही अपनी पार्टी फॉरवर्ड ब्लॉक बना ली।

3. पटेल की जगह नेहरू को तरजीह

29 अप्रैल 1946 को कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में नया अध्यक्ष चुना जाना था। ये चुनाव इसलिए अहम था, क्योंकि भारत की आने वाली अंतरिम सरकार का प्रधानमंत्री कांग्रेस अध्यक्ष को ही बनाया जाना तय किया गया था। कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू, सरदार पटेल, आचार्य कृपलानी, राजेंद्र प्रसाद, खान अब्दुल गफ्फार खान जैसे सभी प्रमुख नेता मौजूद थे। अध्यक्ष पद के लिए 15 में से 12 प्रांतीय कमेटियों ने सरदार पटेल का नाम प्रस्तावित किया। गांधी की इच्छा के मुताबिक, अध्यक्ष पद के लिए नेहरू के नाम का भी प्रस्ताव रखा गया।

कांग्रेस अध्यक्ष के लिए मैदान में दो नाम थे- पटेल और नेहरू। नेहरू तभी निर्विरोध अध्यक्ष चुने जा सकते थे, जब पटेल अपना नाम वापस लेते। कृपलानी ने पटेल के नाम वापसी की अर्जी लिखकर दस्तखत के लिए पटेल की तरफ बढ़ा दी। पटेल ने कागज पर दस्तखत नहीं किए और अर्जी गांधी की तरफ बढ़ा दी। गांधी ने उसे नेहरू की तरफ बढ़ाते हुए कहा, 'जवाहर, वर्किंग कमेटी के अलावा किसी भी प्रांतीय कमेटी ने तुम्हारा नाम नहीं सुझाया है। तुम्हारा क्या कहना है?' मगर नेहरू यहां चुप रहे। गांधी ने वह कागज पटेल की तरफ वापस बढ़ाया और इस बार पटेल ने अपनी नाम वापसी पर दस्तखत कर दिए। फौरन ही कृपलानी ने नेहरू के निर्विरोध कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने की घोषणा कर दी। 

शास्त्री ने दिखाई दबंगई

1962 में चीन के साथ जंग में भारत को हार का सामना करना पड़ा था। पाकिस्तान की अयूब खान सरकार ने इस मौके का फायदा उठाने की ठान ली। 1965 की गर्मी में उन्होंने ऑपरेशन जिब्राल्टर छेड़कर और भारतीय सेना की कम्युनिकेशन लाइन को ध्वस्त करने की मंशा से कश्मीर में हजारों सैनिकों को भेजा। इतना ही नहीं उन्होंने कश्मीर के मुस्लमानों को अपनी तरफ करने के लिए भारतीय सेना की जमीन पर कब्जा करने की बात फैला दी। लेकिन पाकिस्तान का मकसद पूरा नहीं हो सका।

भारतीय सेना को दुश्मन फौज के घुसपैठ करने की सूचना कश्मीरी किसानों और गुज्जर चरवाहों से मिली थी। ऐसे में पाकिस्तान पर उलट वार हुआ। ऑपरेशन जिब्राल्टर उन पर उल्टा पड़ गया। भारतीय सेना ने प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के आदेश को अंजाम दिया। भारतीय सेना ने पंजाब में अंतरराष्ट्रीय सीमा को पार किया और पाकिस्तान में घुसकर दो तरफा हमला किया। इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था, जब भारतीय सेना ने अंतरराष्ट्रीय सीमा को ना केवल पार किया, बल्कि मेजर जनरल प्रसाद के नेतृत्व में लाहौर पर हमला भी किया। सियालकोट और लाहौर पर हमला करने की रणनीति शास्त्री जी की ही थी। 

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